जेएनयू चुनाव: वामगढ़ में हिली वामपंथियों की जमीन

यह आर-पार की लड़ाई है। महाभारत याद करिए। एक तरफ पांच पांडव, जिनके साथ केवल सत्य यानी नारायण, वह भी विरथ, हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा के साथ, और दूसरी तरफ, तमाम महारथी, अतिरथी, रथी एक साथ, भीषणतम हथियारों के साथ। इस बार का जेएनयू चुनाव भी कुछ ऐसा ही है। एक तरफ राष्ट्रवाद की ध्वजा लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी ओर लफ्फाज़ एवं झूठे वामपंथियों का एका। मज़े की बात तो यह है कि कल तक एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाले, खुद को एकमात्र ‘कम्युनिस्ट’ बताने वाले आइसा और एसएफआइ के उम्मीदवार इस बार एक साथ मंच पर हैं। वजह एकमात्र यह नहीं है कि उन्हें जीतना है, डर बस यह है कि कहीं विद्यार्थी परिषद न जीत जाए। दरअसल, आइसा हो या एसएफआइ, इन्हें मक्कारी और दोमुहेपन की यह शिक्षा अपने पितृ-संगठनों से ही तो मिली है, तभी तो जिस छात्र-संगठन के दिग्गज छात्र-नेता चंद्रशेखर की हत्या राजद के शासनकाल में हुई, जिसका आरोप राजद के ही एक बाहुबली शहाबुद्दीन पर था, ये धूर्त वामपंथी सेकुलरवाद के नाम पर उसी राजद के सत्ता के पायों को सहलाते रहे।

मजे की बात देखिए कि जिस तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष को नीतीश कुमार, लालू यादव से लेकर डी राजा, केजरीवाल और राहुल गांधी तक ने अपना आशीर्वाद दिया, जो इनका पोस्टर ब्वॉय बना है, वही इस छात्रसंघ चुनाव से गायब है। पूरे देश में कुख्यात यह कॉमरेड अपनी पार्टी को अकेला लड़ाने लायक जेएनयू में नहीं बना पाया। यह तो खैर लोग भूल ही चुके हैं कि यह कॉमरेड पहले जेएनयू में ही लड़की के साथ छेड़खानी का भी अपराधी है और उसके एवज में दंड भी भुगत चुका है। दरअसल, राष्ट्रद्रोह और अलगाववाद वामपंथ की वह रक्तशिरा है, जिससे इसको प्राण मिलते हैं। जेएनयू इस विषबेल की एक शाखा मात्र है।

बिहार में जो प्रादेशिक स्तर पर है, पूरे देश में जो राष्ट्रीय स्तर पर है, उसी का नमूना ये कलंकी कम्युनिस्ट जेएनयू में दिखा रहे हैं। मकसद केवल एक है- राष्ट्रवाद की पराजय। आप ज़रा एक नमूना देखिए। बिहार में जो सरकार अभी है, उसके मुखिया कोर्ट द्वारा घोषित अपराधी और चुनाव लड़ने तक से वंचित लालू यादव हैं (नीतीश कुमार की बस मुहर भले ही लगती हो), उनके साथ वही कांग्रेस भी है, जिसने आपातकाल लगाया और जो सरकार जेपी आंदोलन के लोगों को पेंशन भी दे रही है और इस सरकार के समर्थन में कम्युनिस्ट भी खड़े हैं। वैचारिक विरोधाभास और दोमुहेंपन का इससे बेहतरीन उदाहरण कहीं और मिलेगा?

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दरअसल, भारतीय मार्क्सवादी एक बहुत बड़ी बीमारी से ग्रस्त हैं। वे भारत के कभी नहीं हुए। वैचारिक दोहरापन और राष्ट्रविरोधी उन्माद वो दो पैर हैं, जिन पर भारत का वामपंथ खड़ा है। आप ज़रा कल की एक तस्वीर याद कीजिए। हुर्रियत के भारत-विरोधी, अलगाववादी विषधरों के घर के आगे हाथ जोड़े डी राजा खड़े हैं, अपने प्रतिनिधिमंडल के साथ। इसी तस्वीर को थोड़ा पीछे ले जाइए, 9 फरवरी 2016 के जेएनयू की ओर। इसी दिन ‘भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी-जंग रहेगी..’, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह, इंशाल्लाह..’ के नारे लगे थे, जेएनयू में। परिषद के लोगों ने इसका विरोध किया, जिसके फलस्वरूप इन देशद्रोहियों की पहचान हुई। याद कीजिए, उस भीड़ में तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष भी था और डी राजा की बेटी भी। देशविरोधी और वामपंथी गठजोड़ का यह अभियान नया भी नहीं था, यह दशकों से ऐसे ही अभियान चलाता रहा है। जिस अफजल गुरु को शहीद बताकर उसके सम्मान में, देश के खिलाफ अपमानजनक नारे लगाए गए, वह कार्यक्रम भी ये कम्युनिस्ट तीन वर्षों से चला रहे हैं।

मजे की बात देखिए कि जिस तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष को नीतीश कुमार, लालू यादव से लेकर डी राजा, केजरीवाल और राहुल गांधी तक ने अपना आशीर्वाद दिया, जो इनका पोस्टर ब्वॉय बना है, वही इस छात्रसंघ चुनाव से गायब है। पूरे देश में कुख्यात यह कॉमरेड अपनी पार्टी को अकेला लड़ाने लायक जेएनयू में नहीं बना पाया। यह तो खैर लोग भूल ही चुके हैं कि यह कॉमरेड पहले जेएनयू में ही लड़की के साथ छेड़खानी का भी अपराधी है और उसके एवज में दंड भी भुगत चुका है। दरअसल, राष्ट्रद्रोह और अलगाववाद वामपंथ की वह रक्तशिरा है, जिससे इसको प्राण मिलते हैं। जेएनयू इस विषबेल की एक शाखा मात्र है।

इतिहास गवाह है कि सीपीआइ ने खुद को 1942 में आज़ादी के आंदोलन से दूर रखा। 1943-44 में इसके लख्ते-जिगर गंगाधर अधिकारी ने ही यह स्थापना रखी थी कि भारत 17 राष्ट्रीयताओं का समूह है, एक राष्ट्र नहीं है। गांधी को अंग्रेजों की कठपुतली और नेताजी को तोजो (तत्कालीन जापानी प्रधानमंत्री) की गोद का पिल्ला बतानेवाले यही वामपंथी 1947 में मिली आज़ादी को अधूरा बताकर उसका विरोध करते हैं। 1962 में चीन के चेयरमैन को अपना अध्यक्ष बताकर चीनी आक्रमण का समर्थन करते हैं, कश्मीर में अलगाववादियों के साथ हैं, पूरे देश में नक्सल आतंक का पर्याय हैं, तो उनके फ़रज़ंद भला पीछे क्यों रहेंगे?

वामपंथी ढकोसला और ढोंग ऐसा है कि आप बस हैरान होकर उंगली चबा जाएं। स्त्री समानता और विकास के नारे लगानेवाले इन मार्क्सवादियों के ‘अनमोल रतन’ ने हाल ही में जो कारनाम किया है, उससे कौन वाकिफ नहीं है? असल में स्त्री-सशक्तिकरण के मामले में तो आइसा इतनी धनी है कि इसकी पूरी कहानी लिखने में पूरी किताब ही बन जाए। मार्क्सवादी बात तो प्रजातंत्र की, समानता की करते हैं, लेकिन जितना आतंक, जितनी खूंरेजी, जितने नरसंहार इन्होंने किए हैं, उसका शायद ही कहीं कोई हवाला मिल सके। चालाक कम्युनिस्टों ने भारत में मार्क्स, लेनिन और अन्य वामपंथी विचारकों को पढ़ाने में भी ईमानदारी नहीं दिखाई। वामपंथ का पूरा सच भारत के कम्युनिस्टों ने कभी नहीं पढ़ाया। वामपंथ का सिर्फ एक और लोक-लुभावन चेहरा ही प्रस्तुत किया गया।

मार्क्सवाद के नाम पर परोसी गयी विचारधारा के पीछे छिपी अवैज्ञानिकता, अधिनायकवाद और हिंसक चेहरा कभी दिखाया नहीं गया। इससे वे हमेशा कन्नी काटते नजर आए। कम्युनिस्टों ने कभी नहीं पढ़ाया या स्वीकार किया कि रूस में लेनिन और स्टालिन, रूमानिया में चासेस्क्यू, पोलैंड में जारू जेलोस्की, हंगरी में ग्रांज, पूर्वी जर्मनी में होनेकर, चेकोस्लोवाकिया में ह्मूसांक, बुल्गारिया में जिकोव और चीन में माओ-त्से-तुंग ने किस तरह नरसंहार मचाया। इन अधिनायकों ने सैनिक शक्ति के जरिए, यातना-शिविरों में अगणित लोगों को किस तरह मौत के घाट उतारा। असंख्य व्यक्तियों को देश से निर्वासन देकर भारी आतंक का राज स्थापित किया। मार्क्सवादी मजहब के प्रमुख पैगंबरों में एक पोल पॉट ने कंबोडिया में भयानक नरसंहार किया, वहां की संस्कृति के विद्वानों को मौत के घाट उतार दिया गया। जंगलों और खेतों में उन्हें मार गिराया गया। स्टालिन के कारनामों से मार्क्सवाद का खूनी चेहरा जग-जाहिर हुआ।

अपने यहां केरल और बंगाल में वामपंथियों ने खून की वह होली खेली है, वह नंगा नाच किया है कि मानवता भी त्राहि-त्राहि कर उठी है। सच पूछिए, तो मार्क्सवाद का प्रपंच और पाखंड ऐसा और इतना है कि लिखते और बोलते हुए आदमी थक जाए, लेकिन वे पन्ने कभी खत्म न हों। हैदराबाद विश्वविद्यालय के जिस छात्र की आत्महत्या को ये ‘बेच’ रहे हैं, जरा इनसे पूछिए कि इनके पोलित-ब्यूरो में कितने दलित हैं? इनसे पूछिए कि जेएनयू में इंटरव्यू में दलितों के साथ भेदभाव करने वाले कितने कम्युनिस्ट प्रोफेसर नहीं हैं? उस पर कोई कड़ी कार्रवाई अभी तक इन वामपंथियों ने क्यों नहीं की है? जेएनयू का यह संग्राम ऐसा है, जिस पर सभी की निगाहें टिकी हैं। इन राष्ट्रविरोधी, समाज-घातक, स्त्री-विरोधी, दलित-द्रोही वामपंथियों को उखाड़ फेंकने का वक्त आ गया है। याद रखना होगा, अभी नहीं तो कभी नहीं।

(लेखक जाने-माने पत्रकार हैं एवं जेएनयू के पूर्व छात्र हैं।)