क्या प्रियंका का राजनीति में आना राहुल की विफलता पर मुहर है?

राहुल गांधी आगामी चुनाव के लिए कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद का चेहरा हैं, लेकिन यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि अगर राहुल इतने करिश्माई  होते तो बहन को चुनाव से पहले सामने लाने की नौबत ही नहीं आती। प्रियंका की एंट्री का मतलब है कि कांग्रेस ने मान लिया है कि लोकसभा चुनाव राहुल के बस की बात नहीं।

इन दिनों टीवी स्टूडियोज में एंकर और कांग्रेस के प्रवक्ता बड़े प्रसन्नचित्त हैं कि कांग्रेस के खानदान से एक और सदस्य ने राजनीति में एंट्री मार ली है। कांग्रेसी प्रवक्ताओं को ऐसा उत्साह है  जैसे इससे कांग्रेस की सारी समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी। पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने सोनिया गांधी की बेटी और उत्तर प्रदेश के व्यवसायी रोबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका वाड्रा गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपने का ऐलान किया। इसे कांग्रेस अपने लिए तुरुप का इक्का मान रही है। लेकिन क्या वाकई इससे कांग्रेस की किस्मत बदल जाएगी?

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यह समझने से पहले देखना होगा कि आखिर प्रियंका गांधी की राजनीतिक उपलब्धि क्या है? कहा जा रहा कि प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की तरह नहीं बल्कि अपनी अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह हुबहू दिखती हैं। यह एक जेनेटिक विशेषता है। लेकिन इसे ऐसे बताया जा रहा जैसे कोई बड़ी उपलब्धि हो।

राहुल गांधी में भी लोगों को राजीव गांधी का अक्स नज़र आता है। राहुल गांधी भी पिछले 10 साल से सियासत में हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि उन्हें भी अपने पिता के तरह वायुयान उड़ाना आता होगा। पायलट बनने के लिए विशेष ट्रेनिंग की ज़रुरत होती है। ऐसे में उन्हें अगर हवाई जहाज़ चलाने को दे दिया जाए तो नतीजा क्या होगा, आप सोच हो सकते हैं।

इस देश में 70 फीसद आबादी ऐसे युवाओं की है, जिनकी उम्र 40 वर्ष से कम है। 40 वर्ष से कम उम्र के युवाओं ने इंदिरा गांधी को नहीं देखा होगा या देखा भी होगा तो उनकी याद्दाश्त में धुंधली-सी तस्वीर होगी। ऐसे में अगर प्रियंका को तुलना की जमीन पर उनकी दादी इंदिरा के सामने खड़ा कर दिया जाए तो उसका सबसे बड़ा नुकसान प्रियंका को ही होगा।

मगर फिर भी जाने किस जोश में ऐसा ही किया जा रहा। कांग्रेस चाहें जो समझाने की कोशिश करे, लेकिन आज लोगों के लिए प्रियंका गांधी के राजनीति में आगमन का मलतब राहुल की ही तरह एक और नेहरू-गांधी परिवार के व्यक्ति का सियासत में आना भर है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।

प्रियंका गांधी पूर्वी उत्तर प्रदेश में अगर बहुत ज्यादा चुनावी अभियान चलाती हैं तो दलित महिलाओं पर इसका कुछ असर होने की संभावना है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि दलित महिलाओं को सबसे आगे मायावती दिखाई देती हैं, जिनकी राजनीति का आधार जातिगत वोटबैंक ही है। तिसपर जितना कम वक़्त प्रियंका वाड्रा के पास है, उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन को नाप पाना भी आसान नहीं है।

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अभी तक प्रियंका गांधी अपनी मां और भाई के पीछे रहकर राजनीति करती थीं। सवाल है कि क्या उनके सक्रिय सियासत में आने से काग्रेस के राजनीतिक हालातों की हकीकत बदल जाएगी? अभी उनके अचानक सियासत में आने के पीछे सबसे बड़ी वजह है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को किनारे कर दिया है। आप यह भी कह सकते हैं कि दोनों पार्टियों ने कांग्रेस को गठबंधन के काबिल ही नहीं समझा।

दोनों पार्टियां 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं और कांग्रेस के लिए इन दोनों राजनीतिक दलों ने महज दो सीटें छोड़ी हैं – अमेठी और राय बरेली, जहां से राहुल और सोनिया गांधी चुनाव लड़ते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस ने प्रियंका के रूप में अपना बड़ा दाँव चला है, लेकिन आज जो हालात हैं, उसे देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि प्रियंका मौजूदा वक़्त में चुनावी समीकरण को बदल पाने की स्थिति में हैं।

राहुल गांधी आगामी चुनाव के लिए कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद का चेहरा हैं, लेकिन यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि अगर राहुल इतने करिश्माई  होते तो बहन को चुनाव से पहले सामने लाने की नौबत ही नहीं आती। प्रियंका की एंट्री का मतलब है कि कांग्रेस ने मान लिया है कि लोकसभा चुनाव राहुल के बस की बात नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)