बसपा

यूपी : विकास के मुद्दे पर अडिग भाजपा

यूपी में सपा-बसपा की पिछली दोनों सरकारों ने जहाँ जातिवाद और तुष्टिकरण की राजनीति की वहीं वर्तमान भाजपा सरकार विकास की राजनीति कर रही है।

यूपी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में भाजपा की जीत के निहितार्थ

कोरोना काल के दौरान भाजपा संगठन ने अपनी जमीनी सक्रियता को कायम रखा। सभी स्तरों पर सक्रियता थी। दूसरी तरफ विपक्ष इस मामले में पिछड़ गया।

संकट के समय भी चुनावी राजनीति में उलझी है कांग्रेस

आजादी के बाद से ही कांग्रेसी सरकारें गरीबों के कल्‍याण का नारा लगाकर अपनी और अमीरों की तिजोरी भरती रही हैं। यही कारण है कि बिजली, पानी, अस्‍पताल, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं आम आदमी की पहुंच से दूर रहीं।

‘मोदी ने महागठबंधन के विषय में जो कहा था, वो एकदम सच साबित हुआ’

शिखर पर तो दोनों पार्टियों की दोस्ती हो गई। लेकिन जमीन पर ऐसा खुशनुमा माहौल नहीं बन सका। डेढ़ दशक तक दोनों के बीच तनाव रहा। इनके लिए यह सब भूल जाना मुश्किल था। पहले कांग्रेस फिर बसपा से गठबन्धन के समय अखिलेश यादव ने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया जिसके चलते सपा को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे भी इस तरह के सिद्धांतहीन गठजोड़ का यही हश्र होना था।

क्या लोकसभा चुनाव के साथ ही बुआ-बबुआ का लगाव भी खत्म हो गया?

उत्तर प्रदेश की सियासत में इन दिनों कुछ ऐसा हो रहा है जिसे आप हास्यास्पद कह सकते हैं। यहाँ जितनी तेजी के साथ गठबंधन बना उससे कहीं तेजी से उसका पटाक्षेप भी होता दिख रहा है। आम चुनाव से ठीक पहले मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए मायावती और अखिलेश ने चुनावी गठबंधन किया, जिसका आशय था दलित और यादव वोट बैंक को एकदूसरे के खाते में

मोदी की सुनामी में ध्वस्त हुए जातिवादी समीकरण

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबन्धन भी समीकरण के हिसाब से हुआ था। ये सारे समीकरण जातिवादी मतों के फार्मूले से बनाये गए थे। लेकिन ये जातिवादी दल समझ ही नहीं सके कि गरीबों के लिए चलाई गई मोदी सरकार की योजनाओं से करोड़ो लोग सीधे लाभान्वित हो रहे हैं, जिनमें सभी जाति वर्ग के लोग शामिल हैं। ऐसे लोगों ने जातिवादी

कांग्रेस : एक राष्ट्रीय पार्टी से एक ‘वोटकटवा’ पार्टी तक का सफर

कांग्रेस की इस हालत  कि उसे क्षेत्रीय दलों के बीच वोटकटवा पार्टी की भूमिका निभानी पड़ रही है, के लिए उसके भीतर मौजूद परिवारवादी राजनीति और नेताओं का अहंकारी चरित्र ही जिम्मेदार है। कांग्रेस यह माने बैठी   रही और शायद आज भी है   कि ये देश उसकी जागीर है और यहाँ सत्ता उसीके हाथ रहनी है। इस  अहंकार में जनता और जनता के हित से दूर हो   चुकी इस पार्टी की ये दुर्गति तो होनी ही थी। लोकतंत्र में जनता सबसे अधिक सम्माननीय होती है, वो अर्श पर

क्यों लगता है कि सपा-बसपा गठबंधन से भाजपा को नहीं होगी कोई मुश्किल?

2019 लोक सभा चुनाव से पूर्व देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को न चाहते हुए भी अपना दुश्मन नंबर-2 बना लिया है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हराने की मजबूरी में दो ऐसी पार्टियों सपा और बसपा के बीच गठबंधन हुआ जो पिछले दो दशक से एकदूसरे की धुर विरोधी रही हैं। 

मायावती के झटके के बाद महागठबंधन की खिचड़ी पकना आसान नहीं

गत मई में हुआ कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह विपक्ष के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। विपक्ष का शायद ही कोई बड़ा नेता ऐसा रहा हो, जिसने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई हो। जिनको कर्नाटक में कोई ठीक से जानता पहचानता नहीं था, वह भी विजेता भाव के प्रदर्शन में पीछे नहीं थे।

मायावती के झटके के बाद क्या होगा महागठबंधन का भविष्य?

मायावती जानती हैं कि गठबन्धन की बात विकल्पहीनता की स्थिति  के कारण चल रही है। यदि सपा कमजोर नहीं होती तो आज भी बुआ के संबोधन में तंज ही होता। ऐसे में मायावती गठबन्धन नहीं सौदा करना चाहती हैं। गोरखपुर और फूलपुर में भी उन्होंने समझौता ही किया था। उन्होंने शर्तो के साथ ही समर्थन दिया था। इसमें उच्च सदन के लिए समर्थन की शर्त लगाई गई थी। लेकिन अखिलेश मायावती की शर्त को पूरा नहीं कर पाए थे।