असहिष्णुता

बेंगलुरु हिंसा पर सेक्युलर ब्रिगेड और बुद्धिजीवियों की चुप्पी से उपजते सवाल

अराजकता के व्याकरण में विश्वास रखने वाला समूह चेहरा और वेष बदल-बदलकर देश को हिंसा से लहूलुहान कर रहा है और कथित धर्मनिरपेक्ष धड़ा चुप है।

क्या देश की छवि खराब करने दुबई गए थे राहुल गांधी?

कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, लेकिन यह देश रहना चाहिए। इसका निहितार्थ था कि राजनीतिक विरोध की एक सीमा होनी चाहिए। जहां राष्ट्रहित का प्रश्न हो वहां केवल आपसी सहमति का प्रदर्शन होना चाहिए।

असहिष्णुता की आंधी और पुरस्कार वापसी की अंतर्कथा

अजीब आंधी थी वह। धूल और बवंडर के साथ कुछ वृक्षों को धराशायी करती हुई। किस दिशा से आई है, केंद्र क्या है, इस पर अलग-अलग कयास लगाये जा रहे थे। भारत का संपूर्ण शिक्षित समुदाय जो अखबार पढ़ता और टी.वी. देखता है, इस विवाद में शामिल हो गया था। पुरस्कार वापसी पर पक्ष और विपक्ष – दो वर्ग बन गए थे। पक्ष हल्का, विपक्ष भारी।

रामजस कॉलेज प्रकरण पर हंगामा, तो केरल की वामपंथी हिंसा पर खामोशी क्यों ?

रामजस महाविद्यालय प्रकरण से एक बार फिर साबित हो गया कि हमारा तथाकथित बौद्धिक जगत और मीडिया का एक वर्ग भयंकर रूप से दोमुंहा है। एक तरफ ये कथित धमकियों पर भी देश में ऐसी बहस खड़ी कर देते हैं, मानो आपातकाल ही आ गया है, जबकि दूसरी ओर बेरहमी से की जा रही हत्याओं पर भी चुप्पी साध कर बैठे रहते हैं। वामपंथ के अनुगामी और भारत विरोधी ताकतें वर्षों से इस अभ्यास में लगी

वामपंथियों के बौद्धिक प्रपंचों और दोहरे चरित्र को उजागर करतीं कुछ घटनाएं

पिछले दिनों दो-तीन अहम घटनाएं हुईं। उर्दू भाषा के एक कार्यक्रम जश्न-ए-रेख्ता में पाकिस्तानी-कनाडाई मूल के लेखक-विचारक तारिक फतह के साथ बदसलूकी और हाथापाई हुई, माननीय पत्रकार सह विचारक सह साहित्यकार ‘रवीश कुमार’ के भाई सेक्स-रैकेट चलाने के मामले में आरोपित हुए और अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में फिर से एक ‘सेमिनार’ के बहाने जेएनयू में ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी-जंग

जश्न-ए-रेख्ता में कट्टरपंथियों ने किया तारिक फ़तेह का विरोध, खामोश क्यों हैं सेकुलर ?

बीते रविवार तो दिल्ली में जश्न-ए-ऱेख्ता खत्म हुआ । उर्दू भाषा के इस उत्सव में काफी भीड़ इकट्ठा होती है । बॉलीवुड सितारों से लेकर मंच के कवियों की महफिल सजती है । प्रचारित तो यह भी किया जाता है कि ये तरक्कीपसंद और प्रोग्रेसिव लोगों का जलसा है । होगा । लेकिन इस बार जश्न-ए-रेख्ता में जो हुआ वह इस आयोजन को और इसके आयोजकों को सवालों के घेरे में खड़ा करता है और यह साबित भी करता है कि

आतंकवाद के खिलाफ पूर्णतः असहिष्णु होने का समय

हाल में जब उड़ी पर हमले हुए तो मीडिया ब्रेकिंग न्यूज़ और प्राइम टाइम इसीसे भरे दिखने लगे। हर और एक ही शोर था, सख्त से सख्त कदम उठाये जाएँ ! पाकिस्तानी सेना को करारा जवाब दो ! कोई युद्ध छेड़ने की बात कर रहा था, किसी को आर्थिक पाबंदियां लगानी थी, तो कोई पाकिस्तानी कलाकारों को भी भारत में प्रतिबंधित कर देने की वकालत कर रहा था। आख़िरकार, मैंने सोचा ! हालांकि कलाकारों पर

यूपी चुनाव आते ही लामबंद होने लगा असहिष्णुता गिरोह

असहिष्णुता की बहस को गुजरे अधिक समय नहीं हुआ। यदि आप असहिष्णुता की पूरी बहस में सक्रिय गिरोह की भूमिका को याद करें तो यह बिहार चुनाव से ठीक पहले सक्रिय हुआ था और बिहार चुनाव के ठीक बाद असहिष्णुता की पूरी बहस शांत हुई थी। चुनाव के दौरान अखलाक की हत्या को कमान बनाकर वामपंथी गिरोह ने बिहार चुनाव में तीर चलाया था। खैर, नीतीश की जीत के बाद असहिष्णुता की पूरी

कॉमरेड कृष्णा सोबती की असहिष्णुता, संघियों से न कराओ विमोचन!

असहिष्णुता का मुद्दा अभी पुराना नहीं हुआ है। यह मुद्दा खूब उछाला गया था। राष्ट्रवादी विचारधारा के विरोधी खेमे ने ‘असहिष्णुता’ शब्द को अन्तराष्ट्रीय बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। उनका आरोप था कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। खैर, यह देश असहिष्णु है कि नहीं इसपर खूब बहस हो चुकी है लेकिन इस देश के बौद्धिक संस्थानों में पूर्व की कांग्रेसी सरकारों एवं बाहर के आयातित फंड पर अकादमिक संस्थानों के सहारे पलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी जरुर असहिष्णु हैं।