पूरी दुनिया के इस्लामिक स्टेट होने से आपको फर्क नहीं पड़ता होगा मिस्टर सेकुलर, पर हमें पड़ता है!

एजेंडा के तहत रिपोर्टिंग करने वाले चैनलों और बुद्धिजीवियों की दृष्टि में कैराना से हिंदुओं का बड़ी संख्या में पलायन  यथार्थ न होकर राजनीतिक चाल थी, वोट बटोरने का जरिया था। ऐसे पत्रकारों-बुद्धिजीवियों से सबसे पहले मेरे कुछ सवाल हैं:

1. क्या भारत-पाक विभाजन भी एक राजनीति थी! क्या केवल राजनीति के कारण ही मज़हब के आधार पर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को समुदाय-विशेष का व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ था? क्या जिन्ना केवल राजनीतिक कुशलता के बल पर रातों-रात नायक बने थे,या समुदाय विशेष की सामुदायिक अस्मिता को उभारकर?

2. अखंड भारत की भौगोलिक स्थिति तथा जनसंख्या-अनुपात में बदलाव राजनीतिक कारणों से हुआ था?

3. जिन्ना की अपील के बावज़ूद पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं की क्या दशा हुई? आज़ादी के बाद उनकी क्या स्थिति थी और आज क्या है? क्या यह भी राजनीति की देन है?

4. भारत की मदद से बने बांग्लादेश में आज अल्पसंख्यकों के क्या हालात हैं? उदारवादियों पर होने वाले हमले क्या राजनीति की देन हैं?

5. दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर होने वाला नरसंहार, रोज कुकुरमुत्ते की तरह उगते नए-नए इस्लामिक आतंकवादी संगठन क्या केवल राजनीति की देन हैं?

6. कश्मीरी पण्डितों का घाटी से पलायन और बढ़ती अलगाववादी प्रवृत्तियाँ क्या केवल राजनीतिक घटनाक्रम हैं?

7. देश के विभिन्न हिस्सों में इस्लामिक पॉकेट्स का निर्माण और वहाँ चलने वाले तमाम अवैध गोरखधंधे की वज़ह क्या केवल राजनीतिक है?

8. कहाँ गए मंगोल, पारसी और अन्य मध्य एशियाई मूल के लोग? क्या वे राजनीतिक कारणों से मिट गए?

एक बार कुछ तथाकथित सेकुलर पत्रकारों ने मेरे एक सवाल के जवाब में मुझसे पूछा था कि यदि पूरी दुनिया ही इस्लामिक हो जाएगी तो क्या फ़र्क पड़ेगा? तब मैं छोटा था, जवाब नहीं था मेरे पास! लेकिन आज कह सकता हूँ कि फ़र्क पड़ता है, मेरी आज़ादी पर, मेरी अभिव्यक्ति पर, मेरी वेश-भूषा से लेकर खान-पान तक के निजी विषयों पर; फर्क पड़ता है, क्योंकि इस्लामिक दुनिया में अचानक मुझसे मेरी सदियों की विरासत को छीन कहा जाएगा कि इस्लाम को अपनाओ या मौत को गले लगाओ। फ़र्क इसलिए भी पड़ता है क्योंकि मुझे अपनी बौद्धिक-वैयक्तिक स्वतंत्र सत्ता प्राणों से भी अधिक प्यारी है! फ़र्क पड़ता है, क्योंकि पूरी दुनिया यदि इस्लामिक हो जाएगी तो रोज नए-नए फ़तवे ज़ारी किए जाएँगे, आचार-व्यवहार से लेकर ड्रेस-कोड तय किए जाएँगे! इसलिए आपको फ़र्क नहीं पड़ता तो न सही, मिस्टर सेकुलर! पर मुझे एकदम फर्क पड़ता है।

उत्तर आईने की तरह बिलकुल साफ़ है। दरअसल इस्लाम के अन्दर भारी संख्या में जो वहाबी सोच मौजूद है, उसका मूल चरित्र ही असहिष्णु, आक्रामक और विस्तारवादी है। उसमें ऐसे बीज-तत्त्व मौजूद हैं, जो दूसरों के साथ न तो घुलते-मिलते है, न उन्हें स्वतंत्र और शांतिपूर्ण तरीके से जीने देते हैं। वहाँ चिंतन और विचार की प्रक्रिया लगभग 1400 वर्ष पूर्व ही ठहर-सी गई है। मध्य कालीन बर्बरता और कबीलाई मानसिकता से आगे बढ़कर बदली हुई परिस्थितियों और आधुनिक सभ्य-शिष्ट समाज के अनुसार वे स्वयं को बदलने को तैयार नहीं हैं! वे आज भी छठी शताब्दी में ही जी रहे हैं। एक ओर जहाँ इस्लामिक जिहाद के नाम पर रोज एक आतंकवादी संगठन अस्तित्व में आता है, वहीं दूसरी ओर इस्लाम के बड़े-बड़े स्कॉलरों को भी सर्वसमावेशी-सर्वस्वीकार्य इस्लामिक सुधारवादी आंदोलनों व सुधारकों के नाम शायद ही याद हों! कुछ आंदोलन और सुधारक हुए भी तो वे कालांतर में इस्लामिक कट्टरता या चरमपंथ के शिकार हो गए। तुर्की और इंडोनेशिया का उदाहरण लिया जा सकता है। मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने आधुनिक तुर्की की उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष बुनियाद रखी थी, इंडोनेशिया भी सांस्कृतिक स्तर पर सनातनी भारत के निकट रहा है, पर आज वहाँ भी चरमपंथ अपने जोरों पर है। सवाल है कि इस स्पष्ट वास्तविकता को हमारे देश के चिंतक-विचारक-बुद्धिजीवी या सिविल सोसाइटी के लोग क्यों नहीं देख और समझ पा रहे हैं? इसके प्रमुख कारण है – छद्म धर्मनिरपेक्षता, वोट-बैंक पॉलिटिक्स, बौद्धिक बेईमानी, कायरतापूर्ण तटस्थता, आडंबरी मानसिकता और धर्मनिरपेक्ष दिखने-दिखाने की मजबूरी या चालाकी।  

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साभार: गूगल

एक बार कुछ वरिष्ठ और तथाकथित सेकुलर पत्रकारों ने मेरे एक सवाल के जवाब में मुझसे पूछा था कि यदि पूरी दुनिया ही इस्लामिक हो जाएगी तो क्या फ़र्क पड़ेगा? तब मैं छोटा था, जवाब नहीं था मेरे पास! लेकिन आज कह सकता हूँ कि फ़र्क पड़ता है, मेरी आज़ादी पर, मेरी अभिव्यक्ति पर, मेरी वेश-भूषा से लेकर खान-पान तक के निजी विषयों पर; फर्क पड़ता है, क्योंकि इस्लामिक दुनिया में अचानक मुझसे मेरी सदियों की विरासत को छीन कहा जाएगा कि इस्लाम को अपनाओ या मौत को गले लगाओ। फ़र्क इसलिए भी पड़ता है क्योंकि मुझे अपनी बौद्धिक-वैयक्तिक स्वतंत्र सत्ता प्राणों से भी अधिक प्यारी है! फ़र्क पड़ता है, क्योंकि पूरी दुनिया यदि इस्लामिक हो जाएगी तो रोज नए-नए फ़तवे ज़ारी किए जाएँगे, आचार-व्यवहार से लेकर ड्रेस-कोड तय किए जाएँगे! रोज एक मलाला, एक तस्लीमा कट्टरपंथ-चरमपंथ का शिकार होगी! रोज एक ओसामा, एक बग़दादी, एक हाफिज सईद पैदा होगा और कहेगा कि तुम्हारे बाप-दादाओं ने जो सिखाया वह ग़लत था, बेबुनियाद था, हम जो कह रहे हैं वही सच्चा ईमान है, धर्म है, उसी पर चलना पड़ेगा, वरना मार दिए जाओगे! हम किसी भी सूरत में भेड़-बकरियों की तरह हाँके जाना पसंद नहीं करते, न करेंगे, हम जीना चाहते हैं- इंसान की तरह! इसलिए आपको फ़र्क नहीं पड़ता तो न सही, मिस्टर सेकुलर! पर मुझे एकदम फर्क पड़ता है।

अब मुद्दा यह है कि यदि समस्या इस्लाम में है तो उपचार क्या है? तो पहला उपचार तो यह है कि रोग को पहचानकर उसके मूल तक पहुँचा जाय। यानी इस्लाम के आपत्तिजनक पहलुओं पर खुलकर बात की जाय, विमर्श हो! सह-अस्तित्व और  वैश्विक शांति के लिए इस्लाम के भीतर सुधारवादी आंदोलन चलाए जाएँ, उसके अनुयायियों, स्कॉलरों द्वारा वैज्ञानिक और युगीन सोच को प्रश्रय व प्रोत्साहन दिया जाय और इधर जो दूसरे धर्म-विचार हैं, उन्हें इस्लामिक विस्तारवाद एवं कट्टरता के विरुद्ध सचेत और एकजुट किया जाय।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)