समाज-संस्कृति

बिना राष्ट्रीयता का भाव उत्पन्न किए देश का उद्धार दुष्कर है : पं मदन मोहन मालवीय

राष्ट्रीयता की भावना को एक बेहद जरुरी बात मानते हुए पं मदन मोहन मालवीय ‘भारतवासी और देशभक्ति’ शीर्षक की अपनी टिप्पणी में लिखते हैं कि ‘देशभक्ति उस भक्ति को कहते है कि जिसके आगे हम अपने को भूल जायँ, देश की उन्नति ही में अपनी उन्नति समझें, देश ही के यश में अपना यश समझें, देश ही के जीवन में अपना जीवन समझें और देश ही की मृत्यु में अपनी मृत्यु समझें। भारत का उद्धार करने वाली

सदैव प्रासंगिक रहेंगे राष्ट्रवाद पर पं मदन मोहन मालवीय के विचार

भारतवर्ष का इतिहास अनगिनत घटनाओं का इतिहास है, जो इसके विविध कालखंडों की उन तमाम गाथाओं को समेटे हुए है, जिनमें जय है, पराजय है, वैभवकाल है तो कही संक्रमणकाल का लंबा दौर। भारत के इतिहास के संबंध में तमाम बातें कही जाती है लेकिन एक बात जो बेहद महत्वपूर्ण है, वह है कि जहाँ दुनिया की कई सभ्यताएं विलुप्त हो गई, भारत का अस्तित्व बरकरार रहा। तमाम मुसीबतों के बावजूद वह

लोक-साहित्य : भारतीय परम्पराओं का जीवंत प्रमाण

देवेंद्र सत्यार्थी के शब्दों में, लोक साहित्य की छाप जिसके मन पर एक बार लग गई फिर कभी मिटाए नहीं मिटती। सच तो यह है कि लोक-मानस की सौंदयप्रियता कहीं स्मृति की करूणा बन गई है, तो कहीं आशा की उमंग या फिर कहीं स्नेह की पवित्र ज्वाला। भाषा कितनी भी अलग हो मानव की आवाज तो वही है।

विविधतापूर्ण भारतीय संस्कृति का सफल वाहक है हमारा लोक-साहित्य

किसी संस्कृति विशेष के उत्थान-पतन विषयक उतार-चढ़ावों का जितना सफल अंकन लोक-साहित्य में रहता है, उतना अन्यत्र नहीं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किसी भी संस्कृति की धूल उसकी आत्मा से जुड़ी होती है। अब अगर देश की बात की जाए तो भारतीय संस्कृति जितनी अधिक प्राचीन है, उतनी ही अधिक विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिलित स्वरूप की वाहक भी। समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों ने इस

मानसिक गुलामी को हटाएगा लोक मंथन : दत्तात्रेय होसबोले

भोपाल। पिछले कुछ समय में एक खास विचारधारा के लोगों ने सुनियोजित ढंग से राष्ट्र और राष्ट्रीयता पर प्रश्न खड़े करने का प्रयास किया है। उन्होंने राष्ट्रीय विचार को उपेक्षित ही नहीं किया, बल्कि उसका उपहास तक उड़ाया है। जबकि इस खेत में खड़े किसान, कारखाने में काम कर रहे मजदूर, साहित्य सृजन में रत विचारक, कलाकार और यहाँ तक कि सामान्य नागरिकों के नित्य जीवन में राष्ट्रीय भाव प्रकट होता है।

मजदूरों के कष्टों को निकट से समझते थे दत्तोपंत ठेंगड़ी

भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी आंदोलन के अग्रदूत पूज्य दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम जेहन में आते ही एक महान सेनानी, राष्ट्रवादी संगठनों के जनक, विचारक तथा आचरण एवं संस्कारयुक्त जीवन जीने वाले एक सन्यासी की छवि उभरकर सामने आती है। उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही सहज था, उन्होने गांव-गरीब और मजदूर वर्ग के अंतर्मन में सम्मान के साथ जीने की लालसा उत्पन्न की।

भारतीय राजनीति में संस्कृति के अग्रदूत थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 100वीं जयंती 25 सितंबर को है। चूँकि दीनदयाल उपाध्याय भाजपा के राजनीतिक-वैचारिक अधिष्ठाता हैं। इसलिए भाजपा के लिए यह तारीख बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके विचारों और उनके दर्शन को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए भाजपा ने इस बार खास तैयारी की है। दीनदयाल उपाध्याय लगभग 15 वर्ष जनसंघ के महासचिव रहे। वर्ष 1967 में उन्हें

हिंदी दिवस: हिंदी पत्रकारिता में कितनी बची हिंदी ?

पत्रकारिता एवं भाषा के बीच का परस्पर संबंध हमेशा से ही विमर्श का विषय रहा है। हिंदी भाषा की पत्रकारिता का मूल्यांकन कालखंडों के परिप्रेक्ष्य में मूलतया तीन बिन्दुओं पर किया जा सकता है। वो तीन बिंदु हैं, पत्रकारिता का भाषाई स्वरुप कैसा था, वर्तमान में कैसा है एवं इसका भावी भाषाई स्वरुप कैसा हो

देश के अनेक इतिहासों की साक्षी है दिल्ली की रिज

हाल में ही केन्द्रीय सूचना आयोग के दिल्ली के रिज क्षेत्र के सीमांकन में देरी के कारण अंधाधुंध अतिक्रमण और अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई पर रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया। इतना ही नहीं, आयोग ने रिज क्षेत्र की सीमा चिन्हित करने में देरी से अतिक्रमण और मानचित्र सहित जानकारी मांगी है। इस तरह, एक बार फिर दिल्ली की रिज चर्चा में है।

सनातन मूल्यों और राष्ट्रवादी विचारों के समर्थक रचनाकार थे निराला!

भारतीय साहित्य में जब भी निराला की चर्चा होती है तब उनकी छवि एक ऐसे लेखक और कवि की बनती है जो पूरे समाज से विद्रोह करने पर आतुर है, वह व्यवस्था के खिलाफ है, लोकतंत्र के विरुद्ध है और वह सबके साथ एक बार युद्ध छेड़ने का प्रयास करता है, लेकिन निराला की वास्तविकता इससे परे है।