भारतीयता के प्रबल पक्षधर थे दत्तोपंत ठेंगड़ी

स्वदेशी आंदोलन के सुत्रधार और महान सेनानी दत्तोपंत ठेंगड़ी जी भारतीयता के सबसे बड़े पैरोकार थे। इस विषय पर वे किसी भी परिस्थिति से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे, इसके बाद भी वह आधुनिकता के प्रबल पक्षधर थे। उनका कहना था कि ‘ऐसी आधुनिकता जो हमें हमारी जड़ों से जोड़कर रखे’ जबकि पश्चिम के अंधानुकरण के कीमत पर वो आधुनिकता को स्वीकार करने के विरुद्ध थे। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के आलोक में आधुनिकीकरण  को परिभाषित करते हुए वे कहते थे कि क्या हम आधुनिकीकरण को परिभाषित कर सकते हैं? ‘आधुनिक’ का अर्थ है – वर्तमान और अभिनव काल का, अथवा वर्तमान या अभिनव काल की विशेषताओं वाला। रूढिगत रूप में आधुनिकतावाद शब्द का आशय है, आधुनिक विचार अथवा पद्धति, धार्मिक विश्वासों के संबंध में, आधुनिक विचारों शब्दों अथवा अभिव्यक्तियों के साथ परंपरा का सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति’। दूसरे शब्दों में इसका अभिप्राय है, आधुनिक व्यवहार, अभिव्यक्ति अथवा विशेषता, आधुनिक मनोवृत्ति या स्वभाव, इसाई मत के सिंद्धातों को विज्ञान के परिणामों और आलोचनाओं के अनुरूप समायोजित करने की प्रवृत्ति। आधुनिकीकरण का अर्थ है वर्तमान समय, परिस्थितियों, आवश्यकताओं, भाषाओं अथवा वर्ण-विन्यास के अनुसार ढलना, आधुनिक रीतियों को अपनाना।

ठेंगड़ी जी आधुनिकता और भारतीय प्राचीन परंपराओं को एक दूसरे के पूरक मानते थे। उनका कहना था कि हम भले ही आधुनिकता की राह पर अग्रसर हो जाएं, लेकिन हमारे अंतर में हमारी प्राचीन मान्यताएं ही हमारी समस्याओं को सुलझाने में  सहायक हैं। आधुनिकता के और अपनी परंपराओं के संदर्भ में वह महर्षि अरविंद के सिद्धातों को बताते हुए कहते हैं, ‘‘वह (भारतीय) यदि इच्छा करे तो उन समस्याओं को जिनसे समूची मनुष्य-जाति आक्रांत है और लड़खड़ा रही है, एक नया और निर्णायक मोड़ दे सकता है, क्योंकि उनके समाधान का सूत्र उसके प्राचीन ज्ञान में निहित है।’’

स्पष्टतः यह अर्थ यूरोप की विशिष्ट ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का स्वाभाविक परिणाम है। यह उस देश के संदर्भ में अप्रासंगिक हो जाता,  जहां कोई चर्च नहीं था, कोई संगठित पुरोहित वर्ग नहीं था, कोई धर्म-संप्रदायगत उत्पीड़न नहीं था, और धार्मिक सम्प्रदायों तथा विज्ञानों के बीच कोई परस्पर विरोध नहीं था। इसलिए यूरोपीय देशों के लिए ‘आधुनिकीकरण’ का अर्थ केवल ‘भविष्य में सर्वांगीण प्रगति की व्यवस्था सुनिश्चत करने  के उद्देश्य से आधुनिक काल की समस्याओं को हल करने की चुनौतियों का सामना करने का साधन होना चाहिए।

आधुनिकता  किसी समाज अथवा सभ्यता की परिचायक नहीं होती है, वह समय और देश काल के हिसाब से परिवर्तित होने वाली वस्तु है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से नदी के प्रवाह में बह रहा व्यक्ति अगर उस धार के अनुरूप अपनी गति को नहीं बदलता तो डूब जाता है, उसी तरह कोई भी समाज अथवा व्यक्ति समयानुसार खुद को परिवर्तित नहीं करता, तो वह पिछड़ जाता है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को आधुनिकता से जोड़े, लेकिन अपनी मूल को त्यागे बिना।

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दत्तोपंत ठेंगड़ी जी

आधुनिकता का नाम आते ही पश्चिमीकरण का हौव्वा खड़ा हो जाता है, लेकिन यथार्थ इससे परे है। पश्चिमीकरण पर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की सोच और समझ सबसे अलग थी। वे अक्सर कहा करते थे कि पश्चिमीकरण क्या है ? मोटे  तौर पर इसका अर्थ है, पूर्वी लोगों अथवा देशों द्वारा पाश्चात्य जीवन के विचारों, आदर्शों, संस्थाओं, प्रणालियों, संरचनाओं, जीवन-यापन के मानदंडों और जीवन-मूल्यों को अपनाया जाना। फिर भी हम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि ‘पश्चिमी’ क्या है। जहां तक मानवीय ज्ञान की निरंतर बढ़ती हुई सीमाओं का संबंध है, यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्य’ की कोई जाति, कोई समुदाय, कोई दल, कोई वर्ग, कोई राष्ट्र नहीं है। सत्य सदैव सार्वभौम होता है, यद्यपि यह हो सकता है कि ऐसे ‘सत्य’ को सर्वप्रथम प्राप्त करने वाले या उसका बोध करने वाले व्यक्ति किसी राष्ट्र विशेष या क्षेत्र विशेष के हों।

पश्चिम को विस्तृत रूप से परिभाषित करते हुए वह लिखते हैं, ‘‘अपने विशिष्ट  जीवन-मूल्यों के कारण, पश्चिम का मानववाद भी पर्याप्त रूप से मानवीय नहीं बन सका है। पहली बात तो यह है कि यह इश्वर विरोधी है और मानव-केन्द्रित है। और दूसरी बात यह कि एक ऐसे वातावरण का निर्माण यह नहीं कर सका, जो मनुष्यों में आपसी मेल-मिलाप को बढ़ाने में सहायक हो।’’

उनकी दृष्टी में पश्चिम की संस्कृति अपने अंतर में विखंडन की भावना को समेटे हुए है। उनके अनुसार पश्चिम की चिंतन प्रणाली खंडग्राही और उसकी कार्यप्रणाली विखंडनकारी है। पश्चिम ने घटनाओं के अन्योन्याश्रय को नहीं समझा। वे इस बात के प्रबल पक्षधर थे कि इस परस्पर संबंधित संसार में सभी भौतिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक,सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा पर्यावरणिक घटनाएं परस्पर निर्भर हैं।

ठेंगड़ी जी आधुनिकता और भारतीय प्राचीन परंपराओं को एक दूसरे के पूरक मानते थे। उनका कहना था कि हम भले ही आधुनिकता की राह पर अग्रसर हो जाएं, लेकिन हमारे अंतर में हमारी प्राचीन मान्यताएं ही हमारी समस्याओं को सुलझाने में  सहायक हैं। आधुनिकता के और अपनी परंपराओं के संदर्भ में वह महर्षि अरविंद के सिद्धातों को बताते हुए कहते हैं, ‘‘वह (भारतीय) यदि इच्छा करे तो उन समस्याओं को जिनसे समूची मनुष्य-जाति आक्रांत है और लड़खड़ा रही है, एक नया और निर्णायक मोड़ दे सकता है, क्योंकि उनके समाधान का सूत्र उसके प्राचीन ज्ञान में निहित है।’’

आधुनिकता आज के परिवेश के संदर्भ में जरूरी है, लेकिन वह हमारे लिए साधन है, साध्य नहीं। आज मानव समाज के समक्ष मुख्य अथवा अधिक संगत प्रश्न आधुनिक बनने या न बनने का नहीं है। आधुनिकीकरण केवल एक साधन हैं, स्वयं साध्य नहीं। साध्य का चरम लक्ष्य क्या है ? धर्म के अनुसार यह लक्ष्य है सबका संपूर्ण, ठोस, निरंतर और शाश्वत सुख । जिस सीमा तक आधुनिकीकरण इस प्रयोजन की पूर्ति में सहायक है, वहां तक उसका स्वागत है। किंतु इस सर्वोच्च लक्ष्य को यदि आधुनिकीकरण के साधन से प्राप्त किया जाता है, तो हमें इसे पश्चिमीकरण के समरूप समझना बंद कर देना चाहिए।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं।)