राष्ट्रीय नेता बनने का मोह छोड़ बंगाल की कानून व्यवस्था पर ध्यान दें ममता बनर्जी!

ममता बनर्जी को राष्ट्रीय नेता बनने का मोह छोड़ सबसे पहले अपने घर यानी बंगाल के शासन तंत्र को दुरुस्त करने की जरूरत है। यह नहीं हो सकता कि बंगाल अराजकता की आग में जलता रहे और ममता देश को सुशासन का स्वप्न दिखाने में लगी रहें। बंगाल का शासन ही ममता बनर्जी के राजनीतिक कद के निर्धारण की एकमात्र कसौटी है, जिसपर फिलहाल तो वे बुरी तरह से विफल नजर आ रही हैं। 

बीते 21 मार्च को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के रामपुरहाट में कुछ लोगों के झुण्ड द्वारा लगभग दर्जन भर घरों में आग लगाकर आठ लोगों की हत्या कर दी गई। ख़बरों की मानें तो आपसी रंजिश में हुई टीएमसी के एक स्थानीय नेता भादू शेख की हत्या के बाद बदले की भावना के तहत इस पूरी घटना को अंजाम दिया गया।

इस घटना ने एकबार फिर ममता बनर्जी के शासन में लचर हो चुकी पश्चिम बंगाल की कानून व्यवस्था की हकीकत सामने ला दी है। गत 25 मार्च को मामले की जांच सीबीआई से कराने का आदेश उच्च न्यायालय दे चुका है। जाहिर है, पश्चिम बंगाल पुलिस की जांच व कार्यवाही पर किसीको भरोसा नहीं है।

कहा जा रहा कि टीएमसी नेता भादू शेख कट मनी के धंधे से जुड़े हुए थे। इस धंधे से जुड़े मुनाफे को लेकर पैदा हुई रंजिश में ही उनके कुछ साथियों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। इसी की प्रतिक्रिया में भादू शेख के गुट के लोग इतने उग्र हुए कि उन्होंने आठ लोगों को जलाकर मार डाला। जाहिर है, इस जघन्य हत्याकाण्ड के भीतर अपराध की कई और परतें भी छिपी हुई हो सकती हैं।

दरअसल लगातार सत्ता में बने रहने के कारण आज तृणमूल कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता इस कदर निरंकुश हो चुके हैं कि उन्हें किसी तरह का कोई भय ही नहीं रह गया है। बंगाल में तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा कटमनी का धंधा बहुत संगठित रूप से चलाया जा रहा है। इसके तहत दुकानदारों, ठेकेदारों आदि से अवैध वसूली कर पैसा बनाया जाता है।

अवैध वसूली का यह धंधा कम्युनिस्ट शासन के समय में भी था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के समय में यह और बड़े रूप में उभरकर सामने आया है। कटमनी का मुद्दा बीते बंगाल चुनाव में भाजपा द्वारा जोर-शोर से उठाया गया था, लेकिन बावजूद इसके तृणमूल कांग्रेस की सत्ता में वापसी ने जैसे उसके कार्यकर्ताओं को इस बात के प्रति और अधिक आश्वस्त कर दिया कि वे कटमनी का अपना धंधा बेख़ौफ़ जारी रख सकते हैं।

इसके अलावा राजनीतिक हिंसा और सांप्रदायिक दंगे रोकने में भी ममता बनर्जी की सरकार लगातार नाकाम ही साबित हुई है। राज्य में आए दिन भाजपा आदि विपक्षी दलों के नेताओं की हत्या होने या उनपर हमला होने के मामले सामने आते रहते हैं, मगर ममता सरकार कभी इसके प्रति गंभीर नजर नहीं आई।

2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर राज्य के पंचायत चुनाव तथा गत वर्ष संपन्न हुए विधानसभा चुनावों तक में भाजपा से जुड़े लोगों के विरुद्ध हिंसा की तमाम घटनाएं सामने आई हैं। यह सब बातें दर्शाती हैं कि आज पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था की स्थिति अत्यंत बदहाल हो चुकी है और राज्य अराजकता की आग में जलने को अभिशप्त नजर आ रहा है।

विचार करें तो भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाला बंगाल आजादी के बाद से ही एक राजनीतिक दुर्भाग्य का शिकार रहा है। आजादी के बाद 1977 तक बंगाल में कांग्रेस का शासन चला। इस दौरान राज्य हिंसक नक्सलवादी आंदोलन के उभार, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप के साथ-साथ जब-तब राजनीतिक अस्थिरता से भी दो-चार होता रहा।

1977 में आपातकाल से उपजी कांग्रेस विरोधी लहर पर चढ़कर कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ हुई और अगले 34 वर्षों तक लगातार सत्ता में बनी रही। लगभग साढ़े तीन दशक के कम्युनिस्ट शासन में प्रदेश में राजनीतिक हिंसा का भीषण तांडव देखने को मिला, जिसका विरोध करते हुए 2011 में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की कुर्सी हासिल की।

लेकिन विडंबना ही कहेंगे कि कम्युनिस्ट शासन की जिस हिंसात्मक राजनीति का विरोध करते हुए ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ता का संधान किया, आज खुद राजनीति के उसी तरीके को बढ़-चढ़कर अपना रही हैं।

दरअसल आज बंगाल में भाजपा का उभार ममता बनर्जी को खटक रहा है, जिसे लोकतांत्रिक तरीकों से न रोक पाने के कारण तृणमूल कांग्रेस बौखलाहट में हिंसात्मक तरीके अख्तियार कर रही हैं। वहीं भाजपा इस राजनीतिक हिंसा को मुद्दा बनाकर लोकतांत्रिक तरीकों से तृणमूल शासन का विरोध करने में पूरी ऊर्जा से लगी हुई है। भाजपा को जनता का समर्थन भी प्राप्त हो रहा है।

बेशक 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा राज्य की सत्ता से दूर रह गई, लेकिन उसकी सीटों में भारी इजाफा हुआ और आज वो बंगाल की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है। वहीं दूसरी तरफ ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में बहुमत तो पा गईं, लेकिन नंदीग्राम से उन्हें खुद पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

इन सब बातों का निष्कर्ष यही है कि बंगाल में ममता बनर्जी की जमीन धीरे-धीरे ही सही खिसक रही है। मगर ऐसा लगता है कि विपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा बनने की इच्छा और प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा में ममता बनर्जी को बंगाल की खिसकती जमीन का आभास ही नहीं है। यदि उन्हें लगता है कि हिंसात्मक राजनीति के जरिये वे बंगाल में भाजपा के उभार को रोक देंगी तो या तो यह उनका भ्रम है अथवा वे सत्य को स्वीकारने से बचना चाहती हैं।

ममता बनर्जी को राष्ट्रीय नेता बनने का मोह छोड़ सबसे पहले अपने घर यानी बंगाल के शासन तंत्र को दुरुस्त करने की जरूरत है। यह नहीं हो सकता कि बंगाल अराजकता की आग में जलता रहे और ममता देश को सुशासन का स्वप्न दिखाने में लगी रहें। बंगाल का शासन ही ममता बनर्जी के राजनीतिक कद के निर्धारण की एकमात्र कसौटी है, जिसपर फिलहाल तो वे बुरी तरह से विफल नजर आ रही हैं। यह बात उन्हें जितनी जल्दी समझ आ जाए, उनके लिए उतना ही बेहतर है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)