केजरीवाल की राजनीति को अपना रोल मॉडल मानने की गलती न करें कांग्रेस शासित बड़े राज्य

दिल्ली के चुनाव में मार्केटिंग और पैकेजिंग का बड़ा योगदान रहा, केजरीवाल ने ठोस काम की बजाय लोकलुभावन वादों और घोषणाओं की चासनी से दिल्ली के मतदाताओं को सराबोर कर दिया। उनकी विजय का यही रहस्य है। पिछले पांच सालों में आखिर दिल्ली में ठोस रूप से क्या बदला? बड़े पैमाने पर देखें तो कुछ भी नहीं, लेकिन स्थानीय स्तर पर देखें तो कुछ मुद्दों को लेकर केजरीवाल सरकार ने अपनी अच्छी मार्केटिंग की।

दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली जीत के बाद अब कोई शक नहीं हैं कि जनता ने अरविन्द केजरीवाल पर दोबारा विश्वास जताया है। विचित्र यह रहा कि अरविन्द केजरीवाल जो लगातार पिछले चार साल तक यह आरोप लगते रहे कि मोदी सरकार ने उन्हें काम नहीं करने दिया, चुनाव के समय अचानक यह कहने लगे कि उन्होंने जनता से किये गए सारे वादे पूरे कर दिए हैं, यानि जो काम वो पिछले चार-साढ़े चार साल में नहीं कर पाए उसको उन्होंने अंत के छह महीने में ही पूरा कर लिया। 

दरअसल दिल्ली के चुनाव में मार्केटिंग और पैकेजिंग का बड़ा योगदान रहा, केजरीवाल ने ठोस काम की बजाय लोकलुभावन वादों और घोषणाओं की चासनी से दिल्ली के मतदाताओं को सराबोर कर दिया। उनकी विजय का यही रहस्य है। पिछले पांच सालों में आखिर दिल्ली में ठोस रूप से क्या बदला? बड़े पैमाने पर देखें तो कुछ भी नहीं, स्थानीय स्तर पर देखें तो कुछ मुद्दों को लेकर केजरीवाल सरकार ने अपनी अच्छी मार्केटिंग की। दिल्ली की जनता और दुनिया को दिखाने के लिए केजरीवाल ने स्कूलों को खूब सजाया और संवारा। सच्चाई यही है कि दिल्ली में सेहत और शिक्षा के क्षेत्र में सतही तौर पर कुछ सुधार हुआ, जिसको बड़े पैमाने पर दर्शाया गया।

मुफ्त बिजली और पानी की योजनाओं ने भी असर दिखाया। साथ ही, केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की नब्ज पकड़ते हुए पिछले अक्टूबर से महिलाओं के लिए मुफ्त बस और मेट्रो की सेवा दे दी, इसका नतीजा यह रहा कि पुरुषों के मुकाबले 11 प्रतिशत ज्यादा महिलाओं ने केजरीवाल के पक्ष में मतदान किया।

हालांकि ऐसे लोकलुभावन किन्तु लम्बी अवधि में हानिकारक फैसलों के जरिये दिल्ली जैसे छोटे राज्य में तो राजनीतिक कामयाबी पाई जा सकती है लेकिन अब मुश्किल कांग्रेस शासित उन बड़े राज्यों के सामने आ सकती है जो दिल्ली को अपना रोल मॉडल मानने की गलती  कर रहे हैं।

पंजाब जैसे राज्यों में कई दशकों से किसानों को मुफ्त बिजली दी जा रही है, जिसका खामियाजा वहां बिजली निगमों को हर साल भुगतना पड़ता है। पंजाब में मुफ्त बिजली के एवज में हर  साल कम से 6500 करोड़ रूपये का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है, जिसके लिए राज्य कतई तैयार नहीं है।

पूरे राज्य में कम से कम 14 लाख ट्यूबवेल हैं जिसको मुफ्त बिजली दी जाती है। इसमें गरीब और मंझोले किसान तो हैं ही साथ साथ वैसे किसान भी शामिल हैं जो राजनीतिक तौर पर सत्ताधारी पार्टी के करीब होते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि जब 1997 में मुफ्त बिजली देने की शुरुआत हुयी थी, उस वक्त बिजली सब्सिडी 693 करोड़ ही थी। अब यह आंकड़ा कहाँ पहुंचा होगा, समझ सकते हैं।  

बात अगर राजस्थान और मध्य प्रदेश की करें तो वहां की सरकारें भी किसानों की कर्जमाफी सहित कई और लोकलुभावन घोषणाएं करके पूरी तरह से फंस चुकी हैं। आज स्थिति यह है कि सियासी पार्टियां चाहकर भी अपने कदम वापस नहीं खींच सकती है। लेकिन बेहतर हो कि ये बड़े राज्य केजरीवाल की नीतियों को अपनाने से बचें, क्योंकि बड़े राज्यों की चुनौतियाँ अलग हैं और वे इस तरह की मुफ्तखोरी की राजनीति से अपना नुकसान ही करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)