पंकज कुमार झा

रामनवमी विशेष : भारतीय पंथनिरपेक्षता के प्रतीक पुरुष श्रीराम

पंथनिरपेक्षता का विचार तो खैर अभारतीय है ही, इसलिए आज भी देश का बड़ा मानस इस विचार के साथ खुद को असहज पाता है, कभी खुद को इस विचार के साथ जोड़ नहीं पाता है। अन्य देशों का नहीं पता लेकिन भारत के लिए यह कथित विचार कृतिम है, कोस्मेटिक है, थोपा सा है, अप्राकृतिक है। हालांकि यह भी तथ्य है कि इससे मिलते-जुलते विचार को भारत अनादि काल से जीता आ रहा है। वह विचार है सर्व पंथ

भारतीय राजनीति के सूर्य का अस्ताचलगामी हो जाना!

1985 के शुरुआत की बात है। श्रीमती इंदिरा गांधी की दुखद हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में नवोदित भाजपा मात्र दो सीटों तक सिमट कर रह गयी थी। तब ऐसा लगा था मानो पार्टी का अस्तित्व शुरू होते ही ख़त्म हो गया हो। सर मुड़ाते ही ओले पड़े हों जैसे। ऐसे नैराश्य के समय में एक दिन पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक शांता कुमार, अटल जी के यहां किसी कार्यक्रम का

भारतीय राजनीति के ‘राजर्षि’ हैं अटल बिहारी वाजपेयी

आपने वर्णमाला भी अभी पूरी तरह से सीखी नहीं हो और कहा जाय कि निराला के अवदान पर कोई निबंध लिखें; ‘दिनकर’ पर टिप्पणी आपको तब लिखने को कहा जाय जब आपने विद्यालय जाना शुरू ही किया हो, इतना ही कठिन है राजनीति के अपने जैसे किसी शिशु अध्येता के लिए अटल जी पर कुछ लिखना। और अगर साहित्य के साधक ऋषि का ‘राजर्षि’ में रूपांतरण या साहित्य और राजनीति दोनों को दूध और