जनमत संग्रह का ऐलान यानी संविधान का अपमान…

उमेश चतुर्वेदी

भारतीय समाज में आम मान्यता है कि सबसे बेहतरीन प्रतिभाएं ही सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर पाती हैं। इन अर्थों में देखा जाय तो imagesदिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी भारतीय मान्यता के मुताबिक बेहतरीन प्रतिभा हैं। लेकिन सिविल सेवा की परीक्षा पास करने के बाद राजस्व सेवा की नौकरी में रहे अरविंद केजरीवाल जिस तरह के कदम उठाने का ऐलान कर रहे हैं, उससे उनकी समझदारी पर ही सवाल उठ रहे हैं। केजरीवाल देशभक्त और संविधानभक्त होने का दावा भी वे खूब करते हैं। लेकिन जिस तरह उन्होंने ब्रिटेन की तर्ज पर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के मसले पर जनमत संग्रह कराने का ऐलान किया है, उससे भी लगता है कि केजरीवाल ना सिर्फ संविधान का मजाक उड़ा रहे हैं, बल्कि उसकी मर्यादाओं के बाहर जा रहे हैं। दिल्ली में जनमत संग्रह कराने के उनके फैसले से यह भी संकेत जा रहा है कि संविधान के पालन की जो शपथ बतौर दिल्ली के मुख्यमंत्री उन्होंने ली है, उसकी भी खुली अवहेलना कर रहे हैं। उनकी अवहेलना का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आमतौर पर अदालतों में केजरीवाल का पक्ष रखने और उनकी पैरवी करने वाले जाने-माने वकील और संविधानवेत्ता केटीएस तुलसी तक ने उन पर हमला बोला है। केटीएस तुलसी ने कहा है कि केजरीवाल जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, वह संसदीय राजनीति के लिए खतरनाक है।

भारतीय संविधान के सामान्य विद्यार्थी तक को समझ है कि भारतीय संविधान में दोहरी नागरिकता और जनमत संग्रह का प्रावधान नहीं है, ऐसे में यह मान लेना कि अरविंद केजरीवाल को इसकी जानकारी नहीं होगी, गलत होगा। फिर भी अरविंद केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर जनमत संग्रह कराने का ऐलान करते हैं तो इसका सीधा मायने यही निकाला जाएगा कि वे उस संविधान को एक किनारे पर रखना चाहते हैं, जिसके प्रावधानों के पालन की उन्होंने शपथ ले रखी है। अगर उन्हें लगता है कि जनमत संग्रह होना ही चाहिए तो इसके लिए दो राह हो सकती है। पहली यह कि वे उस संविधान के दायरे से पहले खुद को बाहर करें, जिसकी शपथ उन्होंने ले रखी है। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें सिर्फ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहिए, बल्कि उन्हें विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा देना होगा। क्योंकि देश का हर विधायक और सांसद अपनी सदस्यता की शपथ लेते वक्त संविधान की शपथ लेता है। फिर इस मांग को लेकर उन्हें देशव्यापी जनजागरण चलाना होगा। उन्हें ठीक वैसे ही आंदोलन की राह चुननी होगी, जैसे उन्होंने अन्ना के बहाने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था। यह बात और है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस बार उन्हें अन्ना के आंदोलन जैसा समर्थन हासिल हो जाए। दूसरी राह यह हो सकती है कि अरविंद केजरीवाल संविधान में जनमत संग्रह का प्रावधान शामिल कराने के लिए अभियान चलाएं। चूंकि यह अहम संवैधानिक संशोधन से जुड़ा मसला है, लिहाजा इस संशोधन के लिए भारतीय संविधान के प्रावधानों के मुताबिक संसद के दोनों सदनों के अलग-अलग दो तिहाई बहुमत से इसे पारित कराना होगा, बल्कि आधे से ज्यादा विधानसभाओं से भी इस प्रावधान को मंजूरी दिलानी होगी।

ब्रिटेन का संविधान लिखित नहीं है। वह ज्यादातर परंपराओं पर चलता है। इस लिहाज से वहां  यूरोपीय संघ से बाहर निकलने को लेकर जो जनमत संग्रह हुआ, उसका फैसला वहां की डेविड कैमरन की अगुआई वाली केंद्रीय सरकार ने लिया था, जो वहां की संप्रभु संसद के प्रति जवाबदेह है। यह केजरीवाल की बुद्धि की बलिहारी ही कही जाएगी कि उन्होंने अपनी तुलना एक संप्रभु संसद के प्रति जवाबदेह सरकार से कर ली। भारतीय संविधान के मुताबिक संसद संप्रभु है और उसके प्रति नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार ही जवाबदेह है। अगर जनमत संग्रह जैसा उसे कोई फैसला लेना ही होगा तो मोदी की अगुआई वाली सरकार ही संसद से अनुरोध कर सकती है। जहां तक केजरीवाल सरकार की बात है तो वह तो पूरी तरह से एक स्वायत्त विधानसभा के भी प्रति जवाबदेह नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य अधिनियम 2003 के मुताबिक दिल्ली की विधानसभा के पास अधिकार बाकी उत्तर प्रदेश,बिहार समेत बाकी तीस राज्यों की विधानसभाओं जैसे नहीं हैं। इस कानून के मुताबिक दिल्ली की विधानसभा को राज्य सूची की प्रविष्टि संख्या 1, 2 और 18 को छोड़कर बाकी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। राज्य सूची के एक, दो और 18 नंबर की परिशिष्ट में लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि व्यवस्था पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों को दिया गया है। दिल्ली राज्य कानून के मुताबिक दिल्ली विधानसभा को अपने व्यय और प्राप्तियों पर कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन इसके लिए भी राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी जरूरी है। जाहिर है कि जिस विधानसभा के प्रति केजरीवाल सरकार उत्तरदायी है, उसके पास ही समुचित अधिकार नहीं हैं तो फिर केजरीवाल उस सीमा से बाहर जाकर आखिर नए-नए काम करने की घोषणाएं करते ही क्यों हैं?  

केजरीवाल के कुछ समर्थक उनकी तुलना जयप्रकाश नारायण से भी करते हैं। जयप्रकाश आंदोलन से उभरे लालू और नीतीश तो इन दिनों उनके प्रमुख राजनीतिक सहयोगी हैं। जयप्रकाश को भी तब अराजकतावादी कहा गया था, जब उन्होंने 1974-75 में पुलिस और सेना से भारत सरकार के असंवैधानिक आदेशों को मानने से इनकार करने की अपील की थी। इंदिरा गांधी की सरकार ने तब उन्हें घोर अराजक बताया था। लेकिन केजरीवाल की जयप्रकाश से तुलना करने वाले यह भूल जाते हैं कि जयप्रकाश ने असंवैधानिकता का विरोध करने की अपील की थी, संविधान से बाहर निकलकर अराजक होने की नहीं। जबकि केजरीवाल के मौजूदा विचार में संविधान से बाहर निकलकर अराजक होने की बू नजर आती है। केजरीवाल आए दिन दिल्ली के कानूनों को रोकने, संसदीय सचिवों पर मामला दर्ज होने, कानूनी प्रावधानों के तहत उपराज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा कानूनों को रोकने को लेकर मोदी सरकार पर सवाल उठाते रहते हैं। दरअसल भारी बहुमत के नशे में डूबे केजरीवाल पहले और उनकी सरकार पहले असंवैधानिक तरीके से कदम उठाती है और अधिनियम पास कराती है और जब कानूनी दायरे के तहत उन पर रोक लगाई जाती है तो वे मोदी सरकार को निशाने पर लेने लगते हैं। दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से वे मिलने गए थे तो राष्ट्रपति ने उन्हें संविधान की प्रति भेंट में दी थी। उसका संकेत साफ था कि भविष्य में उन्हें संविधान के दायरे में ही काम करना होगा। लेकिन केजरीवाल ने उस संकेत और संदेश को ही नकार दिया। अगर नकारा नहीं होता तो उपराज्यपाल को विधानसभा द्वारा समन करने की अनुगूंज नहीं सुनी जाती।

अब एक सवाल यह भी उठता है कि क्या दिल्ली सरकार के सीमित अधिकारों और उसके दायरे की जानकारी केजरीवाल को पहले नहीं थी। निश्चित तौर पर उन्हें पहले भी थी । उन्हें यह भी पता था कि चुनावी जीत हासिल होने के बाद उन्हें सीमित अधिकारों और दायरे में ही काम करने की आजादी होगी। चूंकि उन्हें जीत हासिल हो चुकी है, लिहाजा उन्हें सीमित अधिकारों और दायरे में ही काम करने की आदत डाल लेनी चाहिए थी। अगर उन्हें यह सीमित दायरा नापसंद था तो उन्हें सरकार में खुद शामिल होने की बजाय दायरा बढ़ाने के लिए आंदोलन करना चाहिए था। लेकिन इसके लिए उन्हें पद की संवैधानिकता से बाहर निकलना चाहिए था। लेकिन केजरीवाल ऐसे आंदोलनकारी बने रहना चाहते हैं, जो पद पर भी रहे, संविधान की शपथ भी ले और संविधान की खुली अवहेलना भी करे। इससे उनका कद ही घटता है, उनकी साख पर ही सवाल उठता है।

(लेखक नेशनलिस्ट ऑन लाइन की  सलाहकार समिति के सदस्य हैं )