अमेरिकी कांग्रेस को सशक्त भारत का संबोधन

पीयूष द्विवेदी

इसमे कोई संदेह नहीं कि दो वर्ष पूर्व मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से अब तक विदेशमंत्री, सुषमा स्वराज और प्रधानमन्त्री, नरेंद्र
13335937_10157108878790165_2957551120139948304_n मोदी की सूझबूझ और कूटनीति से पूर्ण प्रयासों के मिश्रित फलस्वरूप भारतीय विदेश नीति को न केवल एक नई ऊँचाई और आयाम प्राप्त हुआ है बल्कि बतौर वैश्विक इकाई भारत की स्थिति भी विश्व पटल और अधिक मजबूत तथा मुखर हुई है। विशेष रूप से प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी की विश्व भर के तमाम छोटे-बड़े देशों की तमाम यात्राओं का  भारत की ये नवीन वैश्विक छवि गढ़ने में अत्यंत महत्वपूर्ण और अभूतपूर्व योगदान रहा है। हालांकि वैश्विक महाशक्ति अमेरिका से तो भारत के सम्बन्ध संप्रग-१ के कार्यकाल के समय से ही एक हद तक गतिशील हो गए थे, लेकिन बावजूद इसके संप्रग के कार्यकाल के अंतिम वर्षों तक उनमे अस्थिरता की स्थिति ही मौजूद रही साथ ही तत्कालीन संबंधों में भारत  काफी हद तक   अमेरिका  के समक्ष याचक की भूमिका में ही रहा। लेकिन मोदी सरकार के इन दो वर्षों में इस वैश्विक महाशक्ति से भारत के सम्बन्ध एकदम नए रूप में उभरकर सामने आते दिख रहे हैं और इसका बड़ा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है, जिन्होंने अपने दो वर्षों के कार्यकाल में ही अमेरिका की चार यात्राएं की हैं। और ये यात्राएं पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह सिर्फ व्यापारिक गतिविधियां बढ़ाने या भारत को अमेरिकी सहायता दिलाने जैसी बातों पर आधारित नहीं रही, बल्कि प्रत्येक यात्रा का अपना एक अलग और ठोस महत्व रहा है।

इसी तरह से उनकी इस वर्तमान अमेरिकी यात्रा का भी अपना अलग महत्व और उद्देश्य है,इस यात्रा के दौरान उन्होंने अमेरिकी संसद को संबोधित भी किया, जिसमे उनके द्वारा भारत समेत समूचे विश्व की तमाम चुनौतियों और संभावनाओं तथा इनके बीच भारत-अमेरिका संबंधों के महत्व को बेहद तार्किक  ढंग से  रेखांकित किया गया। प्रधानमन्त्री मोदी ने अपने तकरीबन ४२ मिनट के संबोधन में २१वीं सदी को संभावनाओं और चुनौतियों की सदी बताया तथा यह आह्वान किया कि इस दौरान भारत-अमेरिका अपने संबंधों के इतिहास की कटुता को भुलाते हुए भविष्य की मजबूती के लिए साथ मिलकर कदम बढ़ाएं। उनकी इस बात में निहित उस ऐतिहासिक तथ्य को यहाँ रेखांकित करना आवश्यक है जिसमेएक समय तक अमेरिका द्वारा अक्सर भारत की उपेक्षा की जाती रही और पाकिस्तान को महत्व दिया जाता रहा, जिसका एक सशक्त प्रमाण यह भी है कि नेहरु से लेकर इंदिरा तक भारत के किसी भी प्रधानमन्त्री को अमेरिकी संसद में संबोधन करने का निमंत्रण अमेरिका ने नहीं दिया जबकि इसी कालावधि पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्रियों को यह निमंत्रण मिला और उन्होंने अमेरिकी संसद को संबोधित भी किया। भारत की ऐतिहासिक उपेक्षा को  रेखांकित कर प्रधानमंत्री मोदी ने कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका को उसकी इस ऐतिहासिक भूल का स्मरण भी दिलाया।

प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि उन्होंने आतंकवाद को वर्तमान समय में विश्व की सबसे बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने आतंकवाद से लड़ाई में भारत और अमेरिका के सैनिकों की शहादत को स्मरण करते हुए पूरा जोर देकर यह भी रेखांकित किया कि भारत के तो  पड़ोस में ही आतंकवाद का परिपोषण हो रहा है, जिसको अमेरिकी संसद द्वारा न केवल कड़ा सन्देश दिया जाना चाहिए  बल्कि उसके विरुद्ध संघर्ष में अमेरिका और भारत को साथ-साथ लड़ना भी चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने  एकबार फिर अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय देते हुए बिना नाम लिए पाकिस्तान को कड़ा सन्देश देने का काम किया। हम देख चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी कभी भी इस तरह के किसी वैश्विक मंच से पाकिस्तान का नाम नहीं लेते, लेकिन इशारों-इशारों में ही उसे कड़ा सन्देश अवश्य दे देते हैं। भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के बिंदु पर भी उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर भारत को यह सदस्यता मिलती है तो वैश्विक स्तर  पर उसका सहयोग और अधिक हो जाएगा, लेकिन इसके लिए विश्व के कुछ देशों को अपनी पिछड़ी सोच से आगे बढ़कर वर्तमान समय की सच्चाई को स्वीकारते हुए भारत की सदस्यता का समर्थन करना होगा। समझना सरल है कि यह उस चीन के लिए एक सन्देश था जो संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है। साथ ही, इस कथन में कहीं न कहीं यह भी भाव निहित था कि भारत को यह सदस्यता मिलना सिर्फ भारत की ही आवश्यकता नहीं है, बल्कि विश्व समुदाय के लिए भी इसका बराबर महत्व है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री मोदी  वक्तव्य में भारत और अमेरिका की विभूतियों का भी उचित और समयानुकूल स्मरण किया गया। उन्होंने ‘अमेरिकन गांधी’ कहे जाने वाले मार्टिन लूथर किंग को महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत से प्रेरित बताया तथा 1893 में शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में सम्पूर्ण विश्व को भारत के सत्य सनातन धर्म के महत्व अनुगूंजित और आप्यायित करने वाले स्वामी विवेकानंद का भी उल्लेख किया। प्रधानमंत्री मोदी के इस पूरे संबोधन में कही गई इन सब बातों पर अमेरिकी संसद की गंभीरता और समर्थन को इसी बात से समझा जा सकता है कि इस संबोधन के दौरान वहां के सांसदों ने नौ बार खड़े होकर तथा बैठे-बैठे सत्तर बार से भी अधिक तालियों बजाई। यह सही है कि मोदी अमेरिकी संसद को संबोधित करने वाले पांचवे भारतीय प्रधानमन्त्री हैं, इससे पहले राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह भी यह संबोधन कर चुके हैं, लेकिनमोदी के वक्तव्य के दौरान अमेरिकी सांसदों की तालियों के रूप में उन्हें मिली प्रतिक्रिया निश्चित तौर पर अभूतपूर्व है।

यह दिखाती है कि भारत अब पहले की तरह अमेरिका के समक्ष नज़रे झुकाए खड़ा याचक नहीं, नज़रें मिलाकर खड़ा होने वाला एक सहयोगी मित्र है। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका बिना लाभ के कुछ नहीं करता यानी यह सब स्वागत लाभ से प्रेरित है। निस्संदेह यह बात सत्य है और अमेरिका के इस रुख में कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि किसी भी सफल विदेशनीति का मूल तत्व ही राष्ट्रहित की प्रमुखता होती है। अब समझने वाली बात यह है कि अगर अमेरिका बिना लाभ के भारत से नहीं जुड़ रहा तो भारत भी उससे कोई निस्वार्थ प्रेम नहीं दिखा रहा है। अगर भारतीय बाजार अमेरिका की आवश्यकता है तो वैश्विक मंचों पर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत को भी अमेरिका का सहयोग अपेक्षित है। अतः यह स्वार्थ आधारित सम्बन्ध है और कहीं न कहीं यही इसकी सुदृढ़ता का आधार भी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)