शैलेन्द्र कुमार शुक्ला

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मज़हबी तुष्टिकरण करना ही है कांग्रेस का मूल चरित्र

खुद को धर्मनिरपेक्षता की जननी बताने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता और उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत ने मुस्लिम कर्मचारियों के लिये 90 मिनट का अवकाश तय किया है। ये अवकाश उन्हें नमाज़ अदा करने के लिये मिलेगा। इस विषय से संबंधित प्रस्ताव कैबिनेट में पास भी हो गया है। दरअसल कांग्रेस का यह चुनावी पैंतरा है, इससे ज्यादा कुछ नहीं है। जिस प्रांत में अराजकता, भ्रष्टाचार और लचर कानून

लोक मंथन : परंपरा और जीवन-शैली का हमारे चिंतन पर पड़ता है प्रभाव

भारतीय संस्कृति का दर्शन और अवधारणा हमेशा से ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की रही है। सदियों से हम इसी परंपरा का निर्वाह करते आ रहे। इसी भावना ने हमें अस्त-व्यस्त भी किया, लेकिन हमारी भावना गलत नहीं थी। इसलिए हजारों आक्रमणों को झेलने के बाद भी हम चट्टान की तरह खड़े हैं। लोकमंथन का दूसरा दिन भी इसी के इर्द-गिर्द रहा, जहां भारतीयता से लेकर आधुनिकता और बाजारवाद सभी विषयों पर वृहद

लोक मंथन : सनातन धर्म ही है भारतीयता की प्राणवायु

दुनिया की हर सभ्यता का विकास और उसका संचार मंथन से ही होता है। सभ्यताएं भी इसी से जीवित और गतिमान रहती है। मंथन भारतीय परंपरा का भी हिस्सा रहा है। पौराणिक कथाओं और उपनिषदों में ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे। प्रायः मंथन से हर बार देश और समाज को नयी दिशा मिलती है और वह समाज अथवा देश दोगुने उत्साह से अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की

भारतीय अस्मिता और विकास को समर्पित थे दत्तोपंत ठेंगड़ी

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अपने पूरे जीवन को राष्ट्र पुनर्निमार्ण के लिए समर्पित कर दिया। उनका हर प्रयास भारतीय अस्मिता और विकास के लिए प्रेरित था। वो भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति भी सजग रहते थे। अपने लेखन और उद्बोधनों में वह अक्सर कहा करते थे कि हमारी संस्कृति का उद्देश्य संपूर्ण विश्व को मानवता की पथ पर अग्रसर करना है, जहां से हमारी राष्ट्र पुननिर्माण की

धर्मांध शासक टीपू सुल्तान की जयंती मनाने की ये कैसी कांग्रेसी मजबूरी ?

एक धर्मांध, विस्तारवादी और बर्बर शासक टीपू सुल्तान की जयंती मनाने को लेकर कांग्रेसी उतावलापन उसके समुदाय विशेष के तुष्टिकरण कारनामों के पुलिंदे में एक नया आयाम जोड़ रहा है। वह भी ऐसे समय में जब स्वयं कर्नाटक हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि टीपू कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं था, वह महज एक शासक था जो अपने हितों के लिए लड़ा। समाज या देश के विकास में उसका कोई योगदान नहीं था। माननीय

भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज है अरुण जेटली की पुस्तक ‘अँधेरे से उजाले की ओर’

‘अँधेरे से उजाले की ओर’ पुस्तक, श्री अरुण जेटली जी के अंग्रेजी में लिखित लेखों का हिंदी अनुवाद है। ये अनुवाद श्री प्रणव सिरोही जी ने किया है। इस पुस्तक का लोकार्पण हाल ही में 21 अक्टूम्बर 2016 को, भाजपा के राष्ट्रीय कार्यालय में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह के कर-कमलों से हुआ। यह पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुयी है। यह पुस्तक “श्री अरुण जेटली ने राज्यसभा में नेता

दीनदयाल उपाध्याय के विराट व्यक्तित्व का साक्षात्कार कराती पुस्तक

लगभग तीन सौ पृष्ठ वाली इस दीनदयाल वांग्मय नामक पुस्तक में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं को शामिल किया गया है। पुस्तक में वस्तुतः पंडित जी के बाल्यकाल से लेकर उनकी हत्या तक की सारी घटनाओं को समाहित किया गया है। चार खंडो में विभाजित इस पुस्तक में 36 अध्याय है। प्रथम खंड ‘जीवनकाल’ में बाल्यकाल से लेकर उनके प्राणोत्सर्ग तक की घटनाओं पर प्रकाश डाला

नमामि गंगे : निर्मल और अविरल गंगा के लिए भागीरथ प्रयास

प्रत्येक नदी अपने आप में सभ्यता का प्रतीक मानी जाती हैं और गंगा तो हजारों साल पुराने इस देश की न सिर्फ सभ्यता है, बल्कि जीवन रेखा है, वह भी अटूट श्रद्धा लिए हुए। इसका उल्लेख दो हजार साल पहले यूनानी राजदूत मैगस्थनीज ने अपनी किताब “इंडिका” में भी किया। सनातन धर्म के शास्त्र-पुराणों में यहां तक जिक्र है कि कलियुग में गंगा ही पापनाशिनी और मोक्ष प्रदायिनी है। ऋग्वेद, महाभारत, रामायण व

मजदूरों के कष्टों को निकट से समझते थे दत्तोपंत ठेंगड़ी

भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी आंदोलन के अग्रदूत पूज्य दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम जेहन में आते ही एक महान सेनानी, राष्ट्रवादी संगठनों के जनक, विचारक तथा आचरण एवं संस्कारयुक्त जीवन जीने वाले एक सन्यासी की छवि उभरकर सामने आती है। उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही सहज था, उन्होने गांव-गरीब और मजदूर वर्ग के अंतर्मन में सम्मान के साथ जीने की लालसा उत्पन्न की।

सनातन मूल्यों और राष्ट्रवादी विचारों के समर्थक रचनाकार थे निराला!

भारतीय साहित्य में जब भी निराला की चर्चा होती है तब उनकी छवि एक ऐसे लेखक और कवि की बनती है जो पूरे समाज से विद्रोह करने पर आतुर है, वह व्यवस्था के खिलाफ है, लोकतंत्र के विरुद्ध है और वह सबके साथ एक बार युद्ध छेड़ने का प्रयास करता है, लेकिन निराला की वास्तविकता इससे परे है।