तीन तलाक की अमानवीय व्यवस्था से मुक्त हुई मुस्लिम महिलाएं

मुस्लिम महिलाओं की इस (तीन तलाक) त्रासदी को ख़त्म करने के लिए केंद्र की भाजपा नीत सरकार हमेशा से प्रयासों में लगी रही है। न्यायालय में केंद्र द्वारा सदैव तीन तलाक को अवैधानिक बताते हुए इसे ख़त्म करने की ही बात कही गयी। सरकार के इस पक्ष का निश्चित तौर पर इस मामले में बड़ा असर पड़ा है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं के विरोध, न्यायालय की सजगता के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी इस अमानवीय व्यवस्था के खात्मे का बड़ा श्रेय जाता है।

ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए देश की सर्वोच्च अदालत की पांच न्यायाधीशों की बेंच ने मंगलवार को मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाते हुए तीन तलाक को असंवैधानिक, गैर-कानूनी और अवैध करार  दिया है। पांच न्यायधीशों की बेंच में 2:3 के बहुमत से यह फैसला लिया गया। मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर और न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर ने तीन तलाक को धार्मिक मुद्दा बताते हुए इसे न्यायलय के दायरे से बाहर बताया तो वही न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ़, न्यायमूर्ति आरएसएफ नारीमन और न्यायमूर्ति यूयू ललित ने तीन तलाक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताया जो भारत के नागरिक को समानता का अधिकार प्रदान करता है। साथ ही इसे असंवैधानिक बताते हुए इस बेंच ने तीन तलाक पर तत्काल प्रभाव से 6 महीने का प्रतिबंध लगाया  है और साथ ही केंद्र सरकार को इसपर कानून बनाने का आदेश भी दिया है। 

तीन तलाक पर प्रतिबंध मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए एक वाज़िब कदम है। तीन तलाक, हलाला और बहु-विवाह जैसी समस्याओं से मुस्लिम महिलाओं पर काफी अत्याचार हो रहे थे, जिनसे अब उन्हें निजात मिलने की उम्मीद है। हालाँकि न्यायालय ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया कि हलाला और बहु-विवाह पर अलग से सुनवाई की जाएगी। छः महीने के पूर्ण प्रतिबंध की अवधि तक न्यायालय ने केंद्र सरकार को तलाक पर नए कानून लाने का समय दिया है। 

सांकेतिक चित्र

गौरतलब है कि न्यायालय ने इस मामले को स्वतः संज्ञान लिया था, पर बाद में इसपर छः याचिकाएं भी दायर की गई थीं, जिनमे से पाँच तीन तलाक पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर थीं। इसपर सुनवाई 12 मई 2017 से शुरू होकर 18 मई 2017 तक चली जिसमे न्यायालय ने महिलाओं, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और केंद्र सरकार की दलीलें सुनी और अपना फैसला सुरक्षित किया। 

मुस्लिम महिलाएं जहां तीन तलाक पर पूर्ण प्रतिबंध चाहती थीं, वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तीन तलाक कायम रखना चाहता था। वो इसे इस्लामिक मान्यताओं का एक जरुरी अंग मानता है और इसी आधार पर इसे वाजिब मानते हुए कायम रखना चाहता था। केंद्र सरकार ने इसे समानता के मौलिक अधिकार का हनन माना, क्योंकि तीन तलाक में सारे अधिकार पुरुष को हैं और महिला को नहीं, जिस कारण महिला को काफ़ी परेशानी झेलनी पड़ती है।

कई स्थितियों में तो चिट्ठी, ह्वाट्सएप, फोन आदि से भी तलाक के मामले सामने आते रहे हैं, जिस कारण महिलाओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। अपने पति से दोबारा निकाह करने के लिए उन्हें हलाला जैसी भयानक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था जिसको लेकर कई खुलासे भी सामने आए है।

मुस्लिम महिलाओं की इस त्रासदी को ख़त्म करने के लिए केंद्र की भाजपा नीत सरकार हमेशा से प्रयासों में लगी रही। न्यायालय में केंद्र द्वारा सदैव तीन तलाक को अवैधानिक बताते हुए इसे ख़त्म करने की बात ही कही गयी। सरकार के इस पक्ष का निश्चित तौर पर इस मामले में बड़ा असर पड़ा है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं के विरोध, न्यायालय की सजगता के साथ-साथ इस अमानवीय व्यवस्था के खात्मे का बड़ा श्रेय केंद्र सरकार को भी जाता है।

इस फैसले के साथ ही जहां मुस्लिम महिलाओं में खुशी है, वही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का ये कहना है कि हिंदुओं में भी दहेज और बाल विवाह को लेकर कानून है, पर फिर भी ये प्रथाएं समाज मे आज भी हैं।  ऐसे ही तीन तलाक 1400 साल पुरानी सामाजिक प्रथा है जिसका ख़ात्मा ऐसे नही हो सकेगा। मगर इनकी इस दलील की लचरता यह है कि हिन्दू अपनी कुप्रथाओं को ख़त्म करने के लिए खुद आवाज उठाते हैं, मौलानाओं की तरह उसके बचाव में नहीं उतर पड़ते। दरअसल तीन तलाक पर पड़ी न्यायालय की इस चोट से मौलाना लुटे-पिटे से महसूस कर रहे हैं।

केंद्र सरकार ने पहले ही मुस्लिम महिलाओं के प्रति अपनी संवेदनाओं को न्यायालय के सामने रख दिया था। इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं का सामाजिक विकास के दायरे में सुदृढ़ता से शामिल होने का हौंसला भी बुलंद होगा और अपने निजी फैसलों में उन्हें पुरुषों की मनमानी से भी निजात मिलेगी जो एक बड़ी उपलब्धि है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)