हताशा, निराशा और लगातार मिल रही हार से बीमार होती कांग्रेस

वर्तमान राजनीति में कांग्रेस आज जिस मुहाने पर खड़ी है उसे देश के हर व्यक्ति, अपने नेता और कार्यकर्ता, यहाँ तक कि हर नेता और राष्ट्रीय नेतृत्व तक को अपने आप पर भी भरोसा नहीं है। असल में हर-जीत के बीच यह एक प्रकार का मानसिक अवसाद है जिसमें शक, शंका, अविश्वास आदि का आना स्वाभाविक है। कारण यह है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व अपने पूरे राजनीतिक जीवन में तैयार फसल का मोल-भाव किया है। उसने कभी भी राजनैतिक संघर्ष नहीं देखा और न ही कोई ऐसी संगठनात्मक क्षमता विकसित कर पाया जो उसके आत्मविश्वास को बल प्रदान कर सके। सोनिया गांधी और राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन कांग्रेस, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी के उन वफादार नेताओं के संरक्षण में शुरू हुआ जो किसी जमाने में कांग्रेस की रीढ़ हुआ करते थे।

पिछले 27 वर्षों में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में जैसा क्षरण हुआ है उसे इस दौर में हासिल करना नामुमकिन है। राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी की मेहनत तभी साकार हो सकती है जब इनका किसी के साथ गठबंधन हो जिसका दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आ रहा। सोनिया गाँधी का वाराणसी रोड शो करना भी एक राजनीतिक दिखावा ही साबित हुआ। कोई भी बड़ा नेता रैली से चुनावी शुरुआत करता है, रोड शो से न तो चुनावी शुरुआत होती है और न ही चुनावी ताकत का एहसास होता है। मतलब साफ है कि कांग्रेसी रणनीतिकारों ने जो योजना बनाई उसके केंद्र में उनका डर था कि कहीं रैली फ्लाप न हो जाए और चुनावी तैयारियों का पहला ही कदम मुंह के बल गिरा दे। बनारस को जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि बनारस के किसी एक छोर को कुछ मिनट के लिए बंद कर देने पर हर रोज ऐसा रोड शो हो जाता है।

साथ ही राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी गहरी सहानुभूति इनके साथ थी जिसका फायदा यह हुआ कि संगठन को पूरी तरह से सोनिया गांधी ने अपने कब्जे में ले लिया और मनचाहा खेल खेलती रहीं। इसी कड़ी में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी नाम आता है। मनमोहन सिंह भारत के विकास, भारत की वैश्विक अस्मिता, भारत की वैश्विक पहचान, भारत की महँगाई, बेरोजगारी और बेतहासा भ्रष्टाचार के परिप्रेक्ष्य में चाहे जितने विवश, लाचार और कमजोर साबित हुए हों लेकिन सोनिया गांधी की वफादारी में हमेशा अव्वल रहे। इस तरह की क्षमता बिरले पायी जाती है। हिन्दी साहित्य के बड़े लेखक जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि ‘अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन होता है।’ मनमोहन सिंह ने इसे गलत साबित कर दिया क्योंकि प्रधानमंत्री वे थे और मादकता और सारहीनता का पैमाना बढ़ा किसी और का और वे चुपचाप इसे न सिर्फ देखते रहे बल्कि समय-समय पर अपनी वफादारी के सुबूत भी प्रस्तुत करते रहे।

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साभार: DNAINDIA

कांग्रेस की स्थिति कुछ-कुछ 90 के दशक जैसी हो चली। सोनिया गांधी अपने खोये हुए जनाधार और विश्वसनीयता को तमाम तिकड़मों के सहारे हासिल करना चाहती है। इस बार की स्थिति अलग है। अलग इस तरह है कि सोनिया गाँधी का नेतृत्व या राहुल गाँधी का चेहरा कभी भी जनाकांक्षा का प्रतिरूप नहीं बना है। इसे सीधे-सीधे कहा जाय तो पिछले 25 वर्षों में कांग्रेस को एकबारगी जनसमर्थन जैसा कुछ नहीं मिला और न ही अपने बल बूते सत्ता हासिल करने की काबिलियत किसी में दिखी। यूपीए का दो बार सरकार चलाना और बनाना दोनों जोड़-जुगत का ही नतीजा था जिसमें इन्होने किसी भी हद तक क्षेत्रीय दलों से समझौता किया जिसका नतीजा देश ने भुगता। इसके उलट वर्तमान समय कांग्रेस और सोनिया गाँधी की दिमागी रणनीति के प्रतिकूल है। किसी भी क्षेत्रीय दल के पास ऐसी ताकत नहीं है जो कांग्रेस के साथ भाजपा के मजबूत विपक्ष के रूप में खड़ा हो सके। लिहाजा अब ये खुद उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार तलाश रहे हैं। पिछले 27 वर्षों में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में जैसा क्षरण हुआ है उसे इस दौर में हासिल करना नामुमकिन है। राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी की मेहनत तभी साकार हो सकती है जब इनका किसी के साथ गठबंधन हो जिसका दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आ रहा। सोनिया गाँधी का वाराणसी रोड शो करना भी एक राजनीतिक दिखावा ही साबित हुआ। कोई भी बड़ा नेता रैली से चुनावी शुरुआत करता है, रोड शो से न तो चुनावी शुरुआत होती है और न ही चुनावी ताकत का एहसास होता है। मतलब साफ है कि कांग्रेसी रणनीतिकारों ने जो योजना बनाई उसके केंद्र में उनका डर था कि कहीं रैली फ्लाप न हो जाए और चुनावी तैयारियों का पहला ही कदम मुंह के बल गिरा दे। बनारस को जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि बनारस के किसी एक छोर को कुछ मिनट के लिए बंद कर देने पर हर रोज ऐसा रोड शो हो जाता है। कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेता दोनों इन बात को बखूबी जानते हैं कि वास्तव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जमीनी हकीकत कैसी है। भ्रम में है तो सिर्फ मीडिया का एक धड़ा जो आम जनमानस के मन में भी भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मीडिया के उन विद्वानों को यह भी समझ लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश ही भारत का ऐसा मजबूत जातीय गणित का राजनीतिक प्रदेश है, जहां आज की स्थिति में जनाधार खड़ा कर पाना कांग्रेस के लिए लोहे के चने चबाने जैसा ही होगा। कुलमिलकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की यह खेती ऊसर में बीज बोने जैसी ही है जिसे मतदाता और नेता दोनों भली-भांति समझ रहे हैं।

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं