‘कोरोना महामारी से भारत की लड़ाई दुनिया के लिए विस्मय और प्रेरणा का विषय बन चुकी है’

राज्य का पहला कर्त्तव्य अपने नागरिकों के जीवन की रक्षा है, न कि अर्थव्यवस्था की चिंता। अर्थव्यवस्था का क्या है, यदि जीवन बचा तो इसे पुनः पटरी पर ले आया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस दृष्टिकोण ने उन्हें विश्व-नेता के रूप में संपूर्ण जगत में स्थापित किया है। इस एक दृष्टिकोण ने भारत की सदियों से चली आ रही उच्च एवं उदार मानवीय संस्कृति की पुनर्स्थापना करा दी। एक ओर जहाँ अमेरिका और इंग्लैंड जैसे अति विकसित देश इस भयावह आपदा-काल में भी आर्थिक हितों को सर्वोच्च वरीयता देते हुए देर से चेते, वहीं भारत का यह मानवीय दृष्टिकोण पूरी दुनिया के लिए एक बेजोड़ मिसाल बन गया है।

भारत अपनी विशाल-सघन जनसंख्या एवं सीमित संसाधनों के मध्य भी जिस दृढ़ता, साहस एवं संकल्प के साथ कोरोना महामारी से लड़ रहा है, वह पूरी दुनिया के लिए विस्मय, औत्सुक्य एवं गहन शोध का विषय है। अपितु उत्सुकता एवं शोध से अधिक आज यह यूरोप और अमेरिका के लिए अनुकरण और प्रेरणा का विषय बन चुका है।

भले ही नस्लीय दर्प एवं श्रेष्ठता-दंभ में पश्चिम का प्रशस्ति-गायन करने वाली पत्र-पत्रिकाएँ आज भी भारत को उन्हीं पुरानी स्थापनाओं और पूर्वाग्रहों से आकलित करें, पर उन्हें भी यह सच दिख रहा है कि कैसे अब भी भारत ने इस महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या हजारों में और मृतकों की संख्या सैकड़ों में समेट रखी  है! उन्हें यह सच पच नहीं रहा, इसलिए वे इस अवसर की ताक में आज भी खड़ी दिखाई देती हैं कि वे वही पुराना राग अलापें कि देखा हमने कहा था न कि प्रगति के तमाम आधुनिक एवं वैज्ञानिक दावों के बीच आज भी भारत अपने मूल चरित्र में  वही पुराना, अल्प विकसित, पिछड़ा एवं लाचार देश है।

बीबीसी आदि वामपंथी मानसिकता से ग्रस्त मीडिया संस्थानों में इसी निहितार्थ से समाचार दिखाए व परोसे भी जा रहे हैं। पर ज़मीनी सच्चाई बिलकुल अलग है। इस महामारी से निपटने में पश्चिमी समाज और वहाँ का जागरूक नेतृत्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। पश्चिमी ही क्यों, दुनिया के सभी मानव-प्रेमियों के लिए भारत का यह दृष्टिकोण मायने रखता है कि आर्थिक समृद्धि से अधिक महत्त्व मानव संसाधनों का है।

राज्य का पहला कर्त्तव्य अपने नागरिकों के जीवन की रक्षा है, न कि अर्थव्यवस्था की चिंता। अर्थव्यवस्था का क्या है, यदि जीवन बचा तो इसे पुनः पटरी पर ले आया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस दृष्टिकोण ने उन्हें विश्व-नेता के रूप में संपूर्ण जगत में स्थापित किया है। इस एक दृष्टिकोण ने भारत की सदियों से चली आ रही उच्च एवं उदार मानवीय संस्कृति की पुनर्स्थापना करा दी।

एक ओर जहाँ अमेरिका और इंग्लैंड जैसे अति विकसित देश इस भयावह आपदा-काल में भी आर्थिक हितों को सर्वोच्च वरीयता देते हुए देर से चेते, वहीं भारत का यह मानवीय दृष्टिकोण पूरी दुनिया के लिए एक बेजोड़ मिसाल बन गया है। बात केवल नीति और नीयत के स्तर पर ही प्रशंसनीय नहीं रही, बल्कि क्रियान्वयन के स्तर पर भी प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तमाम राज्य सरकारों ने पूरी चुस्ती एवं स्फूर्ति दिखलाई।

लंदन में कार्यरत भारतीय डॉक्टर  राजीव मिश्रा बताते हैं कि वे और उनका पूरा परिवार विगत 18 दिनों से कोरोना की चपेट में था। हाल ही में उससे उबरने के पश्चात उनका कहना है कि इंग्लैंड की सरकार ने मरीज़ों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। वहाँ की सरकार ने साफ-साफ कह दिया है कि ऐसी भयावह आपदा में वह लाचार है, बेबस है, चुपचाप मरीज़ों को इस बीमारी से लड़ता-मरता देखने के अलावा उसके पास और कोई विकल्प नहीं है। कोई अपनी मज़बूत प्रतिरोधात्मक क्षमता के बल पर इस संक्रमण से उबर पाए तो यह उसका भाग्य!

वे आगे कहते हैं कि भारत ने जिस समय से एयरपोर्ट पर यात्रियों की जाँच करना, कोरोंटाइन करना, उन्हें आइसोलेशन आदि में रखना शुरू कर दिया उस समय तो यूरोप और अमेरिका में जाँच आदि के नाम पर प्रारंभिक औपचारिकताएँ भी नहीं प्रारंभ की गईं थीं। सरकारें तो छोड़िए आकंठ भोग में डूबी कथित अनुशासित पश्चिमी सभ्यता को भी त्याग, संयम और अनुशासन की दिनचर्या अपनाने में लंबा वक्त लगा, जबकि भारत का बहुसंख्य समाज इसे अपनी सहज जीवन-शैली की तरह आत्मसात कर पाया।

भारत सरकार ने लॉकडाऊन की घोषणा भी सर्वथा उपयुक्त समय पर की। यदि चंद अवसरवादी राजनीतिक कुचक्रियों, ज़हरीली जमातों, सिरफ़िरे जत्थों ने जाने-अनजाने इसका उल्लंघन न किया होता तो अब तक इस महामारी पर लगभग पूरी तरह से अंकुश एवं नियंत्रण पा लिया गया होता। राजीव मिश्रा का कहना है कि कुछ लोग भारत में व्यर्थ ही टेस्टिंग का मुद्दा उछाल ओछी राजनीति का परिचय दे रहे हैं। ग़ौरतलब है कि वे स्वयं डॉक्टर हैं और वे कहते हैं कि  क्या गारंटी है कि टेस्टिंग के बाद इस महामारी से कोई व्यक्ति संक्रमित नहीं होगा?

सवाल है कि भारत जैसे सीमित चिकित्सकीय संसाधनों एवं विशाल जनसंख्या वाले देश में सरकार पहले संक्रमित लक्षणों वाले मरीजों का परीक्षण करे या एक-एक की टेस्टिंग करे? फिर भी सरकार ने अल्पावधि में कोरोना के परीक्षण के लिए टेस्टिंग लैब्स स्थापित किए, किट्स तैयार किए, पाँच सौ से लेकर हजार बेड्स वाले वैकल्पिक हॉस्पिटल्स तैयार किए। एक सरकार भला इतने कम समय में और क्या-क्या कर सकती है?

यह एक ऐसी महामारी है कि कोई भी सरकार अकेले दम पर इससे नहीं निपट सकती। अमेरिका, इटली, स्पेन, इंग्लैंड जैसे अपेक्षाकृत कम जनसंख्या वाले विकसित देशों की सरकारों ने भी इस महामारी के सामने हाथ खड़े कर दिए हैं। हालांकि भारत सरकार इस महामारी से निपटने के लिए अभी भी हर संभव प्रयास कर रही है, दिन-रात और लगातार कर रही है। आवश्यकता समाज के रूप में उसके प्रयासों को सफल बनाने की है। अपनी नागरिक जिम्मेदारियों के निर्वाह की है।

साभार : Republic TV

पुलिस-प्रशासन, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, चिकित्सक, नर्सिंग स्टाफ, वार्ड एवं सफाई योद्धाओं आदि ने इस संकट-काल में नर-सेवा, नारायण-सेवा का देव-दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनका प्रयास न केवल सराहनीय अपितु स्तुत्य है। उनके मनोबल को बढ़ाने की आवश्यकता है, न कि हतोत्साहित करने की। विभिन्न शहरों में उन पर होने वाले सुनियोजित हमले दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

जमातियों के कुकृत्यों की जितनी निंदा की जाय, उतनी कम है। यदि आज उन्हें संक्रामक मानवबम की संज्ञा दी जा रही है तो किसी को क्यों कर आपत्ति होनी चाहिए? इन जमातियों की कारगुजारियों का अनुमान इसी आँकड़े से लगाइए कि तमिलनाडु में 89 प्रतिशत, तेलांगना में 78 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश में 70 प्रतिशत, असम में 90 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 58 प्रतिशत, दिल्ली में 65 प्रतिशत संक्रमित मरीज जमाती हैं।

पुलिस-प्रशासन तो इतनी बड़ी संख्या में जमातियों द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में कोरोना फैलाए जाने के पीछे के षड्यंत्रों की सघन जाँच और दोषियों के ख़िलाफ़ आवश्यक कार्रवाई कर ही रही है। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि समाज के हर तबक़े से ऐसे कार्यों की निंदा और भर्त्सना के चतुर्दिक स्वरों की गूँज सुनाई देनी चाहिए, केवल सलमान ख़ान जैसे इक्का-दुक्का स्वर नहीं, बल्कि मज़हब की संकीर्णताओं और संकुचितताओं से ऊपर उठकर तमाम मौलवियों, इमामों, सेकुलरिज़्म के झंडेबरदारों को समवेत स्वर में इसकी घोर निंदा करनी चाहिए। अन्यथा समाज में विभाजन की ऐसी रेखा खिंच जाएगी जिसे पाटना कठिन होगा।

तमाम राजनीतिक दलों को भी निहित स्वार्थों एवं वोट-बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर एक स्वर में ऐसे कृत्यों की निंदा करनी चाहिए। उनसे अपील करनी चाहिए कि महामारी हिंदू या मुसलमान नहीं देखती? क्या अच्छा नहीं होता कि राहुल गाँधी अपने हालिया एक घण्टे के वक्तव्य में तबलीगियों के इन कुकृत्यों पर भी दो शब्द बोलते? इंदौर, कानपुर,  मुरादाबाद, गाज़ियाबाद,  आदि में तबलीगियों एवं वर्ग विशेष द्वारा किए गए हमले और हंगामे की आलोचना करते?

भारतीय राजनीति कब परिपक्व होगी? कब वह राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर एक साथ खड़ी दिखेगी? क्या मोदी विरोध के अंधत्व में हर अनुचित को उचित ठहराया जाना उपयुक्त एवं कल्याणकारी है?

यह समय सभी प्रकार के धार्मिक, राजनीतिक, वैचारिक मतभेदों, पूर्वाग्रहों, धारणाओं को भुलाकर साथ आने का है। अभी प्रत्येक भारतवासी का एक ही लक्ष्य और  एक ही धर्म होना चाहिए, वह यह कि कोरोना के संक्रमण का वाहक बनने से स्वयं बचना और दूसरों को भी बचाना। एक बार इससे उबर जाने के पश्चात हम संपूर्ण राष्ट्र के सामूहिक संकल्प एवं सहयोग के बल पर भूख, ग़रीबी अभाव आदि पर भी निश्चित विजय प्राप्त करेंगें।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)