नाखून कटाकर शहीद बनने का नाटक कर रही हैं मायावती

दलित अब जाति के बजाए विकास की राजनीति को अपना रहे हैं। मायावती इस बात को अच्‍छी तरह जानती हैं कि एक बार दलित विकास के रथ पर सवार हो गए तो जाति की राजनीति का तानाबाना हमेशा के लिए खत्‍म हो जाएगा। इसी तानेबाने की बिखर रही कड़ियों को समेटने के लिए वे राज्‍यसभा कार्यकाल पूरा होने के नौ महीने पहले ही इस्‍तीफा देकर “नाखून कटाकर शहीद” होने का नाटक कर रही हैं।

“यदि मैं सदन में दलितों की बात नहीं उठा सकती तो मुझे सदन में रहने का अधिकार नहीं।” यह कहते हुए मायावती ने राज्‍य सभा की सदस्‍यता से इस्‍तीफा दे दिया। उपर से देखने पर मायावती के इस्‍तीफे में बलिदान की भावना नजर आती है, लेकिन यदि इसका विश्‍लेषण किया जाए तो यह सियासी वजूद मिट जाने के भय से उठाया गया कदम नजर आएगा।

2014 का लोकसभा चुनाव इस मायने में महत्‍वपूर्ण रहा कि इसने वोट बैंक की राजनीति को ध्‍वस्‍त कर दिया। उस समय जाति-धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं ने इसे कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्‍टाचार के विरूद्ध जनता की तात्‍कालिक प्रतिक्रिया माना था। लेकिन 2014 के बाद कई राज्‍यों में हुए विधानसभा चुनावों विशेषकर उत्‍तर प्रदेश में भाजपा को मिली बंपर जीत से इन नेताओं के पांवो तले जमीन खिसक गई। उत्‍तर प्रदेश के चुनावी नतीजो से सबसे बड़ा झटका बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती को लगा जिनकी जीत की भविष्‍यवाणी देश का सेकुलर खेमा कर रहा था।

देखा जाए तो देश में वोट बैंक की राजनीति की सूत्रधार कांग्रेस रही है। उत्‍तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति के तीन प्रमुख स्‍तंभ थे-ब्राह्मण, मुसलमान और दलित। इन वर्गों के वोट पर जीतने के बावजूद कांग्रेस ने कभी जनभावनाओं का सम्‍मान नहीं किया। वह इन वर्गों के चंपुओं को सत्‍ता की मलाई बांटकर मान लेती थी कि इनका सर्वागीण विकास हो रहा है। जैसे-जैसे कांग्रेस की कुटिल चाल के प्रति जागरूकता बढ़ी वैसे-वैसे लोग इससे दूर होते गए।

कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति से निराश दलितों को संगठित करने और उसे राजनीतिक जामा पहनाने का काम कांशीराम ने किया जो मायावती के नेतृत्‍व में अपने चरम पर पहुंच गई। दुर्भाग्‍यवश मायावती भी कांग्रेस की “वोट बैंक की राजनीति” से आगे नहीं बढ़ पाईं। लार्ड एक्‍टन ने कहा था “सत्‍ता सत्‍ताधारियों को भ्रष्‍ट बनाती है और पूर्ण सत्‍ता तो पूरी तरह भ्रष्‍ट बना देती है।” इस कथन को मायावती ने पूरी तरह चरितार्थ कर दिखाया।

कई विकल्‍प आजमाने के बाद 2007 में उत्‍तर प्रदेश की जनता ने मायावती के नेतृत्‍व वाले बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत से सत्‍ता सौंपी लेकिन मायावती ने इस जनादेश की घोर अवहेलना करते हुए भ्रष्‍टाचार का खुला खेल शुरू कर दिया। तरह-तरह के घोटाले, जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, तानाशाही रवैया आदि के चलते निष्‍ठावान कार्यकर्ता और बड़े नेता पार्टी छोड़ने लगे जिससे पार्टी का सांगठनिक ढांचा कमजोर हुआ। जो मायावती दलितों को लोकतांत्रिक हक दिलाने की बात करती थीं, उन्‍हीं मायावती ने बहुजन समाज पार्टी को “वन मैन शो” में तब्‍दील कर दिया। पार्टी में दूसरी पीढ़ी के किसी नेता को उभरने नहीं दिया और जब किसी ने ऐसा दुस्‍साहस किया तो उसे बाहर का रास्‍ता दिखाने में तनिक भी देर नहीं की गई।

अब मायावती के इर्द-गिर्द जो रह गए वे सब उनके चाटुकार थे जो सत्‍ता की मलाई के लिए उनकी जी हजूरी कर रहे थे। नतीजा यह हुआ कि उत्‍तर प्रदेश में न सिर्फ विकास का पहिया थमा बल्कि 2012 के विधान सभा चुनाव में सत्‍ता की बागडोर दूसरी जातिवादी पार्टी (सपा) के हाथ में पहुंच गई। मायावती इस मुगालते में थीं कि 2017 में सपा के परिवारवाद व कुशासन से उबकर जनता उन्‍हें फिर से अपना लेगी लेकिन इस बार उनका सामना जाति की नहीं विकास की राजनीति से था।

2014 के लोक सभा चुनाव में मायावती के परंपरागत वोटर ऐसे विकल्‍प की तलाश में थे जो जाति की जगह विकास की राजनीति करे। उनकी यह तलाश भाजपा में पूरी हुई जो सबका साथ-सबका विकास के वादे के साथ कांग्रेस के भ्रष्‍टाचार से मुक्‍ति का नारा दे रही थी। इसका नतीजा यह निकला कि उत्‍तर प्रदेश में अन्‍य वर्गों के साथ-साथ दलितों ने भी आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की विकास की राजनीति पर मुहर लगाई और बसपा का सफाया हो गया।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने भी दलितों को निराश नहीं किया। उनके नेतृत्‍व में जो विकास की राजनीति शुरू हुई उसमें दलितों को समुचित भागीदारी मिली। भ्रष्‍टाचार मुक्‍त भारत का सबसे ज्‍यादा लाभ दलितों को ही मिला क्‍योंकि इन्‍हीं वर्गों का हक सबसे ज्‍यादा छीना जा रहा था। चाहे हर घर का बैंक खाता हो या उज्‍ज्वला योजना, मनरेगा की मजदूरी हो या कौशल विकास।

मोदी ने दशकों से उपेक्षित बाबा साहब अंबेडकर के सम्‍मान में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अप्रैल 2015 में मोदी सरकार ने मुंबई में अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर का उद्घाटन किया। भारत रत्‍न डॉ अंबेडकर को सच्‍ची श्रद्धांजलि देते हुए 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का निश्‍चय किया। अंबेडकर के 125वीं जयंती वर्ष समारोह के तहत 125 रूपये और 10 रूपये के दो स्‍मारक सिक्‍के जारी किए। ये सिक्‍के बाबा साहेब अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाई जा रही उनकी पुण्‍यतिथि पर 6 दिसंबर 2015 को जारी किए गए।

प्रधानमंत्री ने मार्च 2016 में दिल्‍ली में अंबेडकर राष्‍ट्रीय स्‍मारक का शिलान्‍यास किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने बताया कि डॉ. अंबेडकर के सम्‍मान में पांच स्‍थलों को “पंचतीर्थ” के रूप में विकसित किया जा रहा है। मोदी सरकार के इन कार्यों और विकास की राजनीति से भाजपा के प्रति दलितों का भरोसा बढ़ा और उत्‍तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में उन्‍होंने भाजपा का भरपूर समर्थन किया। इसका सबसे ज्‍यादा खामियाजा मायावती को भुगतना पड़ा जिनकी पार्टी 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। तभी से मायावती दलित राजनीति को फिर से मजबूत बनाने के उपयुक्‍त मौके की तलाश में थीं और वह तलाश सहारनपुर दंगे के मामले को संसद में उठाने के बहाने पूरी हो गई।

दरअसल दलित अब जागरूक हो चुके हैं। दलितों की नई पीढ़ी जाति से आगे रोजगार व सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को अहमियत दे रही है और इन मुद्दों पर वे मोदी को नजदीक पाते हैं। यही कारण है कि दलित अब जाति के बजाए विकास की राजनीति को अपना रहे हैं। मायावती इस बात को अच्‍छी तरह जानती हैं कि एक बार दलित विकास के रथ पर सवार हो गए तो जाति की राजनीति का तानाबाना हमेशा के लिए खत्‍म हो जाएगा। इसी तानेबाने की बिखर रही कड़ियों को समेटने के लिए वे राज्‍यसभा कार्यकाल पूरा होने के नौ महीने पहले ही इस्‍तीफा देकर “नाखून कटाकर शहीद” होने का नाटक कर रही हैं।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)