लम्बे समय से मुसलमानों के दिमाग में भरे जा रहे जहर की उपज है दिल्ली की हिंसा

आखिर एक शाम ऐसा क्या हुआ कि हिंसा से कोसों दूर रहने वाली दिल्ली की जनता अचानक आग की लपटों में घिर गई? आखिर कैसे अचानक शुरू हुई हिंसा में टनों पत्थर फेंके गए, पेट्रोल बम चले और अंधाधुंध फायरिंग की गई? अगर आप सोचते हैं कि इतनी भयानक हिंसा की तैयारी एक शाम में हुई तो आप भुलावे में हैं। यह हिंसा ना एक शाम में शुरू हुई ना पिछले कुछ महीनों में, इसके पीछे मौजूद मानसिकता लम्बे समय में तैयार हुई है।

दिल्ली में अचानक भीड़ सड़कों पर निकलती है और पत्थरबाजी करने लगती है। पुलिस परेशान कि क्या किया जाए और लोग पुलिस को घेर कर एक कांस्टेबल को जान से मार देते हैं। पूरी की पूरी भीड़ लाठी और डंडों के साथ सड़क पर निकलती है और पुलिस के सामने फायरिंग तक होती है। तस्वीरें आती हैं कि लाशों को घरों के सामने फेंका जा रहा है। इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी अंकित की हत्या कर लाश नाले में फेंक दी जाती है।

आखिर एक शाम ऐसा क्या हुआ कि हिंसा से कोसों दूर रहने वाली दिल्ली की जनता अचानक आग की लपटों में घिर गई? आखिर कैसे अचानक शुरू हुई हिंसा में टनों पत्थर फेंके गए, पेट्रोल बम चले और अंधाधुंध फायरिंग की गई? अगर आप सोचते हैं कि इतनी भयानक हिंसा की तैयारी एक शाम में हुई तो आप भुलावे में हैं। यह हिंसा ना एक शाम में शुरू हुई ना पिछले कुछ महीनों में, इसके पीछे मौजूद मानसिकता लम्बे समय में तैयार हुई है।

आजादी के बाद से ही इस देश की राजनीति में मुस्लिम वोट की ख़ास भूमिका रही है, लिहाजा 1950 में जनसंख्या में 9.5% की हिस्सेदारी रखनेवाले 2011 में 14.8% हो गए। वोट्स का इस्तेमाल गोली की तरह किया गया और नतीजा कि आजादी के बाद से सरकार में बैठे लोग इन्हें खुश करने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते रहे, अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर खैरातें बांटी जाती रहीं।

5.7% की हिस्सेदारी रखने वाले बौद्ध और 57,264 की आबादी वाले पारसी समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता पर कभी कोई आंच नहीं आई लेकिन देश की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी को देश की हर छोटी बड़ी चीज से परेशानी है। अपनी किताब ‘इंडियन मुस्लिम्स वेयर दे वेंट रॉंग’ में रफ़ीक ज़कारिया लिखते हैं, “जब देश में औरंगजेब का शासन था तब भी मुस्लिम आबादी 30% से ज्यादा नहीं थी, मगर क्या तब भी मुसलमानों को इस देश में कमजोर महसूस होता था, क्या वो तब भी डरे हुए थे? (आज) ये डर संख्या कम होने की वजह से नहीं बल्कि सत्ता चले जाने की वजह से है।”

आज देश की साक्षरता दर 74% है लेकिन मुस्लिम समुदाय में साक्षरता दर मात्र 42.7 % प्रतिशत है, 14% की आबादी रखने वाले इस समुदाय का कमाई का प्रतिशत मात्र 3% है। हिंदुस्तान की 47% मुस्लिम आबादी केवल तीन राज्यों में रहती है, दिल्ली में ही देखें तो सेंट्रल दिल्ली और नार्थ ईस्ट दिल्ली में 62% मुस्लिम आबादी रहती है। इस समुदाय को जानबूझ कर जानवरों की तरह बाड़े में बंद कर के रखा गया। इन्हें इस बात के लिए तैयार रखा गया कि एक आदेश पर कूच करने के लिए तैयार रहें। एक पूरा का पूरा इको सिस्टम तैयार किया गया ताकी इन्हें दूसरे समुदायों से घुलने-मिलने से रोका जा सके।

सवाल यह है कि आजादी के बाद से जब यह लगातार सत्ता के दुलारे रहे उसके बावजूद इस समाज की स्थिति इतनी बुरी क्यों है? जवाब यही है कि इस समाज को हमेशा बस राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया। इसका इस्तेमाल बस इसलिए किया गया ताकि सत्ता अर्जित की जा सके या सत्तारूढ़ दल के साथ समझौते किए जा सकें और इस समुदाय के ही चंद मुट्ठी भर लोग सत्ता का सुख भोग सकें।

लेकिन 2014 में इस स्थिति के खत्म होते ही अब यह मुट्ठी भर लोग ताकत के लिए छटपटा रहे हैं। जो सौदेबाज़ी वोटों से नहीं हो पाई, अब सड़कों पर खून बहाकर करने की कोशिश की जा रही है।

वैसे तो 2014 से ही मोदी सरकार के प्रति अविश्वास का माहौल बनाया जा रहा था लेकिन 2019 के जीत के बाद स्पीड बढ़ा दी गई। सीएए के नाम पर देश में भ्रम खड़ा किया गया। सरकार के बार-बार यह कहने के बावजूद कि इससे भारतीय मुसलमानों को कोई नुकसान नहीं होगा, एक ही झूठ को बार-बार दोहराया गया, कूच के लिए तैयार फौज को आगे लाया गया और उसके दिमाग में यह बात भर दी गई कि सरकार तुम्हारी नहीं, काफिरों की है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में शांति बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि देश के सभी नागरिक चुनाव के परिणामों का और देश की सरकार का सम्मान करें। किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के पास मोरल अथॉरिटी के अलावा और कोई ताकत नहीं होती। योजनाबद्ध तरीके से पहले सरकार, फिर पुलिस फिर कोर्ट के खिलाफ मुसलमानों के दिमाग मे जहर भरा गया और उनके हाथों में तख्तियां देकर उन्हें देश की राजधानी की मुख्य सड़क पर बिठा दिया गया।

आप सीएए के खिलाफ शुरू हुई हिंसा के करीब हुई भाषण बाज़ी को देखें तो आपको पैटर्न दिखाई देगा। राम लीला मैदान में सोनिया गाँधी ने अपनी रैली में कहा था कि ये आर-पार की लड़ाई है, फैसला लेना पड़ेगा, इस पार या उस पार। स्वरा भास्कर और शर्जिल इमाम जैसे लोगों ने अपने बयानों से जनता के दिमाग में जहर घोला और उसी जहर का परिणाम आज दिल्ली की सड़कों पर दिख रहा है। समझना आसान है कि कौन लोगों ने यह आग लगाईं है। अतः अगर सच में देश में हिंसा रोकना चाहते हैं तो मुस्लिमों के दिमाग में जहर भरने वालों को रोकिये, रोकिये उस मानसिकता को जिसने मजहब को प्रायोरिटी टेबल पर सबसे ऊपर रखा है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में छात्र हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)