दीनदयाल उपाध्याय

जयंती विशेष : पंडित दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानवदर्शन

एकात्म मानव दर्शन भारत की सनातन संस्कृति एवं चिरंतन जीवन-पद्धत्ति की युगीन व्याख्या है। परस्पर सहयोग एवं आंतरिक-तात्विक जुड़ाव पर अवलंबित रहने के कारण यह विस्तारवादी-साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों एवं महत्ववाकांक्षाओं पर विराम  लगा विश्व-बंधुत्व की भावना को सच्चे एवं वास्तविक अर्थों में साकार करता है। सरलता और सादगी की प्रतिमूर्त्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी एवं विलक्षण

भारत की सनातन संस्कृति एवं चिरंतन जीवन-पद्धति की युगीन व्याख्या है एकात्म मानववाद

उन्होंने मनुष्य का समग्र चिंतन करते हुए जिस दर्शन का प्रवर्त्तन किया, उसे  पहले ‘समन्वयकारी मानववाद’ और बाद में ‘एकात्म मानववाद’ नाम दिया।

पत्रकारिता में शुचिता, नैतिकता और आदर्श के पक्षधर थे दीनदयाल उपाध्याय

दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ।

आत्मनिर्भर भारत अभियान : दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर चल रही मोदी सरकार

दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक दर्शन भारतीयता के मूल से निकला हुआ दर्शन है, किन्तु वैचारिक मदभेदों के कारण देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेसनीत सरकारों ने उन विचारों की उपेक्षा की, जिसका दुष्परिणाम हम बढ़ते पूंजीवाद, व्यवस्थाओं के केन्द्रीकरण, आयात पर निर्भरता, असंतुलित औद्योगीकरण के रूप में देख सकते हैं।

दीनदयाल उपाध्याय : ‘व्यक्ति और समाज का सुख परस्पर विरोधी नहीं, पूरक होता है’

आज दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि  है। शुरुआत में ही यह भी जोड़ना उचित होगा कि दीनदयाल उपाध्याय को याद करने की एकमात्र वजह यह नहीं होनी चाहिए कि उनको मानने वाले लोग अभी सत्ता में हैं बल्कि इसलिए भी उनको याद करना जरूरी है कि समन्वयवाद की जो धारा हमेशा से भारतीय चिंतन के केंद्र में रही है, दीनदयाल भी उसी के पोषक हैं। आज दीनदयाल को याद करने की एक बड़ी वजह यह भी है कि वो कट्टरता के धुर विरोधी थे।

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोकमत के परिष्कार को आवश्यक मानते थे दीनदयाल उपाध्याय

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोकमत के परिष्कार का सुझाव दिया था। उस समय देश की राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था। उसके विकल्प की कल्पना भी मुश्किल थी। दीनदयाल जी से प्रश्न भी किया जाता था कि जब जनसंघ के अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो जाती है, तो चुनाव में उतरने की जरूरत ही क्या है। दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन सकारात्मक था। उनका कहना था कि चुनाव के

देश के हर ‘कोविंद’ की आँख में भाजपा ने आकाश तक पहुँचने का स्वप्न रोप दिया है !

भारत एक अद्भुत और स्वर्णिम युग में प्रवेश कर चुका है। विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल और भारत की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने फिर से एक बार अपने होने का मतलब साबित किया है। फिर से दीनदयाल के अन्त्योदय का सपना साकार हुआ है। भारत के करोड़ों ‘रामनाथ’ के घर की कच्ची दीवाल के पक्के होने की अलख जगी है। देश के हर ‘कोविंद’ की आंखों में आकाश तलक पहुंच पाने का

आखिर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कैसे बनी भाजपा ?

भारत की राजनीति में दलीय व्यवस्था का उभार कालान्तर में बेहद रोचक ढंग से हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस का पूरे देश में एकछत्र राज्य हुआ करता था और विपक्ष के तौर पर राज गोपाल चारी की स्वतंत्र पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सहित बहुत छोटे स्तर पर जनसंघ के गिने-चुने लोग होते थे। उस दौरान भारतीय राजनीति में एक दलीय व्यवस्था के लक्षण दिख रहे थे। सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आजाद हुए

आज़ाद भारत के पुनर्निर्माण के प्रति चिंतित थे दीनदयाल उपाध्याय

देेश जब गुलामी के दौर से गुजर रहा था, उस समय देश के नागरिकों और तत्कालीन नेताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों एवं समाजसेवियों का एक मात्र उद्देश्य था कि देश को अग्रेजों से आजाद कराया जाए। भारत माँ की गुलामी की बेड़ियों को किस प्रकार से तोड़ा जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, इस देश के असंख्य आजादी के दीवानों ने अपने-अपने तरीके से कार्य किया तथा आजादी की लड़ाई लड़ी। इनमें कई वर्ग ऐसे थे

दीनदयाल उपाध्याय : जिनके लिए राजनीति साध्य नहीं, साधन थी !

भारतीय राजनीति में दीनदयाल जी का प्रवेश कतिपय लोगों को नीचे से ऊपर उठने की कहानी मालुम पड़ती है। किन्तु वास्तविक कथा दूसरी है। दीनदयाल जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में रहकर जिस आंतरिक व महती सूक्ष्म भूमिका को प्राप्त कर लिया था, उसी पर वे अपने शेष कर्म शंकुल जीवन में खड़े रहे। उस भूमिका से वे लोकोत्तर हो सकते थे, लोकमय तो वो थे ही। देश के चिन्तक वर्ग को कभी-कभी लगता है कि