हलमा : जल संरक्षण के लिए भीलों की अनूठी परंपरा

भारत के जनजाति समाज में आज भी जीवन यापन की कई देशज विधाएँ मौजूद हैं जो वर्तमान समय में विकास के कारण उत्पन्न विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकती हैं। उन्हीं में से एक विधा है भील जनजाति की हलमा परंपरा। इस परंपरा के महत्व के कारण ही 24 अप्रैल 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में इसका ज़िक्र किया। हलमा ने झाबुआ ज़िले के बड़े हिस्से में जल संकट को कम करने में बड़ी भूमिका निभाई है।

भारत के जनजाति समाज में आज भी जीवन यापन की कई देशज विधाएँ मौजूद हैं जो वर्तमान समय में विकास के कारण उत्पन्न विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकती हैं। उन्हीं में से एक विधा है भील जनजाति की हलमा परंपरा।

इस परंपरा के महत्व के कारण ही 24 अप्रैल 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में इसका ज़िक्र किया। हलमा ने झाबुआ ज़िले के बड़े हिस्से में जल संकट को कम करने में बड़ी भूमिका निभाई है। भील समुदाय की यह परंपरा देशज विधाओं की तकनीकी समृद्धता का अनोखा उदाहरण है। प्रधानमंत्री ने भील समाज की इस ऐतिहासिक परम्परा का जिक्र कर देश में जल संरक्षण के स्वदेशी उपाय से अवगत कराया है। इस परंपरा का जिक्र इसलिए भी आज आवश्यक हो गया है क्योंकि भारत में निरंतर जल स्तर की कमी होती जा रही है।

भारत दुनिया की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश के साथ -साथ, ग्राउंड वॉटर का सबसे अधिक इस्तेमाल करने वाला देश भी है, अगर स्थिति यही बनी रही तो साल 2050 तक भारत में ग्राउंड वॉटर का बड़ा संकट आ सकता है।

हलमा के लिए एकत्रित हुए भील जनजाति के लोग

ऐसा नहीं है कि भारत में जल संकट का समाधान नहीं हो सकता, भारत में मानसून की वर्षा और इसका संरक्षण इसका उपाय है। किंतु इस संरक्षण के तरीक़े आज भी सीमित हैं। सरकार बिना सामाजिक सहयोग के इस दिशा में सीमित ही प्रयास कर सकती है। यही कारण है कि भील समाज का हलमा आज जल समस्या का सामाजिक समाधान बन कर सामने आया है।

पिछले एक दशक में हलमा की सफलता और इससे झबुआ के आसपास हुए परिवर्तन ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यही कारण है कि इस विधा के प्रभाव को जानने और समझने के लिए मुंबई, दिल्ली सहित दुनिया भर से कई शोधार्थी हलमा के केंद्र झबुआ आते रहें है।

आईआईटी दिल्ली से आए प्रथम वर्ष की छात्रा प्रिया तिवारी ने अपने अनुभव के आधार पर इस अभियान से समाज के सामर्थ्यवान होने का सटीक उदाहरण बताया। प्रिया पिछले तीन वर्षों से झबुआ में शोध कार्यों के लिए लगातार आती रहीं है। उनके अनुसार बिना किसी सरकारी मदद के भी समाज हित में काम किया जा सकता है, झबुआ का हलमा इसका सटीक उदाहरण है।

यह प्रथा पिछले 14 वर्षों से पुनः जीवित हुई है। किंतु इस अल्प अवधि में इस प्रथा ने न सिर्फ़ जल संकट को दूर करने में सफलता पाई है, बल्कि भील समाज को अपने सामाजिक और पारम्परिक सरोकार को पुनर्जीवित करने के लिए मनोबल भी दिया है।

हलमा : समझने और अपनाने वाली परंपरा

भील समुदाय के नामकरण के कई तर्क दिए जाते हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के वेबसाईट पर दिए जानकरी के अनुसार भील समाज का इतिहास एकलव्‍य से जुड़ा हुआ है।साथ ही रामायण के रचयिता वाल्‍मीकि को भील वालिया ही माना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार इस नाम के पीछे का अर्थ ‘धनुष’ है और यह द्रविड़ शब्‍द है, साथ ही इसे कुछ लोग तमिल शब्‍द भिलावर अथवा ‘‘धनुर्धारी’’ से जन्मा हुआ मानते हैं।

आदिवासी जनजातियों में हलमा हाँडा और हीडा जैसे नामों से परस्पर सामुदायिक सहयोग की भावना की इस तरह की प्रथा या परम्परा मौजूद हैं और लोक साहित्य में इनका उल्लेख भी है।अपितु यह कालान्तर में ये लुप्त होती गई।

जल संग्रह के लिए साढ़ गांव में हलमा द्वारा बनाया गया 72 करोड़ लीटर क्षमता का तालाब, चित्र साभार: शिवगंगा संस्था

हलमा भील समाज में एक मदद की परंपरा है। जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी अपने ऊपर आए संकट से उबर नहीं पाता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण भाई-बंधु जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे मुश्किल से बाहर ले आते हैं।

यह एक ऐसी गहरी और उदार परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता तो की जाती है पर दोनों ही पक्षों द्वारा किसी भी तरह का अहसान न तो जताया जाता है न ही माना जाता है। परस्पर सहयोग और सहारे की यह परंपरा दर्शाती है कि समाज में एक दूसरे की मजबूती कैसे बना जाता है। किसी को भी मझधार में अकेले नहीं छोड़ा जाता है बल्कि उसे निश्छल मदद के द्वारा समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाता है।

भील शब्द का महत्व इसीलिए भी अधिक हो जाता है क्योंकि इस जनजाति को भारत की सबसे प्राचीन और अपने परम्पराओं को जीवित रखने वाली जनजाति माना जाता है। भील भारत की तीसरा सबसे बड़ा जनजातीय समाज है। आज़ादी से पहले हुए अंतिम जनगणना 1941 के अनुसार देश में भीलों की आबादी लगभग 2 मिलियन थी जो अब 17 मिलियन हो चुकी है।

भील समुदाय मध्य प्रदेश के अलावे राजस्थान, महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्यों में भी है। मध्य प्रदेश का भील समुदाय अन्य भील समुदाय के जैसे ही अपने परंपरा को जीवित रखे हुए है। आज भी मध्‍य प्रदेश के भीलों की सांस्‍कृतिक परंपरा उनके धार्मिक कृत्‍यों, उनके गानों तथा नृत्‍यों, उनके सामुदायिक देवी-देवताओं, त्‍वचा के गोदनों, पौराणिक गाथाओं तथा विद्या में अभिव्‍यक्‍त होती है। उनके घरों से सौंदर्यशास्‍त्र का सहज बोध प्रकट होता है।

हलमा में जल संरक्षण के लिए पहाड़ पर छोटे छोटे गढ्ढे बनाते भील जनजाति के लोग

हलमा की सफलता के कुछ आँकड़े

हलमा की सफलता इस मुहिम में बढ़ते भागीदारी के आँकड़े बयान करते हैं। साथ ही इस मुहिम को फिर से ज़िंदा करने वाली संस्था ‘शिवगंगा’ की क्षेत्र में भील समुदाय के बीच बढ़ती स्वीकार्यता भी दर्शाती है।

सन 2005 में हलमा परंपरा को एक ग़ैर सरकारी संगठन ‘शिवगंगा’ ने शुरू किया। महेश शर्मा और हर्ष चौहान की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। महेश शर्मा को भारत सरकार द्वारा उनके कार्यों के लिए 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। आज वो भील जनजातियों के बीच झाबुआ के गांधी बन चुके हैं। भील जनजाति के बारे में झबुआ सहित मध्य प्रदेश में एक मिथक विद्यमान है कि भील शराब और आलस्य से भरा हुआ समाज है। ऐसे में हलमा को पुनर्जीवित करना मुश्किल कार्य लग रहा था।

किंतु शिवगंगा और जनजाति समाज के मनोबल को उनकी ज़रूरतों ने फिर से साहस दिया। यही कारण था कि जल संकट के मुसीबत में फँस चुकी झबुआ आज जल और जंगल दोनों में समृद्ध हो रहा है। हलमा को बड़े पैमाने पर 2008 में व्यवहारिक रूप दिया गया। इस वर्ष पूरे झबुआ क्षेत्र में इस संस्कृति को जीवित करने के लिए चैती यात्रा निकालकर लोगों को अपने इतिहास के सामर्थ्य को याद दिलाया गया।

परिणामस्वरूप साल 2009 के पहले हलमा में पानी के छोटे छोटे गड्ढे बनाने के लिए आठ सौ लोग सामने आए और श्रम दान किया, अगले वर्ष यानि 2010 में सहभागिता बढ़कर 1600 हो गई । 2011 में दस हज़ार लोग इसमें आए। और आज यह संख्या एक आंदोलन का रूप ले चुकी है। जिसे देखने और समझने के लिए सरकार से लेकर शोधार्थियों की बड़ी संख्या इस पर शोध कर रही है। साथ ही बाहरी दुनिया से बढ़ते सम्पर्क ने इस क्षेत्र को आधुनिक तकनीकों से अपनी समस्या के समाधान का तरीका भी सिखाया है।

(लेखिका जेएनयू में पीएचडी स्कॉलर हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)