यदि वामपंथी इतिहासकार न होते तो अबतक सुलझ गया होता राम मंदिर मुद्दा

श्री के के मोहम्मद ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘नज्न एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) में  सीधे तौर पर रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब पर बाबरी मस्जिद विवाद को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप लगाते हुए लिखा है – 1976-1977 में जब प्रो. बी लाल की अगुआई में वहां पर खुदाई हुई थी, तो उसमें भी वहाँ मंदिर के साक्ष्य पाए गए थे। मोहम्मद के इस मत से इतिहासकार एमजीएस नारायन ने भी सहमति जताई है। बावजूद इसके इन तमाम वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात कभी नही स्वीकार की कि वहां पर कभी किसी मंदिर का ध्वंस हुआ था। इन्होने जानबूझकर इतिहास का विरूपण किया। यह जानते हुए भी कि इतिहास का विरूपण एक गंभीर अपराध है।

मेरा ख्याल है कि ‘कबूतर और बिल्ली’ वाली कहावत तो सब जानते ही होंगे। अगर नहीं भी जानते हैं, तो उसका भाव यह है- कि यदि आप किसी भी समस्या को सम्मुख देखकर, उससे किनारा करने का प्रयास करें, तो वह खुद-ब-खुद सामने से नहीं जाएगी, बल्कि उसे हटाने के लिए हमें सतत प्रयास करना पड़ेगा। निष्कर्षतः अपना काम स्वयं ही करना पड़ता है। समस्याओं से मुँह चुरा लेने मात्र से समस्या भागती नहीं है, बल्कि वह और बढ़ती हैं।

इसी संदर्भ में यदि हम देखें तो कई समस्यायें ऐसी हैं, जिनकी तरफ से हम इतने ज्यादा उदासीन हैं कि हमारा ध्यान कभी उधर जाता ही नहीं। ऐसा ही एक मुद्दा है ‘श्रीराम मंदिर’। आखिर हम इतने पवित्र मुद्दे में एक-दूजे से इतने मतभेद क्यूँ बनायें हुए हैं ? क्यूँ नहीं साधारण तरीके से बिना किसी जोर-जबरदस्ती के इसे निपटाना चाहते हैं ? क्यूँ हमेशा यह मुद्दा आते ही हमारे मन में एक भय और उत्पात का माहौल पैदा हो जाता है ? दरअसल यह डर, लज्जा, संकोच एक दो दिन का नहीं है। यह सालों से प्रायोजित तरीके से हमारे मनो-मस्तिष्क में बैठाया गया है। इतिहास की गलत जानकारी देकर। इस मुद्दे को उलझाने का काम वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों ने सबसे अधिक किया है।

मशहूर पत्रकार ‘अरुण शौरी’ ने अपनी किताब ‘जाने-माने इतिहासकार : उनके छल-छद्म और कार्यविधि’ में साफ-साफ़ लिखा है- अयोध्या मुद्दा बहुत पहले ही सुलझ गया होता, यदि उसमें मिले खुदाई के अवशेषों को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखा गया होता। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही हुआ। रोमिला थापर, बिपिन चन्द्रा, प्रो.धनेश्वर मंडल, शीरीन मौसवी, डीएन झा, आर एस शर्मा, प्रो. सुप्रिया वर्मा आदि सभी इतिहासकारों ने माहौल खराब करने की कोशिश के चलते ऐसा किया और इसमें इनका निजी स्वार्थ भी शामिल था। वह स्वार्थ पूरा भी हुआ। जिसके तहत इन्हें सालों तक ‘इतिहास अनुसन्धान परिषद’ में कई अन्य-अन्य पदों पर ‘आसीन’ किया गया। इन्हें वहाँ से कई प्रकार के ‘प्रोजेक्ट’ मिले। जिनमें से कुछ को तो इन्होने ‘आज तक’ पूरा नही किया। आराम से सरकार का पैसा लेते रहे और इस बीच अपनी-अपनी यूनिवर्सिटियों के पठन-पाठन से भी दूर रहे और वहाँ से भी सरकार का पैसा डकारतें रहे।

दरअसल इनके दावों की पोल तब दुनिया के सामने एकदम खुल गई, जब एएसआई के क्षेत्रीय निदेशक (उत्तर क्षेत्र) रहे ‘श्री के के मोहम्मद’ ने मलयालम में लिखी अपनी आत्मकथा ‘नज्न एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) में  सीधे तौर पर ‘रोमिला थापर’ और ‘इरफ़ान हबीब’ पर बाबरी मस्जिद विवाद को गलत ढंग से प्रस्तुत करने का आरोप लगाते हुए लिखा है – 1976-1977 में जब प्रो. बी लाल की अगुआई में वहां पर खुदाई हुई थी, तो उसमें भी वहाँ मंदिर के साक्ष्य पाए गए थे। मोहम्मद के इस मत से इतिहासकार ‘एमजीएस नारायन’ ने भी सहमति जताई है। बावजूद इसके इन तमाम वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात कभी नही स्वीकार की कि वहां पर कभी किसी मंदिर का ध्वंस हुआ था। इन्होने जानबूझकर इतिहास का विरूपण किया। यह जानते हुए भी कि ‘इतिहास का विरूपण एक गंभीर अपराध है।’ के. के. मोहम्मद ने अपनी किताब में खुदाई स्थल पर 14 स्तंभों वाले आधार मिलने की बात स्वीकारी है।

के के मोहम्मद अकेले ऐसे विद्वान नहीं है, जिन्होंने यह स्वीकार किया है कि वहाँ मंदिर था, बल्कि उनसे बहुत पहले भी ‘मिर्जाजान’ ने अपनी किताब ‘हदिकाए शहदा’ में इसका जिक्र किया है। हाजी मोहम्मद हसन ने भी 1878 में लिखी अपनी किताब ‘जियाए अख्तार’ में राम मंदिर और सीता की रसोई तोड़े जाने की बात कही है। इसके आलावा ‘मौलवी अब्दुल करीम’ आदि विद्वानों ने भी अपने ग्रंथों में इस बात को स्वीकार किया है कि वहाँ मंदिर था।

अतः अदालत ने जो सुलह का सुझाव दिया है, वह काफी हद तक सही तो है। पर कुछ सवाल हैं- क्या ये तथ्यविहीन लोग अभी फिर से माहौल खराब करने की कोशिश नहीं करेंगे ? क्या ये कभी अपनी बंद आँखें खोलने के लिये राजी होंगे ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जो तथ्यों और प्रमाणों से हारने के बावजूद नहीं मान रहें हैं, क्या वह कोर्ट के बाहर सुलह को तैयार होंगे ? अतः मेरे विचार से अदालत को मध्यस्थता तो करनी ही चाहिए और तथ्यों के आधार पर फैसला देना चाहिए। रही बात ‘राममंदिर’ की, तो राम मंदिर सिर्फ एक ‘मंदिर’ नहीं है। वह कई लोगों की आस, उम्मीद, श्रद्धा, पूजा, विश्वास, प्रेम और न जाने कितनी पुनीत भावनाओं का स्थल है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)