जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने की दिशा में प्रयासरत मोदी सरकार

पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खास तौर पर रासायनिक उर्वरकों के कारण भूमि पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों को लेकर चिंता व्यक्त की थी और जैविक खेती को अपनाने पर बल दिया था जो आज समय की मांग बन चुका है।

बीते महीने आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत ने कोटा के दत्तोपंत ठेंगड़ी जन्म शताब्दी समापन समारोह को सम्बोधित करते हुए कहा था कि हमारे यहां सदियो से कृषि पेट भरने का विषय न रहकर बल्कि प्रकृति के आशीर्वाद के रूप में किसान के लिए कृषि कर्म, एक धर्म रहा है। इसी मौके पर उन्होंने 50 साल पहले विदर्भ के नेडप काका द्वारा लाई गई जैविक खाद की योजना को भी याद किया था।

वर्तमान सन्दर्भ मे यह सत्य है कि कोरोना महामारी ने प्रकृति को संजोकर रखने के साथ-साथ हमें सतत विकास की अवधारणा को वास्तविक रूप में अपनाने पर मजबूर किया है। कृषि क्षेत्र भी इससे अछूता नही है और बीते कुछ महीनो में भारतीय कृषि की मूल पद्धति ‘जैविक कृषि’ द्वारा उत्पन्न खाद्य पदार्थो की बढ़ती मांग से इसकी महत्ता और गुणवत्ता साफ परिलक्षित हुई है।

दरअसल बढ़ते रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों और अन्य केमिकल के इस्तेमाल ने भारतीय कृषि को गुणात्मक रूप में प्रभावित किया है, साथ ही साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अनेक पर्यावरण हानियां भी देखने को मिली हैं, जिससे पूरे इकोलॉजी सिस्टम पर गहरा असर पड़ रहा है।

पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खास तौर पर रासायनिक उर्वरकों के कारण भूमि पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों को लेकर चिंता व्यक्त की थी और जैविक खेती को अपनाने पर बल दिया था जो आज समय की मांग बन चुका है।

सांकेतिक चित्र (साभार : Krishi Jagran)

जैविक खेती और इतिहास

जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जिसमें भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाए रखने के लिये खेतो में फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग किया जाता है।

जैविक कृषि में मिट्टी, पानी, रोगाणुओं और अपशिष्ट उत्पादों, वानिकी और कृषि जैसे प्राकृतिक तत्त्वों का एकीकरण शामिल है, जिससे जैविक और अजैविक तत्वों के बीच संतुलन बना रहता है। मिट्टी की उर्वरता भी उच्च स्तर पर कायम रहती है, जिससे उपजने वाले खाद्य पदार्थ गुणवत्तापूर्ण और पौष्टिक होते हैं।

भारत मे जैविक खेती कोई नई अवधारणा नही है। प्राचीन काल से ही भारत में प्राकृतिक रूप से तथा प्रकृति के अनुकूल खेती और पशुपालन साथ साथ होता था। पशु अपशिष्टों तथा अन्य कंपोस्ट रूपी खाद का इस्तेमाल कृषि के लिए होता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात खाद्दान्न संकट के बाद उत्पादन बढ़ाने की होड़ में तथा 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद से भारत में कृषि में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग एक उत्प्रेरक के रूप में किया गया और यह निरन्तर बढ़ता चला गया।

रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई में भारी निवेश ने उच्च फसल उत्पादन का लक्ष्य पूरा करने के साथ साथ खाद्दान्न संकट को दूर तो किया पर मृदा का क्षरण, जल-गहन, जल-प्रदूषणकारी खेती, पारिस्थितिकी के प्रतिकूल मिट्टी के जैविक तत्वों पर संकट जैसी गम्भीर समस्याएं लेकर आया जिससे आज हम मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट, प्रदूषण और मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट को महसूस कर रहे हैं।

इसी कारण जैविक कृषि को अपनाने और उसमें सुधार के लिए दो दशको से पहल की जाती रही है और आज वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण पूरे विश्व में बेहतर स्वास्थ्य व सुरक्षित भोजन की मांग में वृद्धि के बीच भारत जैविक कृषकों की संख्या के मामले में प्रथम तथा जैविक कृषि क्षेत्रफल के मामले में 9वें स्थान पर है।

जैविक खेती के लाभ

जैविक कृषि की पद्धति, लागत और उत्पादन को किसान, मिट्टी, पर्यावरण और गुणवत्ता के नजरिये से देखा जाए तो यह सभी तरह से सकारात्मक परिणाम देते हैं। जैविक खादों के इस्तेमाल से भूमि में जैविक समिश्रण से उसकी गुणवत्ता बढ़ती है जिससे उसमें जल धारण क्षमता बढ़ने के साथ साथ वाष्पीकरण की समस्या से भी निजात पाया जा सकता है, परिणामस्वरूप सिंचाई के अंतराल में भी बढ़ोत्तरी होती है, जिससे जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सकता है।

सारी विधियां पर्यावरण अनुकूल होने के कारण भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है जो उत्पादन को बढ़ाने में सहायक होती है। किसानों की दृष्टि से इसमें सबसे लाभदायक इसका कम लागत का होना है क्योंकि रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम होने से लागत में भारी कमी आती है बावजूद इसके उत्पाद की गुणवत्ता और मांग के कारण बाजार स्पर्धा में अच्छी कीमतें मिलती हैं जो एक बेहतर आय का स्रोत है।

पर्यावरण के नजरिए से देखे तो जैविक कृषि जल संरक्षण में सबसे अधिक लाभकारी सिद्ध होती है क्योंकि कम सिंचाई के साथ-साथ पानी मे हानिकारक रासायनिक पदार्थों के घुलने का खतरा भी कम होता है। कचड़े और अन्य जैविक अपशिष्ट पदार्थों के इस्तेमाल कंपोस्ट आदि बनाने में इसका बेहतर और अनुकूल इस्तेमाल हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह सतत् विकास लक्ष्य-2 के अनुरूप है जिसका उद्देश्य ‘भूख को समाप्त करना, खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना और बेहतर पोषण और कृषि को बढ़ावा देना’ है।

सांकेतिक चित्र (साभार : Jagran Josh)

सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास

सरकार जैविक कृषि को प्रोत्साहित करने और उसे ग्रामीण स्तर पर स्वीकार्य बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। बीते दिनों ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने स्टॉकहोम कन्वेंशन के तहत सूचीबद्ध 7 रसायनों जो स्‍थायी कार्बनिक प्रदूषकों की श्रेणी में आते हैं, को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को मंज़ूरी दी है जिनका इस्तेमाल कृषि क्षेत्र में भी कीटनाशक दवाओं के रूप किया जाता था।

उत्तरपूर्व के इलाकों में जो देश में सबसे ज्यादा प्राकृतिक सघन इलाके हैं, वहां जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए 2015 में सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन के तहत एक उपमिशन के तौर पर सरकार ने ‘मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्ट रीजन’ नामक योजना की शुरुआत की थी जो जैविक कृषि से उत्पन्न उत्पादों के प्रति विश्वास को बढ़ाने और प्रमाणित करने में सहयोग कर रहा है।

इसीके साथ साथ 2015 मे ही परंपरागत कृषि विकास योजना को प्रारंभ किया गया था जो ‘सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन’ के उप मिशन ‘मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन’ का एक प्रमुख घटक के रूप में जैविक कृषि में ‘क्लस्टर दृष्टिकोण’ और ‘भागीदारी गारंटी प्रणाली’ के प्रमाणन के माध्यम से ‘जैविक ग्रामों’ के विकास को बढ़ावा देने में सहयोग कर रही है।

सरकार ने एक जिला एक उत्पाद योजना को देशव्यापी स्तर पर लागू करने के साथ ही साथ जैविक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ‘जैविकखेती.इन’ को सीधे खुदरा विक्रेताओं, थोक खरीदारों के साथ जैविक किसानों को जोड़ने की दिशा में कार्य किया है।

इसके साथ ही 2020-21 के बजट में रासायनिक उर्वरक सब्सिडी में कमी देखने को मिली थी और सरकार ने कृषि, सिंचाई और ग्रामीण विकास हेतु 16 कार्यबिन्दु में यह स्पष्ट तौर पर कहा था कि ‘हमारी सरकार पारंपरिक जैविक तथा अन्य नवाचारी उर्वरकों सहित सभी प्रकार के उर्वरकों के संतुलित प्रयोग को बढ़ावा देगी। मौजूदा प्रोत्साहन प्रणाली जो रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल को बढ़ावा देती है उसमें परिवर्तन के लिए यह एक आवश्यक कदम है।’ सरकार विभिन्न प्रयासों के जरिये जैविक उर्वरकों के उत्पादन को तकरीबन साढ़े तीन हज़ार लाख टन से अधिक तक पहुचाने की ओर बढ़ रही है।

हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जहाँ उच्च शिक्षा ग्रहण किये लोग भी जैविक कृषि अपना कर भारी मुनाफा कमा रहे, कई गाँव जैविक खेती की ओर आगे बढ़ते हुए ग्रामीण जीवन में रूपांतरण ला रहे हैं तथा शहरों में भी जैविक खेती के सफल प्रयोग हो रहे हैं।

इन उपलब्धियों को देखते हुए कल्पना की जा सकती है कि यदि इसमें राज्य का सहयोग प्राप्त हो तो बड़ी संख्या में किसानों को लाभ मिल सकता है। देश में सिक्किम पूरी तरह से जैविक कृषि अपनाने वाला भारत का पहला राज्य बन चुका है। त्रिपुरा और उत्तराखंड राज्य भी इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में प्रयास कर कर रहे हैं।

आंध्र प्रदेश के द्वारा भी ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती’ परियोजना की शुरुआत की जा चुकी है और वर्ष 2024 तक रसायन के प्रयोग को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

ऐसे में हमे समग्र और समावेशी तौर पर जैविक कृषि को अपनाने, जागरूक करने, जैव विविधता और पर्यावरण को संरक्षित करने तथा हानिकारक रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों धीरे-धीरे कम इस्तेमाल करने की सोच को अपनाना चाहिए ताकि भारत वैश्विक ‘जैविक बाज़ारों’ में सबसे अग्रणी स्थान को प्राप्त कर सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)