सिमटते दायरे के बावजूद आत्‍ममंथन से कतराती कांग्रेस

कांग्रेस में उहापोह और अनिश्‍चितता की जो स्‍थिति राष्‍ट्रीय स्‍तर पर है, कमोबेश वैसी ही स्‍थिति राज्‍यों में भी है। महाराष्‍ट्र में संजय निरूपम बनाम मिलिंद देवड़ा का विवाद है तो राजस्‍थान में अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट की लड़ाई चल रही है। मध्‍य प्रदेश में भी लंबे समय से कमलनाथ और ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के बीच खींचतान चल रही है। झारखंड में डॉक्‍टर अजय कुमार और सुबोध कांत सहाय एक दूसरे की जड़ काटने में जुटे हैं। पंजाब के मुख्‍यमंत्री कैप्‍टन अमरिंदर सिंह सूबे में अपनी ही चला रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी आज अपने अस्‍तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है। 2017 में जब राहुल गांधी कांग्रेस अध्‍यक्ष बने थे तब देश को उम्‍मीद थी कि अब कांग्रेस में एक नए युग का सूत्रपात होगा और पार्टी पुरानी सोच से आगे बढ़ेगी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली करारी शिकस्‍त के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्‍यक्ष पद से त्‍यागपत्र दे दिया।

इसके बाद बहुत से लोगों को उम्‍मीद थी कि अब गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के किसी नेता को कांग्रेस की बागडोर संभालने का मौका मिलेगा। लेकिन नतीजा वही ढाक का तीन पात वाला रहा। लंबी कवायद के बाद आधी रात को सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्‍यक्ष बना दिया गया जिन्‍होंने दो साल पहले यह पद अपने बेटे राहुल गांधी को सौंपा था। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी गांधी-नेहरू फेमिली पार्टी के संकीर्ण पारिवारिक खोल से बाहर निकलने में नाकाम रही। 

सबसे बड़ी विडंबना है कि सिमटते दायरे के बावजूद कांग्रेस पार्टी आत्‍ममंथन नहीं कर रही है। बार-बार वही घिसे-पिटे फार्मूले अपनाए जा रहे हैं जैसे आलाकमान संस्‍कृति, क्षेत्रीय दलों से गठबंधन, नकली धर्मनिरपेक्षता, मंदिर-मस्‍जिद दर्शन, कर्जमाफी के वायदे आदि। 

गौरतलब है कि परिवारवाद के कारण कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र खत्‍म हुआ और क्षेत्रीय अस्‍मिताओं की उपेक्षा की जाने लगी। इन्‍हीं क्षेत्रीय अस्‍मिताओं ने आगे चलकर कांग्रेस से अलग राह पकड़ी और उन राज्‍यों से कांग्रेस को विस्‍थापित कर दिया। इसका ज्‍वलंत उदाहरण है पश्‍चिम बंगाल जहां कभी कांग्रेसी रहीं ममता बनर्जी ने सूबे से कांग्रेस को जड़विहीन कर दिया। अब कांग्रेस पार्टी उन्‍हीं ममता बनर्जी से गठबंधन के लिए तैयार बैठी है।  

2014 के लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक रूप से 44 सीटों पर सिमटने के बाद भी कांग्रेस पार्टी में आत्‍ममंथन की आवाज उठी थी। उस समय पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी की अध्‍यक्षता में एक समिति भी गठित गई थी लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात वाले रहे। वही स्‍थिति आज फिर आ गई है। 

इसे सलमान खुर्शीद के वक्‍तव्‍य से समझा जा सकता है “हमारा सबसे बड़ा संकट यह है कि हमारे नेता राहुल गांधी इस्‍तीफा देकर हमें छोड़ चले गए और सोनिया गांधी भी अंतरिम अध्‍यक्ष के रूप में ही काम कर रही हैं। कांग्रेस को संकट से बाहर लाने के लिए मौजूदा हालात की तत्‍काल समीक्षा की जरूरत है।” कुछ इसी प्रकार के बोल पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के भी हैं- “पार्टी वर्तमान में जिन हालात से गुजर रही है, उसमें आत्‍मचिंतन की जरूरत है ताकि उस पर क्रियान्‍वयन कर स्‍थिति को सुधारा जा सके।” 

कांग्रेस में उहापोह और अनिश्‍चितता की जो स्‍थिति राष्‍ट्रीय स्‍तर पर है, कमोबेश वैसी ही स्‍थिति राज्‍यों में भी है। महाराष्‍ट्र में संजय निरूपम बनाम मिलिंद देवड़ा का विवाद है तो राजस्‍थान में अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट की लड़ाई चल रही है। मध्‍य प्रदेश में भी लंबे समय से कमलनाथ और ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के बीच खींचतान चल रही है। झारखंड में डॉक्‍टर अजय कुमार और सुबोध कांत सहाय एक दूसरे की जड़ काटने में जुटे हैं। पंजाब के मुख्‍यमंत्री कैप्‍टन अमरिंदर सिंह सूबे में अपनी ही चला रहे हैं।

हरियाणा में विधान सभा चुनाव का एलान होते ही कांग्रेस में फूट पड़ गई। उत्‍तर प्रदेश में सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली सदर की विधायक अदिति सिंह बगावत पर उतारू हैं। अदिति सिंह ने 2 अक्‍टूबर को पार्टी व्‍हिप का न केवल उल्‍लंघन कर विधान सभा के विशेष सत्र में शामिल हुईं बल्‍कि कांग्रेस की पदयात्रा से भी दूर रहीं। गौरतलब है कि अदिति सिंह को सियासत में लाने का श्रेय प्रियंका गांधी को दिया जाता है। इसी प्रकार की स्‍थिति अन्‍य राज्‍यों में भी है। 

समग्रत: कांग्रेस पार्टी को अपना राष्‍ट्रीय अस्‍तित्‍व बनाए रखना है तो उसे आत्‍ममंथन करते हुए सशक्‍त विपक्ष की भूमिका में आना होगा। लोकतंत्र की कामयाबी के लिए जितना महत्‍व सत्‍ता पक्ष का होता है उतना ही विपक्ष का भी। इसीलिए संसदों की जननी कहलाने वाले ब्रिटेन में शैडो कैबिनेट का प्रावधान किया गया है। कांग्रेस पार्टी ने कुछ राज्‍यों में शैडो कैबिनेट की शुरूआत की थी, लेकिन वह सार्थक पहल भी गांधी-नेहरू फेमिली पार्टी की संकीर्ण राजनीति की भेंट चढ़ गई। परिणामतः आज वो विचार और नेतृत्व से विहीन होकर उस स्थिति को ओर बढ़ती दिख रही है, जहां उसका राजनीतिक अस्तित्व ही संकट में नजर आता है।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)