‘इमरजेंसी’ का दुःस्वप्न

राम बहादुर राय

आज इमरजेंसी को याद करना उथल-पुथल की उस परिस्थिति में लौटने जैसा है। हर साल हम झांककर देखते हैं कि आखिर क्यों वैसा हुआ?44-Jayaprakash-Narayan.jpg.image.975.568 लोकतंत्र का गला घोंटकर 26 जून,1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी थी। तानाशाही थोप दी गई थी। 25 जून की आधी रात के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची। वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे हुए थे। उन्हें जगाया गया। गिरफ्तारी पर उनकी पहली प्रतिक्रिया थी- ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि।’ उनकी गिरफ्तारी की खबर पाकर कांग्रेस के बड़े नेता चंद्रशेखर संसद मार्ग थाने पहुंचे। उन्हें भी गिरफ्तार किया गया। उस रात गैर कम्युनिस्ट विपक्ष के बड़े नेताओं को जगह-जगह से पुलिस पकड़ती रही। उस रात हजारों लोग बंदी बनाकर काल कोठरी में डाल दिए गए। वह इमरजेंसी लगाने से पहले की एहतियाती कार्रवाई थी। इमरजेंसी तो अगले दिन घोषित की गई। लेकिन जिस तरह बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया, उसी तरह देशभर के ज्यादातर अखबारों की बिजली काट दी गई। जिससे वे लोगों को तानाशाही थोपने के कदम की सूचना न दे पाएं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अन्य 25 संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई। संघ पर पाबंदी लगाने से पहले 30 जून, 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस को नागपुर स्टेशन पर बंदी बना लिया गया। यह कलंकपूर्ण घटना 40 साल पहले की है। तब से दो-तीन पीढ़ियों का फासला हो गया है। नई पीढ़ी के सामने सबसे पहला सवाल यह आएगा कि इमरजेंसी क्यों लगाई गई? इसके दो राजनीतिक उत्तर हैं। पहला इंदिरा कांग्रेस का अपना कथन है तो दूसरा उनका है जो लोकतंत्र की वापसी के लिए जेपी की अगुवाई में लड़े और जीते। इंदिरा कांग्रेस का कहा माने तो इमरजेंसी जरूरी थी। क्या इसमें कोई सच्चाई है? असल में जो हालात नहीं थे, उसे इंदिरा कांग्रेस ने बनाया और उसका ढोल पीटा। उसके बहाने इमरजेंसी लगाई। लोगों की आजादी छीन ली। संविधान को स्थगित कर दिया। संविधान से ऊपर संजय गांधी की सत्ता को बैठा दिया। संभवतः नई पीढ़ी को यह भी पता न हो कि संजय गांधी कौन थे। उन्हें इंदिरा गांधी के दूसरे बेटे से ज्यादा उनके राजनीतिक वारिस के रूप में माना जाता था। इमरजेंसी का असली कारण वह नहीं था, जिसे इंदिरा गांधी बताती थीं। असली कारण जानने के लिए थोड़ा और पीछे जाना होगा। 1971 में इंदिरा गांधी रायबरेली से लोकसभा के लिए चुनी गई थीं। उनके प्रतिद्वंद्वी थे, राजनारायण। चुनाव में धांधली और प्रधानमंत्री पद के दुरुपयोग का आरोप लगाकर राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक चुनाव याचिका दायर की। जब मुकदमा सुनवाई पर आया तो कयास लगाया जाने लगा कि अगर इंदिरा गांधी हार जाती हैं तो वे क्या करेंगी। क्या इंदिरा गांधी आसानी से प्रधानमंत्री का पद छोड़ देगीं? जो लोग उनकी कार्यशैली और उनके तानाशाही मिजाज से वाकिफ थे, वे सही निकले। उनका अनुमान था कि इंदिरा गांधी हर हथकंडे अपना कर प्रधानमंत्री बनी रहना चाहेंगी।

आखिरकार वह दिन आ ही गया। 12 जून, 1975 को करीब 10 बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला सुनाया। राजनारायण जीते। इंदिरा गांधी मुकदमा हार गईं। 6 साल के लिए उनकी लोकसभा सदस्यता चली गई। जज ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा सुने जाने तक अपने फैसले के अमल पर रोक लगा दी। इंदिरा गांधी की राजनीतिक जिदंगी में जून का महीना अवसाद का रहा है। इसी महीने में उनसे अनेक बार ऐतिहासिक गलतियां हुई हैं। 12 जून, 1975 सिर्फ मुकदमा हारने के लिए ही नहीं जाना जाएगा। इसलिए भी कि वह इंदिरा गांधी के मानसिक संतुलन को झकझोर देने वाला दिन था। उसी दिन सुबह डीपी. धर का देहांत हो गया। जो उनके लिए आंख-कान और नाक का काम करते थे। शाम होते-होते गुजरात विधानसभा के चुनाव का परिणाम आया। कांग्रेस पराजित हुई। देश में पहली बार जनता मोर्चा का प्रयोग सफल हुआ और बाबू भाई पटेल के नेतृत्व में सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ।

George Fernandes-kA1F--414x621@LiveMint जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए इंदिरा गांधी को 12 दिन का समय मिल गया। सुप्रीम कोर्ट में गर्मी की छुट्टियां थी। जैसा कि होता है, ऐसे समय में एक जज जरूरी काम निपटाता है। उन दिनों यह काम वीआर. कृष्ण अय्यर के पास था। वे सुप्रीम कोर्ट में तब ‘वेकेशन’ जज थे। 24 जून को उन्होंने इंदिरा गांधी को थोड़ी राहत दी। वे फैसला आने तक सदस्य बनी रह सकती थीं, लेकिन लोकसभा के रजिस्टर पर दस्तखत करने पर पाबंदी लगा दी। वे लोकसभा की कार्यवाही में भी हिस्सा नहीं ले सकती थीं।जाहिर है, इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत नहीं मिली। उनका प्रधानमंत्री पद खतरे में पड़ गया। मुकदमा हारने और सुप्रीम कोर्ट से राहत न पाने के कारण इंदिरा गांधी की नैतिक पराजय हो गई। इसे वे पचा नहीं पाईं। यही वह असली कारण है कि उन्हें अपनी कुर्सी बचाने के लिए बड़ा दाव चलना पड़ा। यह उनकी मजबूरी नहीं थी। उनके राजनीतिक चरित्र की इसे मजबूती भी नहीं कहेंगे। सत्ता से चिपके रहने की यह उनकी लालसा थी। वह परिस्थिति कैसे पैदा हुई? इसे समझने के लिए उस दौर की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं को गौर से देखना चाहिए। इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से 1971 की लोकसभा में प्रचंड बहुमत पाकर आई थीं। उनसे बड़ी उम्मीदें थी। लेकिन साल डेढ़ साल नहीं लगे और लोग महंगाई, भ्रष्टाचार, शासन के अत्याचार और अनैतिकता से उबने लगे। विरोध में आवाजें उठने लगीं। आंदोलन खड़े हुए। जिसका नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। आंदोलन राष्ट्रव्यापी बनता जा रहा था। आंदोलन अहिंसक था। लोकतांत्रिक था। उसका नारा था- संपूर्ण क्रांति। आंदोलन में छात्र-युवा, विपक्षी दल, उनके जनसंगठन और गांधी धारा के सामाजिक कार्यकर्ता बड़ी संख्या में सक्रिय थे। आजादी के बाद मुख्यधारा का वह सबसे बड़ा आंदोलन था। उस आंदोलन के नेतृत्व से इंदिरा गांधी संवाद बना सकती थीं। इसके ठीक विपरीत उन्होंने टकराव का रास्ता चुना। सुप्रीम कोर्ट से 24 जून को इंदिरा गांधी निराश लौटीं। अगले दिन उन्हें तत्काल एक बहाना मिल गया। सत्ता की राजनीति जब अपनी कुर्सी बचाने में सिमट जाए तो ऐसे बहाने बहुत खतरनाक साबित होते हैं।पहले यह जानें कि इंदिरा गांधी को बहाना क्या मिला। 25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में आंदोलन के समर्थन में बड़ी सभा थी। उसमें जेपी का भाषण हुआ। उन्होंने वहां जो कहा उसे सरकार ने तोड़-मरोड़कर पेश किया। इंदिरा गांधी ने आरोप लगाया कि जेपी सेना में बगावत कराना चाहते थे। इसलिए आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इमरजेंसी लगानी पड़ी।इंदिरा गांधी का दावा निराधार था। अगर वे इस्तीफा दे देतीं और कांग्रेस की संसदीय पार्टी किसी को उनकी जगह नेता चुन लेतीं तो इमरजेंसी की जरूरत ही नहीं पड़ती। यह हो सकता था। लेकिन इसके लिए जरूरी था कि कांग्रेस पार्टी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाए। इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस को तोड़ा। उस समय के अनुभवी नेताओं से मुक्ति पाने के लिए और अपनी मनमानी चलाने के लिए उन्होंने जो पद्धति अपनाई उसमें यह संभव ही नहीं था कि वे पद छोड़ने का विचार करतीं और कोई दूसरा व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता।

संजय गांधी के उदय ने इस रास्ते को बंद ही कर दिया था। इमरजेंसी लगवाने में संजय गांधी की बड़ी भूमिका थी। प्रधानमंत्री निवास के सामने तब गोलमेथी चैक होता था। वहां हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल बसों में भरकर लोगों को भेजते थे। इंदिरा गांधी के समर्थन में रोज भाड़े के लोग जमा किए जाते थे। इसके लिए डीटीसी की बसों का खुलकर दुरुपयोग हुआ।रामलीला मैदान में जेपी की सभा से पहले ही इंदिरा गांधी राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने गईं। उनके साथ पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे थे। रास्ते में इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा कि बिना मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए इमरजेंसी कैसे लगाई जा सकती है, इसका कानूनी रास्ता खोजिए। सिद्धार्थ शंकर रे ने थोड़ा वक्त मांगा और शाम को वह नुस्खा बता दिया। उसी आधार पर बिना मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए इमरजेंसी की घोषणा पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से दस्तखत कराया गया। इसके लिए वे राजी नहीं थे, पर दबाव में आ गए।26 जून, 1975 की सुबह मंत्रिमंडल के सदस्यों को जगाकर बैठक की गई। जिसमें इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के फैसले की जानकारी दी। सिर्फ सरदार स्वर्ण सिंह ने, वह भी बहुत दबी जुबान से अपना एतराज जताया।इमरजेंसी की घोषणा से निरंकुश शासन का दौर शुरू हुआ। वह आजाद भारत की काली रात बन गई। लगता था कि कभी लोकतंत्र लौटेगा नहीं। इमरजेंसी का अंधेरा बना रहेगा।  में जुल्म और ज्यादतियों के हजारों लोग शिकार हुए। फिर भी लोकतंत्र की वापसी के लिए भूमिगत संघर्ष चला। उससे एक चेतना फैली। दुनिया में जनमत बना। जिसके दबाव में इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा।

लोकसभा के चुनाव की घोषणा हुई। इमरजेंसी में ही चुनाव कराने की चाल इंदिरा गांधी ने इसलिए चली कि उन्हें अपनी विजय का विश्वास था। वे अपनी तानाशाही पर लोकतंत्र की मुहर लगवाना चाहती थी। लेकिन चुनाव परिणाम ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इंदिरा गांधी अपनी सीट भी नहीं बचा पाईं। मंत्रिमंडल का इस्तीफा सौंपने से पहले इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को हटाया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख यथावत पत्रिका से लिया गया है )