इतिहास को सुधारने-संवारने की पहल

विचार करें तो मौजूदा समय में शिक्षण-संस्थओं में जो इतिहास का पाठ्यक्रम शामिल है उनमें से अधिकांश तथ्यहीन, आधारहीन और कपोल-कल्पित हैं। इतिहास के कालखंड को लेकर भी स्पष्ट प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव है। गौर करें तो मौजूदा समय में जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसमें प्राचीन और आधुनिक इतिहास का हिस्सा कम है जबकि मध्यकालीन इतिहास विशेष रुप से मुगल और दूसरे आक्रांता शासकों का हिस्सा ज्यादा है। गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान विदुषियों का उल्लेख तक नहीं है।

यह स्वागतयोग्य है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाए जा रहे भ्रामक एवं गैर-ऐतिहासिक तथ्यों को हटाकर इतिहास को संवारने-सहेजने का मन बना लिया है। इस पहल से देश की नई पीढ़ी को सही और तथ्यात्मक इतिहास पढ़ने का मौका मिलेगा तथा साथ ही देश की महान विभूतियों के बारे में गढ़े-बुने गए भ्रामक तथ्यों को दुरुस्त कर सही तथ्यों व घटनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने में मदद मिलेगी। समिति का स्पष्ट मानना है कि पाठ्यक्रम का विषय-वस्तु एकपक्षीय न होकर पूरी तरह तथ्यपरक होनी चाहिए। 

विचार करें तो मौजूदा समय में शिक्षण-संस्थओं में जो इतिहास का पाठ्यक्रम शामिल है उनमें से अधिकांश तथ्यहीन, आधारहीन और कपोल-कल्पित हैं। इतिहास के कालखंड को लेकर भी स्पष्ट प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव है। गौर करें तो मौजूदा समय में जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसमें प्राचीन और आधुनिक इतिहास का हिस्सा कम है जबकि मध्यकालीन इतिहास विशेष रुप से मुगल और दूसरे आक्रांता शासकों का हिस्सा ज्यादा है। गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान विदुषियों का उल्लेख तक नहीं है।

दूसरी ओर रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेन्नमा, झलकारी बाई जैसी महान ऐहितहासिक महिला नायकों को पाठ्यक्रम में उचित स्थान नहीं मिला है। यह स्थिति विकृत इतिहास लेखन को ही रेखांकित करती है। अच्छी बात है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करते हुए स्कूली पाठ्यक्रम के तथ्यों व रुपरेखा को सहेजन व सुधारने के लिए देश भर के शिक्षाविदों और छात्रों से सुझाव आमंत्रित किए हैं। 

महान लेखक और राजनीतिज्ञ सिसरो ने इतिहास के बारे में कहा था कि इतिहास समय के व्यतीत होने का साक्षी होता है। वह वास्तविकताओं को रोशन करता है और स्मृतियों को जिंदा रखता है। प्राचीन काल की खबरों के जरिए भविष्य का मार्गदर्शन करता है। लेकिन जब भी पूर्वाग्रह होकर इतिहास का लेखन किया जाता है उसमें विजित की संस्कृति, सभ्यता और गरिमापूर्ण इतिहास के साथ छल होता है। 

अंग्रेज और भारत के मार्क्सवादी इतिहासकार भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। उनका सदैव प्रयास रहा है कि भारतीयों को ऐसा इतिहास दिया जाए जिससे उनमें अपने प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, आदर्श और मूल्यों के प्रति नैराश्य और घृणा का भाव उत्पन हो। संभवतः इसी उद्देश्य से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की गौरव-गाथा को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया। हालांकि आजादी के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेंद्र प्रसाद के प्रयास से शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारतीय इतिहास को सुधारने की दृष्टि से एक कमेटी आहुत की गयी। लेकिन चूंकि कमेटी में अधिकांश सदस्य मैकाले के ही मानस पुत्र थे लिहाजा उनका इतिहास सुधारने का प्रयास निष्फल साबित हुआ। 

आज देश जानना चाहता है कि औपनिवेशिक गुलामी और शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह किस तरह क्रांतिकारी आतंकवादी थे और इतिहास का यह विकृतिकरण किस तरह विद्यार्थियों के लिए पठनीय है। याद होगा गत वर्ष पहले देश के जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा और मृदुला मुखर्जी की किताब में शहीद भगत सिंह को कथित रुप से क्रांतिकारी आतंकवादी उद्घृत किया गया था जो न सिर्फ एक महान क्रांतिकारी का अपमान भर है बल्कि विकृत इतिहास लेखन की परंपरा का एक शर्मनाक बानगी भी है। 

कोई भी इतिहासकार या विचारक अपने युग की उपज होता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी लेखनी से कालखंड की सच्चाई को ईमानदारी से दुनिया के सामने रखे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकार भारतीय इतिहास लेखन की मूल चेतना को नष्ट किया और भारतीय इतिहास के सच की हत्या की। अगर भारतीय चेतना व मानस को समझकर चैतन्य के प्रकाश में इतिहास लिखा गया होता तो उसमें भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी, शिवाजी को पहाड़ी चूहिया और चंद्रगुप्त मौर्य की सेना को डाकुओं का गिरोह नहीं लिखा जाता। 

सच यह भी है कि अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास के सच को सामने लाने के बजाए अनगिनत मनगढंत निष्कर्ष पैदा किए। उसकी कुछ बानगी इस तरह है- रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथ मिथक हैं। प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राजवंशावलियां तथा राजाओं की शासन अवधियां अतिरंजित होने से अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय हैं। प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक लेखन क्षमता का अभाव रहा। भारत के प्राचीन विद्वानों के पास कालगणना की कोई निश्चित तथा ठोस विधा कभी नहीं रही। भारत का शासन समग्र रुप में एक केंद्रीय सत्ता के अधीन अंग्रेजी शासन से आने से पूर्व कभी नहीं रहा। आर्यों ने भारत में बाहर से आकर यहां के पूर्व निवासियों केा युद्धों में हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगों को अपना दास बनाया। भारत के इतिहास की सही तिथियां भारत से नहीं विदेशों से मिली। भारत में विशुद्ध इतिहास अध्ययन के लिए सामग्रियां बहुत कम मात्रा में सुलभ रही। भारत के इतिहास की प्राचीनतम सीमा 2500-3000 ईसा पूर्व तक रही। भारत के मूल निवासी द्रविड़ हैं। यूरोपवासी आर्यवंशी हैं। सरस्वती नदी का अस्तित्व नहीं है। 

इस तरह के और भी अन्य-अनेक मनगढ़ंत कपोल-कल्पित विचारों को आकार देकर उन्होंने भारत के इतिहास व साहित्य को नकारने की कोशिश की। दरअसल इस खेल के पीछे का मकसद भारतीयों में हीनता की भावना पैदा करना था। गौर करें तो विलियम कैरे, अलेक्जेंडर डफ, जाॅन मुअर, और चाल्र्स ग्रांट जैसे इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को अंधकारग्रस्त और हिंदू धर्म को पाखंड और झूठ का पर्याय कहा। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक और ईसाई धर्म को बढ़ावा देने वाले मैकाले ने तो यहां तक कहा कि भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य का मुकाबला करने के लिए एक अच्छे यूरोपिय पुस्तकालय की एक आलमारी ही काफी है। 

1834 में भारत के शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकाले ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए बनायी अपनी नीति के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र लिखा जिसमें कहा कि मेरी बनायी शिक्षा पद्धति से भारत में यदि शिक्षा क्रम चलता रहा तो आगामी 30 वर्षों में एक भी आस्थावान हिंदू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बन जाएंगे या नाम मात्र के हिंदू रह जाएंगे। समझा जा सकता है कि इतिहास लेखन की आड़ में अंग्रेजी इतिहासकारों के मन में क्या चल रहा था। 

गौर करें तो इन डेढ़ सौ सालों में इतिहास लेखन की मुख्यतः चार विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी और सबलटर्न। साम्राज्यवादी इतिहासकारों की जमात भारत में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के रुप में कभी भी उपनिवेशवाद के स्वरुप को स्वीकार नहीं की। उनका इतिहास लेखन और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का विश्लेषण मूलतः भारतीय जनता और उपनिवेशवाद के आपसी हितों के आधारभूत अंतरविरोधों के अस्वीकार्यता पर टिका है। इतिहासकारों का यह खेमा कतई मानने को तैयार नहीं कि भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में था। उनके मुताबिक जिसे भारत कहा जाता है, वह वास्तव में विभिन्न धर्मों, समुदायों और जातियों के अलग-अलग हितों का समुच्चय था। 

दूसरी ओर राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की जमात में शामिल इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन में जनता की भागीदारी को प्रभावकारी माना। मार्क्सवादी इतिहास लेखन की धारा भारतीय राष्ट्रवाद के वर्गीय चरित्र का विश्लेषण और उसकी व्याख्या उपनिवेश काल के आर्थिक विकासक्रमों के आधार पर करने की कोशिश कर भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण कालखंड को मलीन करने की कोशिश की। इन इतिहासकारों ने राष्ट्रवाद की प्रबल भावना को नजरअंदाज करते हुए एक साजिश के तहत भारतीय समाज को ही वर्गीय खांचे में फिट कर दिया। 

भारत के लिए आघातकारी रहा कि आजादी के उपरांत इतिहास लेखन की जिम्मेदारी मार्क्सवादी इतिहासकारों को सौंपी गयी और वे ब्रिटिश इतिहासकारों के कपटपूर्ण आभामंडल की परिधि से बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने अंग्रेजों की तरह ही भारतीय इतिहास की एकांगी व्याख्या कर भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की कोशिश की। अंग्रेजों की तरह उनकी भी दिलचस्पी भारत के राष्ट्रीय गौरव को खत्म करने की रही। 

आज आधुनिक भारत का पूरा इतिहास लेखन ही मार्क्सवादी इतिहास लेखन है। यह उचित है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने इतिहास में व्याप्त भ्रामक, कपोल-कल्पित तथ्यों एवं आधारहीन घटनाओं को हटाने और कालखंडो को सही क्रम में संवारने का मन बना लिया है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)