दलितों-पिछड़ों के नाम पर भाजपा को कोसने वाले अपने गिरेबान में झांके

वर्तमान दौर अवधारणा आधारित राजनीति का दौर है. प्रत्येक राजनीतिक दल को लेकर एक निश्चित अवधारणा का बन जाना भारतीय राजनीति में आम हो चुका है. देश के यूपी एवं बिहार जैसे राज्यों की राजनीति में जातीय समीकरणों का चुनावी परिणाम में खासा महत्व होता है. लेकिन बिहार में भाजपा को लेकर यह भरसक प्रचार किया गया कि भाजपा सवर्ण-ब्राह्मणवादी आरक्षण विरोधी राजनीतिक दल है. इस प्रचार को हवा देने वालों को इसका लाभ भी मिला. राजनीति में इसी को अवधारणा का बनना कहते हैं. चाहें दुष्प्रचार के माध्यम से ही सही मगर पिछले दो दशकों में यह अवधारणा बनाई जा चुकी है कि भाजपा आरक्षण विरोधी राजनीतिक दल है.

गुजरात के ऊना मामले के बहाने एकबार फिर उसी दुष्प्रचार को हवा देने की कोशिश वामपंथी एवं तथाकथित अंबेडकरवादी दलित चिंतकों सहित भाजपा-विरोधी राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है. हालांकि अवधारणा तैयार करने के दुष्प्रचार का मूल्यांकन तथ्यों के धरातल पर किया जाए तो ऐसी कोई प्रमाणिकता नहीं नजर आती. चाहें राजनीतिक फैसलों के लिहाज से देखें अथवा दल में आंतरिक हिस्सेदारी के लिहाज से देखें, भाजपा का कोई भी कदम आजतक ऐसा नही नजर आया जिस आधार पर उसे आरक्षण विरोधी दल माना जा सके. कई मामलों में भाजपा द्वारा दलितों-पिछड़ों के लिए किए गए कार्य पिछड़ों एवं दलितों की राजनीति करने वाले किसी भी दुसरे दल से ज्यादा बेहतर नजर आते हैं. अगर राजनीति में दलित-पिछड़ा ही मुद्दा है तो भाजपा द्वारा इस तबके के लिए लिए गए फैसलों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

गुजरात के ऊना मामले के बहाने एकबार फिर उसी दुष्प्रचार को हवा देने की कोशिश वामपंथी एवं तथाकथित अंबेडकरवादी दलित चिंतकों सहित भाजपा-विरोधी राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है. हालांकि अवधारणा तैयार करने के दुष्प्रचार का मूल्यांकन तथ्यों के धरातल पर किया जाए तो ऐसी कोई प्रमाणिकता नहीं नजर आती. चाहें राजनीतिक फैसलों के लिहाज से देखें अथवा दल में आंतरिक हिस्सेदारी के लिहाज से देखें, भाजपा का कोई भी कदम आजतक ऐसा नही नजर आया जिस आधार पर उसे आरक्षण विरोधी दल माना जा सके. कई मामलों में भाजपा द्वारा दलितों-पिछड़ों के लिए किए गए कार्य पिछड़ों एवं दलितों की राजनीति करने वाले किसी भी दुसरे दल से ज्यादा बेहतर नजर आते हैं. अगर राजनीति में दलित-पिछड़ा ही मुद्दा है तो भाजपा द्वारा इस तबके के लिए लिए गए फैसलों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

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अगर ढाई-तीन दशक पूर्व की राजनीति देखें तो वीपी सिंह की सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही थी. वीपी सिंह ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण वाला मंडल कमिशन लागू कर रहे थे. इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जिस सरकार द्वारा पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा था वो सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही थी. लिहाजा मंडल लागू होने के श्रेय में हिस्सेदारी उस दल को क्यों नही मिलनी चाहिए जिसके समर्थन से एक आरक्षण समर्थक सरकार चल रही थी? ओबीसी आरक्षण लागू होने के सन्दर्भ में यह भी नही भूलना चाहिए कि यह वही मंडल कमीशन की रपट है जो इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में आ चुकी थी. अर्थात अगर इंदिरा गांधी चाहतीं तो वे भी मंडल कमीशन लागू कर सकती थीं. उनके बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने लेकिन उन्होंने भी पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देना मुनासिब नही समझा.

आखिर मंडल कमिशन लागू करने के लिए यह इन्तजार इस देश के पिछड़ों को करना पड़ा कि जब देश में भाजपा के समर्थन से चल रही एक आरक्षण समर्थक सरकार आएगी तो यह लागू होगा. आज जब कांग्रेस खुद को पिछड़ों का हिमायती बताते हुए भाजपा पर आरक्षण खत्म करने का दुष्प्रचार करती है तो कांग्रेस से यह पूछा जाना चाहिए कि अगर भाजपा आरक्षण के खिलाफ है तो इसे लागू क्यों कराया? साथ ही यह भी पूछा जाना चाहिए कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी यह काम क्यों न कर सके जो भाजपा समर्थित वीपी सिंह सरकार ने कर दिया! एक दुष्प्रचार यह भी है कि चूंकि वीपी सिंह ने मंडल लागू किया तो भाजपा ने समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी. यह एक सरासर झूठ है. मंडल लागू करने के मुद्दे पर तो भाजपा सरकार के साथ थी लेकिन मंदिर के मुद्दे पर वीपी सिंह भाजपा के साथ नही थे.

यानी भाजपा ने तो पिछड़ों के आरक्षण देने के वक्त वीपी का साथ दिया लेकिन वीपी सिंह ने मंदिर आन्दोलन के दौरान भाजपा का साथ नही दिया लिहाजा मंदिर के मुद्दे और अडवाणी की गिरफ्तारी की वजह से वीपी की सरकार गई न कि आरक्षण के मुद्दे पर. इसमें कोई शक नही कि आरक्षण का उद्देश्य समाजिक बराबरी के लिए था लेकिन मंडल लागू होते ही देश के हिन्दू समाज के अंदर दो खेमे बन गए थे जिनमें भयंकर टकराव की संभावनाएं बल लेने लगी थीं. आरक्षण लागू होने के बाद टूटते हिन्दू समाज को एकजुट करने के लिए मंदिर आन्दोलन अनिवार्य था.

लिहाजा अडवाणी ने रथयात्रा का ऐलान किया. अगर हिन्दू समाज को एकजुट करने के लिए वो रथयात्रा नही निकाली गयी होती तो आज देश में जातीय विभेद और कटुता का हिंसक चेहरा समाज में व्याप्त हो चुका होता. लेकिन उस रथयात्रा को आज मंडल के खिलाफ रथयात्रा के तौर पर दुष्प्रचारित किया जाता है जबकि वो मंदिर के समर्थन में यात्रा थी. खैर, इतना तो तय है कि कांग्रेस मंडल लागू नही कर रही थी जबकि भाजपा समर्थित सरकार ने पिछड़ों के हित में यह कार्य कर दिखाया.

समय के साथ-साथ राजनीतिक विकास के क्रम में भाजपा की ताकत राष्ट्रीय पटल पर बढती गयी और कांग्रेस का वर्चस्व ढीला पड़ता गया. भाजपा में समाजिक हिस्सेदारी बढ़ती गयी और कांग्रेस अपने दलित अध्यक्ष सीताराम केसरी को पचा तक नही पाई. नब्बे के दशक के उतरार्ध में ही नरेंद्र मोदी को महामंत्री (संगठन) बनाकर भेजा गया. नरेंद्र मोदी खुद पिछड़े समाज से आते हैं. बंगारू लक्ष्मण के रूप में दलित नेता का  उभार भी भाजपा में सत्ता के दौर में हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में सर्वाधिक पिछड़े, दलित और अनुसूचित जनजाति के सांसद चुनाव जीतकर आये. सदन में अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुमत नही साबित हो पाने के बाद इस्तीफा से पूर्व जो भाषण दिया, वो अपने आप इस बात तथ्य की तस्दीक करता है कि अपने उभार के साथ ही भाजपा ने सामाजिक विविधताओं की व्यापक हिस्सेदारी को बल दिया.

उस चुनाव में अनुसूचित जाति के कुल 77 सांसदों में से 29 सांसद भाजपा से चुनकर आये थे. जबकि किसी भी अन्य दल के पंद्रह से ज्यादा दलित सांसद नही चुनकर आये थे. अनुसूचित जनजातियों से कुल 41 सांसदों में से अकेले भाजपा से 11 सांसद आये थे. ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पहली बार सत्ता में आई भाजपा ने सभी तबके के लोगों को किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तुलना में ज्यादा हिस्सेदारी दी थी. राजनीतिक दल में आंतरिक हिस्सेदारी के मोर्चे पर भी भाजपा का ग्राफ समाजिक न्याय के मानदंडों पर सबसे बेहतर दिखता है.

तमाम राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में पिछड़े समाज के नेताओं को आगे बढाने के मामले में भी भाजपा कांग्रेस की तुलना में कहीं बहुत आगे है. संगठन के स्तर पर भी भाजपा में हर तबके के लोग हैं. यह विविधता किसी भी अन्य दल में नहीं दिखती है. यह वही भाजपा है जो एक पिछड़े समाज के नेता को प्रधानमंत्री के रूप में आगे करती है और एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बना देती है. विविधता का ऐसा उदहारण किसी अन्य दल में शायद ही दिखता हो!

आज ऊना  मामले के बहाने जो लोग जातिगत अवधारणा में भाजपा को पिछड़ों-दलितों के खिलाफ होने का दुष्प्रचार कर रहे हैं उन्हें एकबार अपने आंतरिक राजनीति की तहों को टटोलना चाहिए. क्या वामपंथी दलों से पोलित ब्यूरों में दलितों पिछड़ों और महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर सवाल नही पूछा जाना चाहिए? पोलित ब्यूरो में एकमात्र वृंदा करात केवल इस आधार पर नही हैं कि वो प्रकाश करात की पत्नी हैं! क्या यहाँ परिवारवाद का सवाल नही बनता है?

वामपंथी दल (सीपीआईएम) के पोलित ब्यूरो में कितने दलित, कितने पिछड़े हैं, इसका मूल्यांकन कब किया जाएगा? यूपी में बसपा और सपा में समाजिक हिस्सेदारी का प्रश्न क्यों नही उठता है? यूपी में जो दल खुद को समाजवादी कहता है उसने उसी मायावती के साथ दुर्व्यवहार किया था जिस मायावती को भाजपा ने अपने समर्थन से मुख्यमंत्री बनाया. अगर भाजपा एक दलित नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर समर्थन दे रही है तो कैसे माना जाय कि भाजपा दलित एवं पिछड़ों की विरोधी है?