अच्छे दिन की उम्मीद बरकरार

प्रदीप सिंह

केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपने कार्यकाल के दो साल पूरे करने जा रही है। इन दो सालों में उसे संसद में विपक्ष, संसद के बाहर अपने बयानवीरों और मौसम का साथ नहीं मिला। मौसम ने अर्थवव्यवस्था को प्रभावित किया तो विपक्ष ने अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों को। बयानवीर प्रधानमंत्री के सबका साथ सबका विकास नारे की धार को थोड़ा भोथरा करने में कामयाब रहे। इसके बावजूद सरकार की उपलब्धि से लोग कुछ निराश भले हों पर नाउम्मीद नहीं हैं। जब तक उम्मीद बाकी है तब तक सरकार के लिए खतरा नहीं होता। लगता है मोदी सरकार के कार्यकाल के तीसरे साल की शुरुआत मानसून के साथ और राजनीतिक कामयाबी से होने वाली है। नरेंद्र मोदी को दो साल पहले लोकसभा चुनाव में जो कामयाबी मिली वह किसी दूसरे गैर कांग्रेसी नेता को कभी नहीं मिली। पहली बार देश के वंचित वर्ग ने भाजपा का साथ दिया। कांग्रेस से निराश, दूसरे राजनीतिक विकल्पों से हताश इस वर्ग को मोदी में उम्मीद नजर आई। अयोध्या आंदोलन और अटल बिहारी की लोकप्रियता के शिखर के दिनों में भी इस वर्ग ने भाजपा की ओर नहीं देखा। 2014 में भी उसने भाजपा को नहीं मोदी को वोट दिया। मोदी सरकार के पहले साल में लगा कि पार्टी और सरकार दोनों ने इस वर्ग को भुला दिया है। अब इसे दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में मिली हार का, राहुल गांधी के सूट बूट की सरकार के तंज का असर कहें या कुछ और, लेकिन सच यह है कि सरकार की तंद्रा टूटी। सरकार ने दूसरे साल में गियर बदला। इसकी बड़ी शुरुआत आम बजट से हुई। चालू वित्त वर्ष के बजट में वह सब कुछ था जिसकी उम्मीद पहले दिन से थी। यानी गांव, गरीब और किसान की ओर सरकार का ध्यान गया। 1पहले साल में मोदी सरकार से शिकायत यह रही कि वह काम करने का दावा तो कर रही है पर वह दिख नहीं रहा है, लेकिन चार मंत्रलयों, सड़क परिवहन एवं जहाजरानी, वित्त, पेट्रोलियम और ऊर्जा मंत्रलय के काम का असर दिखने लगा है। इनमें नितिन गडकरी और अरुण जेतली पहले भी मंत्री (राज्य और केंद्र में) रह चुके हैं। धर्मेद्र प्रधान और पीयूष गोयल पहली बार मंत्री बने हैं। इन दोनों मंत्रियों और गडकरी के काम ही नहीं उसकी गति और परिमाण अन्य मंत्रियों के लिए चुनौती बन गए हैं। मंत्रलय में रात 11-12 बजे भी काम हो रहा हो और मंत्री मौजूद हों तो यह सरकार की नई कार्य संस्कृति है। अभी तक के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि लगातार तीन साल मानसून फेल हुआ हो। मौसम विभाग की भविष्यवाणी सच होने पर सबकी निगाहें टिकी हैं। मानसून ने साथ दिया तो तीसरे साल में अच्छे दिन के नारे पर सरकार को बचाव की मुद्रा में नहीं आना पड़ेगा। 1सरकार को संसद में विपक्ष का साथ न मिला है और न मिलने वाला है, खासतौर से कांग्रेस और वाम दलों का। जनता दल यूनाइटेड भी इसी जमात में शामिल है। कांग्रेस समर्थकों में की जमात में जद(यू) नया मुल्ला है। एक समय गांधी परिवार की हिमायत में जो भूमिका लालू प्रसाद यादव और उनके सहयोगी निभाते थे अब वह जिम्मेदारी नीतीश कुमार और उनके साथियों ने संभाल ली है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष में इस टकराव के कारण तो कई हैं, लेकिन इनमें दो प्रमुख हैं: पहला है राजनीतिक दलों के नेताओं में संवाद की कमी। दूसरा है, संसद के दोनों सदनों में संख्या बल का असंतुलन। लोकसभा में सरकार को कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि उसके पास दो तिहाई बहुमत है। राज्यसभा में सत्तारूढ़ गठबंधन के पास सामान्य बहुमत भी नहीं है। इसलिए विधायी कार्य के लिए सरकार कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों पर निर्भर है। सो सड़क के मुद्दे राज्यसभा में तय हो रहे हैं। फिर चाहे वह नेशनल हेरॉल्ड हो या अॅगस्ता वेस्टलैंड।1बीते दो सालों में मोदी सरकार के विरोधियों से ज्यादा भाजपा और संघ परिवार के बयानवीरों ने क्षति पहुंचाई है। इसका असर सरकार ही नहीं, प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि पर भी पड़ा है। ऐसे बयान के बाद प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया की मांग होती है। प्रधानमंत्री की चुप्पी को उनकी सहमति या कमजोरी के तौर पर देखा जाता है। इन बयानों को पार्टी में आंतरिक जनतंत्र की दुहाई देकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पार्टी नेतृत्व को इसका हल खोजना चाहिए। मोदी सरकार की समस्या इन्हीं तीन तक सीमित नहीं है। भाजपा जब भी सत्ता में आती है उससे नाराज होने वालों की कतार में सबसे आगे पार्टी के कार्यकर्ता ही होते हैं। इस समय सबसे ज्यादा बेचैन उसके लोकसभा सदस्य हैं। उनकी शिकायत है कि सरकार या पार्टी में सांसदों से संवाद की कोई व्यवस्था नहीं है। प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों से मिलना कठिन काम है। संसदीय दल की बैठक में भी सांसदों को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिलता। दूसरी शिकायत है कि मंत्री उनके कहने से काम नहीं करते। तीसरी शिकायत है कि सरकारी योजनाओं को लागू कराने में सांसदों की अपेक्षित भागीदारी नहीं है। मुद्रा योजना को लेकर शिकायत है कि बैंक उनकी सिफारिश पर उनके लोकसभा क्षेत्र में किसी को कर्ज नहीं देते। सांसदों का सवाल है कि अपने क्षेत्र का काम लेकर किसके पास जाएं। ऐसे में मोदी की सांसदों से छोटे-छोटे समूहों में मिलने की घोषणा से उम्मीद जगी है।1दो साल में शीर्ष पर भ्रष्टाचार रोक देना सरकार की बड़ी उपलब्धि है। अर्थव्यवस्था सुधार की ओर है। इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में रुकी हुई परियोजनाएं ही नहीं, नई परियोजनाओं पर भी काम हो रहा है। 2019 तक 24 घंटे बिजली और पांच करोड़ गरीब परिवारों को रसोई गैस कनेक्शन जैसी योजनाएं समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाएंगी। पहली बार पेट्रोलियम मंत्रलय कल्याणकारी योजनाएं चला रहा है। प्रधानमंत्री योजनाओं की घोषणा ही नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें किस तरह और कितना लागू किया जा रहा है, इसकी खुद समीक्षा कर रहे हैं।1लोकसभा चुनाव में लगभग तीन दशक के बाद स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी भाजपा को सही मायने में एक राष्ट्रीय दल बनाने की दिशा में बढ़ रही है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे जो भी आएं। असम में भाजपा कांग्रेस का सबसे बड़े दल का आसन छीनने जा रही है। असम पूरे पूवरेत्तर में भाजपा के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करेगा। इसी तरह कर्नाटक के बाद केरल में भाजपा पहली बार विधानसभा में दाखिल होने जा ही है। बंगाल में उसे जो भी मिलेगा उससे ज्यादा हासिल कर सकती थी अगर राज्यसभा में तृणमूल के सहयोग के लिए पार्टी ने ममता के समने समर्पण न किया होता। केंद्र सरकार के लिए संतोष की बात यही है कि दो साल के शासन के बाद मोदी से लोगों की उम्मीद बरकरार है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं, यह लेख दैनिक जागरण में १९ मई को प्रकाशित हुआ था )