भारत की प्रगति के लिए ‘भारतीयता’ को आवश्यक मानते थे पं दीनदयाल उपाध्याय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय को जितनी समझ भारतीय संस्कृति और दर्शन की थी, उतनी ही राजनीति की भी थी। व्यक्तिगत स्वार्थ में लिप्त राजनीति पर वे हमेशा प्रहार करते थे। पंडित जी जब उत्तर प्रदेश के सह प्रांत-प्रचारक थे, उस समय उनके निशाने पर भारत सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ देश में फैली निराशा भी रहती थी। उस समय देश में कांग्रस की सरकार थी और उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। देश की आजादी के भी चंद वर्ष ही हुए थे, लेकिन स्वराज अपने उद्देश्य भटक गया था। जन भावनाओं का निरादर आम हो गया था। देश की दिशा और दशा दोनो जड़वत थी, अर्थात उसमें बदलाव कहीं से भी नहीं दिख रहा था। कांग्रेस सत्ता के मद में इस कदर अंधी हो चुकी थी कि उसे देश की उन्नति दिख ही नहीं रही थी।

पंडित जी को नेहरु की कश्मीर को संवैधानिक रूप से विशेषाधिकार देने की नीति से भी दुःख था। नेहरु के फैसले का विरोध करते हुए उन्होने कहा था, ‘‘अत्यंत प्राचीन काल से भारतवर्ष अखंड, अविभाज्य एवं एक दृढ़ राष्ट्र रहा है, किंतु इसे भूलाकर कश्मीर के भाग्य निणर्य का अधिकार वहां के 40 लाख निवासियां को दिए जाने की गलत घोषणा की जा रही है। कश्मीर भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण अंग सदैव से रहा है, उसे आत्मनिर्णय का कोई अधिकार नहीं हो सकता, कश्मीर भारतवर्ष का नंदन वन है।’’

देश की आजादी के बाद नेहरू नायक बने, उनके द्वारा दिखाए गए सपने में लोग विकसित भारत की छवि को देख रहे थे, लेकिन नेहरू देशवासियों की भावनाओं के विपरीत अपने अहं को ज्यादा महत्व दे रहे थे। अहं इस कदर बढ़ गया था कि उनको ना तो देश की सुरक्षा दिखती और ना ही घोर निराशा के अंधकार में घिरी जनता ही नज़र आ रही थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस बात से बहुत व्यथित रहते थे। उनके मन में पल रही पीड़ा एक नेता की नहीं, अपितु एक आम नागरिक की थी। लेकिन, तत्कालीन सरकार अपने की संस्कारों से विमुख हो चुकी थी। वर्तमान परिस्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए पंडित जी ने कहा था, ‘‘जिन लोगों को हम सर्व शक्तिमान समझते थे, त्यागी जानते थे तथा जिन पर हमने अपनी सारी श्रद्धा उड़ेल दी उन नेताओं के हाथ में शासन की बागडोर होने के बाद हम बाहर तथा अंदर सभी ओर असफल हो रहे हैं।’’

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उस दौर में आजादी अपने संकल्पों से दूर होती जा रही थी। देश की जो मूल समस्या थी उसे नजरअंदाज किया जा रहा था। उन्होने बहराइच में दिए अपने भाषण में कहा, ‘‘मूल कारण को दूर किए बिना इच्छाओं की पूर्ति तथा सुख संभव नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए बबूल के पेड़ को शरबत अथवा पानी से कितना भी सिंचा जाए, उसे दुर्जन अथवा सज्जन कोई भी सींचें, अंततः उसमें कांटे ही मिलेंगे। आम के लिए तो आम के ही पेड़ की आवश्यकता होती है।’’ उनके मन में तत्कालीन नेताओं के निणर्य पर भी क्षोभ था। उन्होने कहा था, ‘‘जिस आधार को लेकर हमारे नेता आज चल रहे हैं, उसे बदले बिना हमारे देश का कल्याण नहीं हो सकता। अभारतीय, विदेशी तथा भिखारी मनोवृत्ति को लेकर स्वराज्य की कल्पना महाराणा प्रताप का स्वराज्य नहीं हो सकता, उसके द्वारा स्वधर्म की रक्षा नहीं की जा सकती।’’ पंडित जी को नेहरु की कश्मीर नीति से भी दुःख था। नेहरु के फैसले का विरोध करते हुए उन्होने कहा था, ‘‘अत्यंत प्राचीन काल से भारतवर्ष अखंड, अविभाज्य एवं एक दृढ राष्ट्र रहा है, किंतु इसे भूलाकर कश्मीर के भाग्य निणर्य का अधिकार वहां के 40 लाख निवासियां को दिए जाने की गलत घोषणा की जा रही है। कश्मीर भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण अंग सदैव से रहा है, उसे आत्मनिर्णय का कोई अधिकार नहीं हो सकता, कश्मीर भारतवर्ष का नंदन वन है।’’

युवाओं की बदलती सोच पर भी उनकी व्यथा झलकती थी, भारतीयता से दूर होते जनमानस को भी लेकर उनके मन में पीड़ा थी और वह अपनी इस पीड़ा को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते थे। भारतीय संस्कृति की विशेषता को परिभाषित करते हुए वे कहते थे, ‘‘भारतीय जीवन तो त्याग प्रधान जीवन रहा है। एक साधु के सम्मुख जो कि केवल लंगोट लगाकर निकलता है, हम श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते है। हमारे जीवन का अधार भोग-स्वार्थ न होकर  प्रेम-त्याग तथा आत्मीयता रहा है। आज असुरों का जीवन ही हमारा आदर्श हो गया है, इसी कारण देश में दुःख -दैन्य का साम्राज्य दिखाई दे रहा है। नहीं तो जिस भारत ने आज तक दुनिया को भोजन दिया था, उसी को रोटी के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है’’। भारतीय जनमानस के मनोभाव के गिरते स्तर से वे अत्यंत निराश थे, एक प्राचीन गौरवशाली राष्ट्र का अपने मार्ग से भटक जाना उनको बहुत सालता था। उनकी मान्यता थी कि हमारे हर कर्म से देश, समाज और समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को  लाभ हो।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं।)