एनएसजी में मज़बूत होती भारत की दावेदारी, खुल रही राहें

रवि शंकर

परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता के लिए वैश्विक स्तर पर समर्थन जुटाने की भारत की मुहिम को हाल में एकindias-membership-of-nsg-dominates-meet-between-pm-narendra-modi-and-us-president-barack-obama बड़ी कामयाबी मिली। अमेरिका, स्विट्जरलैंड और मेक्सिको ने एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन किया है, लेकिन पाकिस्तान 48 सदस्यीय इस समूह में शामिल होने के भारत के प्रयास को रोकने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। भारत और पाकिस्तान दोनों ने वैश्विक परमाणु व्यापार को नियंत्रित करने वाले 48 सदस्यीय एनएसजी की सदस्यता के लिए आवेदन दिया है। हालांकि भारत के प्रयास को अमेरिका सहित एनएसजी के कई प्रमुख सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। वहीं चीन पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है। पाकिस्तान और चीन का तर्क है कि बिना परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना भारत कैसे एनएसजी की सदस्यता हासिल कर सकता है? चीन का कहना है कि परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले भारत को यदि सदस्यता दी जा सकती है तो पाकिस्तान को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। माना जाता है कि चीन तब तक भारत की सदस्यता का समर्थन नहीं करेगा जब तक पाकिस्तान को भी यही दर्जा नहीं दिया जाए। पिछले महीने पाकिस्तान ने एनएसजी की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन दाखिल किया था, जबकि भारत ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने का औपचारिक आवेदन 2008 में किया था, तब से वह विभिन्न देशों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है।

हालांकि चीन सहित न्यूजीलैंड, आयरलैंड, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्टिया एनएसजी में भारत के शामिल होने का विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ परमाणु अप्रसार के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए अमेरिका सहित कई अन्य देश एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन कर रहे हैं और अमेरिका ने एनएसजी के अन्य सदस्यों से भी भारत की उम्मीदवारी का समर्थन करने को कहा है। परमाणु प्रसार को लेकर गहरी चिंता जताने वाले यूरोपीय देश स्विट्जरलैंड ने भी परमाणु व्यापार क्लब में शामिल होने के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन करने की घोषणा की है। उल्लेखनीय है कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के आधार पर चीन के नहीं चाहने के बावजूद एनएसजी ने असैन्य परमाणु प्रौद्योगिकी तक पहुंच के लिए वर्ष 2008 में भारत को विशेष छूट दी थी।

भारत का प्रवेश अगर एनएसजी में होता है तो इससे यूरेनियम आपूर्ति की संभावनाएं बनेंगी और इससे विभिन्न देशों में भारतीय आपूर्तिकर्ताओं और नाभिकीय संघटकों के लिए भी राह खुलेगी। इसके अलावा भारत को इससे नई तकनीक मिलेगी। दरअसल भारत एनएसजी की सदस्यता सिर्फ इसलिए चाहता है कि वो अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर परमाणु मसलों पर नियम बना सके। हालांकि भारत को साल 2008 से ही परमाणु पदार्थो के आयात के लिए सहूलियत मिली हुई है, लेकिन यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि इसका मान बढ़ जाएगा। एनएसजी वर्ष 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद ही साल 1975 में बना था। यानी जिस क्लब की शुरुआत भारत का विरोध करने के लिए हुई थी, अगर भारत उसका मेंबर बन जाता है तो ये उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी। साथ ही भारत ये चाहता है कि उसे एक परमाणु हथियार संपन्न देश माना जाए, क्योंकि सिर्फ परमाणु अप्रसार संधि ये कहती है कौन देश परमाणु हथियार संपन्न है और कौन नहीं।

गौरतलब है कि एनएसजी में शामिल होते ही भारत परमाणु से जुड़ी सारी तकनीक और यूरेनियम सदस्य देशों से बिना किसी समझौते के हासिल कर सकेगा। भारत में दुनिया का हर सातवां व्यक्ति रहता है, लेकिन दुनिया के कुल ऊर्जा उत्पादन का महज दो से तीन फीसद यहां पैदा होता है। लिहाजा भारत के लिए ऊर्जा की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए इसे एनएसजी का सदस्य बनना बेहद जरूरी है। देश में मौजूदा वक्त में शहरों का विस्तार हुआ है, इसके बढ़ने के बाद लोगों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में यह सदस्यता कारगर साबित होगी। भारत के ऊर्जा संकट को खत्म करने और तरक्की की तरफ जाने का यह एक सफल प्रयोग साबित होगा और अब तक भविष्य को लेकर इसकी जो समस्याएं थीं, इस संगठन से जुड़कर उस पर भी निजात पाया जा सकता है। गौरतलब है कि जब 1974 में यह समूह बना था तब इसमें महज सात देश थे-कनाडा, पश्चिम जर्मनी, फ्रांस, जापान, सोवियत संघ, ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका। बाकी देशों को धीरे-धीरे इस समूह में जगह मिलती रही है।

इतना ही नहीं भारत और अमेरिका के बीच जिन मुद्दों पर वार्ता हुई उसमें एक मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) का सदस्य बनने का प्रस्ताव भी था। अमेरिक में भारत के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। इसके किसी सदस्य देश ने भारत की दावेदारी का विरोध नहीं किया है। इस समूह की सदस्यता से भारत की उच स्तरीय मिसाइल प्रौद्योगिकी तक पहुंच हो सकेगी। औपचारिक रूप से भारत को इस साल के अंत में एमटीसीआर की सदस्यता मिल जाएगी और उसके बाद भारत मिसाइल से संबंधित और अन्य कई सामरिक और वैज्ञानिक महत्व की तकनीक की खरीद-फरोख्त कर पाएगा। एमटीसीआर 35 देशों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसका काम दुनिया भर में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण रखना है। हालांकि इस टेक्नोलॉजी का प्रयोग कोई भी देश केवल अपनी सुरक्षा के लिए कर सकता है। एमटीसीआर का सदस्य बनने से भारत के लिए एनएसजी की सदस्यता हासिल करने में आसानी होगी। एमटीसीआर का गठन 1997 में दुनिया के सात बड़े विकसित देशों ने किया था। बाद में 27 अन्य देश भी इसमें शामिल हुए। भारत एमटीसीआर का सबसे नया और 35वां सदस्य बन चुका है।

हालांकि संप्रग सरकार के समय ही अमेरिका के साथ भारत का परमाणु करार हुआ था और उसी आधार पर भारत को यूरेनियम आदि मिलना शुरू हो गया था, पर अब बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी के बीच पिछले दो सालों में हुई करीब सात बार की मुलाकातों से न सिर्फ दोनों देशों के रिश्ते प्रगाढ़ हुए हैं, बल्कि अमेरिकी प्रशासन का भारत पर भरोसा भी बढ़ा है। गत दिनों अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए मोदी की कोशिश भारत से संबंध के प्रति अमेरिका में राजनीतिक आम-सहमति बढ़ाने पर रही। उनकी निगाह इस पर थी कि अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम चाहे जो हो, उससे भारत-अमेरिका संबंधों की वर्तमान गति प्रभावित ना हो। अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी की बड़ी वजह यह भी है कि एशिया में दोनों देशों की चिंताएं लगभग समान हैं। आतंकवाद पर नकेल कसना तो अहम मुद्दा है ही, चीन की विस्तारवादी नीतियों पर काबू पाना भी जरूरी है। इसलिए वाशिंगटन नई दिल्ली से औपचारिक गठजोड़ करना चाहता है, जबकि चीन पाकिस्तान को अपने करीब लाकर एशिया में अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है।

बहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा अमेरिका यात्र की उपलब्धियों से स्वाभाविक ही चीन और पाकिस्तान के माथे पर शिकन उभरी है। दोनों देशों के बीच बढ़ती साझेदारी के पीछे सिर्फ व्यापारिक हित ही नहीं हैं। रणनीतिक साझेदारी की नई दास्तां भी लिखी जा रही है, जिसके केंद्र में चीन भी है। वहीं भारत इस साझेदारी  के जरिए कुछ और देशों के साथ अपने रिश्तों को संतुलित करना चाहता है। भारत का विरोध करने के पीछे चीन की रणनीतिक दिलचस्पी है, पर भारत के साथ अछे संबंधों की जरूरत चीन को भी है। चीन नहीं चाहेगा कि भारत हिंद महासागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी रणनीति का पूरी तरह हिस्सा बन जाए, इसके लिए उसे भी भारत के हक में कुछ फैसले करने पड़ेंगे। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन अपने रुख को कितना लचीला बनाता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह  लेख  दैनिक जागरण में  १५ जून को प्रकाशित हुआ था )