इशरत जहां मामले में बेनकाब हुई कांग्रेस

  • शिवानन्द द्विवेदी

बहुचर्चित इशरत जहां मुठभेड़ मामले में एकबार फिर कांग्रेस का आला नेतृत्व घिरा हुआ नजर आ रहा है. थोड़ा अतीत में जाकर इस मामले को देखें तो  वर्ष २००४ में आईबी से मिली जानकारी के आधार पर गुजरात पुलिस के क्राइम ब्रांच ने चार आतंकियों का एनकाउन्टर किया था, जिनमे से एक इशरत जहां भी थी. क्राइम ब्रांच का दावा था कि इशरत जहां सहित शेष तीनों अन्य गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रच रहे थे. हालंकि इस एनकाउन्टर के बाद वर्षों तक कांग्रेस सहित देश की तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने इशरत जहाँ मामले को लेकर गुजरात सरकार एवं नरेंद्र मोदी सहित वर्तमान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधने का काम किया. इशरत जहां के बहाने मानवाधिकारवाद झंडा लेकर घुमने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों सहित तमाम दलों ने भाजपा के खिलाफ दुष्प्रचार किया. जबकि सच्चाई ये है कि लम्बी जांच के बाद सीबीआई ने दो-दो बार यह स्वीकार किया कि इस पूरे मामले से अमित शाह का कोई संबंध होने के सुबूत नहीं हैं. अब इस मामले में एक नया मोड़ आ गया है जो सीधे तौर पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाता है. गृह मंत्रालय की एक फ़ाइल के मुताबिक़ इशरत जहां के आतंकी होने और लश्कर का आत्मघाती हमलावर होने के एक हलफनामे को कांग्रेस-नीत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने अनुमति दी थी. २९ जुलाई २००९ को दिए गये इस हलफनामे में चिदम्बरम ने यह स्वीकार किया था कि इशरत जहां का लश्कर से जुडाव है और वो आतंकी गतिविधियों में शामिल है. लेकिन इस हलफनामे के मात्र एक महीने बाद न जाने किन वजहों से इस हलफनामे को बदलने का आदेश गृहमंत्रालय ने दे दिया. चूँकि पहला हलफनामा इशरत के आतंकी होने की स्वीकारोक्ति के तौर पर दिया गया था लिहाजा इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए कांग्रेस आला कमान के निर्देश पर दूसरा हलफनामा खुद चिदम्बरम ने बदलवा कर तैयार कराया होगा. उस दौरान गृह सचिव रहे जीके पिल्लई ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि हलफनामे में हुआ वो बदलाव राजनीतिक स्तर पर किया गया था. हालांकि अपने ही हलफनामे से गृह मंत्रालय क्यों पीछे हटा और जिसको एक महीने पहले आतंकी और आत्मघाती बता चुका था, उसको लेकर उदार क्यों हुआ ये गंभीर सवाल कांग्रेस पर उठना लाजिमी है. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि जिन फाइलों में इशरत जहां के हलफनामे को बदलने का जिक्र है, आज वो फाइलें ही गायब हैं. ऐसे में यह शक निराधार तो नहीं लगता कि ये फ़ाइल गायब नहीं है बल्कि गायब की गयी है. इसमें गौर करने वाली एक और बात है कि खुद चिदम्बरम ने यह माना है कि जो पहला हलफनामा बना था वो निचले स्तर के अधिकारियों ने तैयार किया था. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि गृहमंत्रालय के जो अधिकारी पहला हलफनामा तैयार कर रहे थे वे क्या बिना किसी इनपुट अथवा आधार के तैयार कर रहे थे. जबकि दूसरी बात ये है कि मंत्री के हस्तक्षेप के बाद जो दूसरा हलफनामा तैयार हुआ वो किस इनपुट के आधार पर था ? इस बात को भला कैसे खारिज कर दिया जाय कि जो पहला हलफनामा था वो सरकारी इनपुट के आधार पर तैयार किया गया था, जो कि कांग्रेस की सियासत को सूट करने वाला नहीं था. लिहाजा दूसरा हलफनामा खुद चिदम्बरम ने आला कमान के सियासी इनपुट के आधार पर नफा-नुकसान को देखते हुए तैयार कराया. इस तर्क को रखने का एक आधार यह भी है कि उस दौरान भी इशरत जहाँ मामले को कांग्रेस द्वारा सियासी उपकरण के तौर पर भाजपा, मोदी और अमित शाह के लिए प्रयोग किया जा रहा था. ऐसे में अगर पहला हलफनामा बदला नहीं जाता तो यह खुद कांग्रेस के लिए विरोधाभाष की स्थिति पैदा कर देता. अब चूँकि वर्ष २०१४ में भाजपा सरकार आने से पहले ही अमित शाह को सीबीआई की क्लीन चीट मिल गयी है तो यह सवाल कांग्रेस सहित तमाम दलों से पूछा  जाना चाहिए था कि वे किस आधार पर इस पूरे मामले में अमित शाह और भाजपा का नाम खराब करने की कोशिश कर रहे थे ? इसके बाद हेडली की गवाही से भी इस मामले में काफी कुछ स्पष्ट हुआ. हेडली की गवाही में इशरत जहां सहित उसके साथियों को पाकिस्तानी आतंकी संगठन से जुड़ा बताया गया. हेडली की गवाही के बाद एकबार फिर इशरत जहां मामले को बेजा उलझाने वाले सेकुलर खेमों में चुप्पी छा गयी और इशरत जहाँ को बिहार की बेटी बताने वाले लोग अपने बयान से पलटने लगे.

इन खुलासों के बाद अब कांग्रेस की साजिश रचने वाली सियासत का खुलासा हो चुका है. अब यह बात और पुख्ता हो गयी कि सियासत में साजिशें रचने का कांग्रेसी तरीका बिलकुल परम्परागत और अनोखा है. जिस इशरत जहां को तात्कालीन आईबी द्वारा आतंकी बताया गया और उसी के आधार पर क्राइम ब्रांच ने कार्रवाई की थी, उस इशरत के नाम पर सियासत करने और भाजपा पर आरोप मढने मात्र के लिए कांग्रेस सहित तमाम भाजपा विरोधी गुटों ने इसे गुजरात सरकार की साजिश बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. जिस अमित शाह के इशारे पर यह एनकाउन्टर किये जाने का दुष्प्रचार विपक्षी दलों ने किया, उनको क्लीन चीट मिल गयी. लेकिन आज भी कांग्रेस यह मानने को तैयार नहीं कि वो इशरत जहां के नाम पर साजिश की सियासत करती रही है. आज अगर भाजपा द्वारा इस मामले को लेकर कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी पर सवाल उठाये जा रहे हैं, वो बेजा नहीं हैं. भाजपा द्वारा सोनिया गांधी पर लगाया गया यह आरोप बेबुनियाद नहीं है कि सिर्फ अपना सियासी हित साधने और तुष्टिकरण की राजनीति करने के लिए सोनिया गांधी ने चिदाम्बरम को मोहरा बनाकर यह हलफनामा बदलवाया था. भाजपा की तरफ से दिए गये इस बयान को आरोप की बजाय तथ्य आधारित सवाल माना जाना चाहिए. चूँकि पहला हलफनामा स्वत: और सरकारी प्रक्रिया में तैयार हुआ था जबकि दूसरा हलफनामा इरादतन किसी ने तैयार कराया था. क्यों तैयार कराया गया था, इसकी फ़ाइल गायब हो जाने से शक की सूई और निशाने पर चुभती है. हालांकि कांग्रेस को यह जरुर बताना चाहिए कि किसके इनपुट अथवा इशारे पर पहला हलफनामा वापस लिया गया और उससे जुडी फाइलें कैसे गायब हो गयीं ? इस पूर मामले को चिदम्बरम तक सीमिति करके नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि यह पूरा मामला कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति का एक जीता-जागता उदाहरण है. कांग्रेस इस किस्म के हथकंडे पहले भी इस्तेमाल करती रही है. ये उनकी राजनीति का परम्परागत तरीका रहा है. एक के बाद एक हो रहे इस मामले से जुड़े खुलासों ने इस देश के तथाकथित सेक्युलर खेमों और मानवाधिकारवादियों का असली सच सामने लाने का काम किया है. इन खुलासों ने पूरे सेक्युलर खेमे को बेनकाब किया है. दरअसल सेक्युलर कबीले का यह बुनियादी चरित्र है कि वे अपने हितों को साधने के लिए राष्ट्र की सुरक्षा से समझौता करने की हद तक जा सकते हैं.

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं)