डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जीः अखंड भारत के स्वप्न द्रष्टा

शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

जब भारत स्वतंत्र हुआ और देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू बने तब उनकी नीति राष्ट्र नवनिर्माण की थी, जिसका सीधा अर्थ पश्चिम का 01अंधानुकरण और भारतीयता को तिलांजली देना था। वे भारतीय संस्कृति को पश्चिम के पास गिरवी रख देना चाहते थे। इसके विपरीत डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनके साथियों का मत इसके उलट था। उनका कहना था कि भारत को आधुनिक राष्ट्र बनाने के साथ-साथ इसकी सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कृति को संजोकर चलना होगा और आने वाली पीढ़ी को इसके गौरवशाली इतिहास से अवगत कराना होगा। और इसी सोच ने जन्म दिया भारतीय जनसंघ को। डाॅ मुखर्जी जनसंघ के जरिए देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एक वैैक्लपिक वैचारिक राजनीतिक परंपरा की शुरुआत करने का प्रयास किया था। क्योंकि वे पंडित नेहरू के राजनैतिक स्वार्थों से वाकिफ थे, पंडित नेहरू देश के विभाजन के बाद भी कोई सबक नहीं ले रहे थे, इसका परिणाम यह हुआ कि आधा कश्मीर हाथ से चला गया और हैदराबाद पर भी भारतीय हुकुमत की पकड़ लगातार ढीली पड़ती जा रही थी। स्वार्थ परक राजीनीति और तुष्टीकरण देश को लगातार निराशा की गर्त में ढ़केल रहा था। यह घटना डाॅ. मुखर्जी को लगातार परेशान करती रही। जिससे विवश होकर डाॅ. मुखर्जी ने भारत में कांग्रेस के सामने वैैक्लपिक राजनीति की नींव डाली।

वो तो श्री गोपीनाथ बारदोलोई और डाॅ मुखर्जी जैसा व्यक्तित्व इस देश के पास था जिन्होंने असम को तो पाकिस्तान में जाने से बचाया ही, पश्चिमी बंगाल को भी पाकिस्तान में शामिल करवाने की साजिश नाकामयाब की। तभी बाद में किसी ने कहा था कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर, कांग्रेस की सत्ता लोलुपता को भाँप कर, भारत का विभाजन किया लेकिन डाॅ. मुखर्जी ने अपनी बुद्धिमता और दुरदर्शी दृष्टीकोण का परिचय देते हुए पाकिस्तान को ही दो हिस्से में करवा दिया।

भारत विभाजन के षड्यंत्र का पूर्वानुमान
डाॅ. मुखर्जी एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ साथ मौके की नजाकत को भाॅपने में भी माहिर थे। डाॅ. मुखर्जी को भारत विभाजन की भनक 1940 में ही लग गयी थी। जिसका जिक्र उन्होंने महात्मा गांधी से मिलकर किया। उन्होने लेडी मिंटों की गुप्त डायरी में दर्ज भारत विभाजन की पटकथा के दुष्परिणाम को गांधी जी को विस्तार से समझाया था। जिसका असर 1942 में इलाहाबद में संपन्न हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी की बैठक में दिखी। इस बैठक में भारत का विभाजन किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करने की बात कही गयी थी, लेकिन कथनी और करनी में अंतर ही कांग्रेस का चरित्र रहा है। अपने इसी चरित्र को दिखाते हुए सत्ता पाते ही वही कांग्रेस पूर्व में किए अपने वादे को भूलकर भारत के विभाजन को स्वीकार कर लिया।
अंग्रेजों की योजना असम समेत पूरा बंगाल पाकिस्तान में शामिल करने की थी। यदि इसमें वे कामयाब नहीं होते तो उन्होंने दूसरा प्लान भी तैयार किया हुआ था जिसमें बंगाल को स्वतंत्र देश के रुप में स्थापित करना था। जाहिर है यह स्वतंत्र बंगाल बाद में पाकिस्तान में शामिल हो जाता। उस समय कांग्रेस दिल्ली में सत्ता मिल जाने की संभावना से ही इतना प्रसन्न थी कि उसकी, मुस्लिम लीग और ब्रिटेन के इस षड्यंत्र को नाकामयाब करने में कोई रुचि नहीं थी। वो तो श्री गोपीनाथ बारदोलोई और डाॅ मुखर्जी जैसा व्यक्तित्व इस देश के पास था जिन्होंने असम को तो पाकिस्तान में जाने से बचाया ही, पश्चिमी बंगाल को भी पाकिस्तान में शामिल करवाने की साजिश नाकामयाब की। तभी बाद में किसी ने कहा था कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर, कांग्रेस की सत्ता लोलुपता को भाँप कर, भारत का विभाजन किया लेकिन डाॅ. मुखर्जी ने अपनी बुद्धिमता और दुरदर्शी दृष्टीकोण का परिचय देते हुए पाकिस्तान को ही दो हिस्से में करवा दिया। जिसका नतीजा 1971 में स्वतंत्र बांग्लादेश के रूप में देखने को मिला। चूंकि पाकिस्तान विभाजन की जमीन उसी समय तैयार हो चुकी थी।
भारत विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बन गया लेकिन डा. मुखर्जी की आशंकाएं सही निकलीं। पूर्वी बंगाल के भारत से अलग होते ही मुस्लिम लीग ने वहाँ की सरकार से मिल कर हिन्दुओं को खदेड़ना शुरु कर दिया। उनकी सम्पत्ति को लूटना शुरु कर दिया और लड़कियों का अपहरण शुरु हो गया। पूर्वी पाकिस्तान, जो उन दिनों पूर्वी बंगाल भी कहलाता था, के हिन्दुओं के सामने एक ही विकल्प था कि वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर अपनी मातृभूमि छोड़ दें। पूर्वी बंगाल में मानों एक बार फिर से मुगल वंश का शासन आ गया हो।

डा. मुखर्जी उन दिनों नेहरु के मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री थे। महात्मा गांधी के आग्रह पर सत्ता हस्तांतरण के समय शुद्ध कांग्रेसी सरकार न बना कर दिल्ली में राष्ट्रीय सरकार का गठन किया गया था। उसी कारण से डा. मुखर्जी मंत्री बने थे। मुखर्जी ने नेहरु से आग्रह किया कि भारत सरकार पाकिस्तान से बंगाली हिन्दुओं का नरसंहार और मतान्तरण बंद करने के लिये कहे। यदि पाकिस्तान बंगाली हिन्दुओं को अपने यहाँ से खदेड़ना बंद नहीं करता तो पूर्वी बंगाल से निष्कासित लोगों की संख्या के अनुपात से वहाँ की जमीन पुनः भारत में शामिल की जाये। परन्तु पश्चिमी अवधारणाओं के समर्थक नेहरु के लिये शायद मतान्तरण कोई विषय ही नहीं था। उनकी चलती तो वे शायद पूर्वी बंगाल के सभी हिन्दुओं को मतान्तरित होकर प्राण रक्षा की सलाह भी दे देते। नेहरु ने पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं की रक्षा करने की बजाय पाकिस्तान के उस समय के प्रधानमंत्री पर ही भरोसा करना ज्यादा ठीक समझा। नेहरु की इसी शुतुरमुर्गी नीति से आहत होकर मुखर्जी ने मंत्रि परिषद से त्यागपत्र दे दिया था।

उदारमना डाॅ. मुखर्जी
डाॅ. मुखर्जी का व्यक्तित्व जितना विशाल था वैसा ही उनका मन भी ममता और वात्सल्य की अतल गहराइयों वाला था। वे तत्कालीन नेताओं जैसे जिन्ना, सुहरावर्दी, नेहरू और शेख जैसे नहीं थे। वे व्यक्ति का पंथ अथवा मजहब नहीं बल्कि इससे रहित होकर सेवा करते थे। उनके उदार व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए प्रकाशवीर शास्त्री अपने पुस्तक ‘कश्मीर की वेदी पर’ में बंगाल आकाल के समय घटित एक घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि ‘‘डाॅ मुखर्जी की यह विशेष सहमती रहती थी कि बिना किसी धार्मिक भेद भाव के अन्न वितरण किया जाए, हमारे सामने किसी जाति को नहीं बल्कि मनुष्यता को बंचाने का उच्च ध्येय है।” एक बार स्वयं मिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना ने पाॅच सौ का चेक कलकत्ता भेजा और लीग के अधिकारियों को लिख दिया कि इसका चावल खरीदकर ईद के दिन मुसलमानों में बाॅटा जाए। इसके विपरीत आर्य समाज तथा दूसरे हिंदू महासभा के कैंपों में डाॅ. मुखर्जी का कहना था कि- ‘पहले मुसलमान को चावल दो और बाद में हिंदू को।’ (कश्मीर की वेदी पर पृष्ठ संख्या-23)।

आज उनके महाप्रयाण के बाद भी लोगों में और खासकर युवाओं के मन में उनकी अमिट छाप है। आज भारत के प्रत्येक युवक में डाॅ. मुखर्जी की आत्मा वास करती है, देश का हर युवा भारत के कण-कण में उनके महान आत्मा को निहार रहा है। उस महान शिल्पी के कदमों को चूमने को आतुर है। आज भारत के सामने बड़ी-बड़ी उलझने हैं। मार्ग की जिज्ञासा करने वालों के सामने मुखर्जी ने आॅंख रख दी है। अब गंतव्य पथ की भली-भाॅति आलोकित हो उठा है। भारत के लिए अब मार्ग की खोज नहीं करनी है, हमें तो अब इस मार्ग पर चलकर पुनः यह घोषणा कर देनी है कि ‘‘सत्य का पराभव कभी नहीं हो सकता’’।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी शोध अधिष्ठान में शोधार्थी हैं )