बस कहने भर के लिए राष्ट्रीय पार्टी रह गयी है कांग्रेस !

कांग्रेस अब सिर्फ कहने को देश की एक राष्ट्रीय पार्टी रह गई है। वास्तव में तो वह एक ऐसे कालखंड में प्रवेश कर चुकी है, जहाँ वह अब सिर्फ छह राज्यों – कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, मिजोरम, मेघालय में अपने बूते पर और बिहार में जूनियर पार्टनर के तौर पर सत्ता में मौजूद है। वहीं मोदी और अमित शाह की जोड़ी का कमाल ऐसा है कि आज भगवा रंग भारत के मानचित्र पर चारों ओर फ़ैल चुका  है। ऐसे में, कांग्रेस को लेकर राजनीतिक पंडितों में बहस तेज़ हो रही है कि क्या कांग्रेस की मर्सिया लिखने का समय आ चुका है?

वर्ष 2014 के बाद लगातार मिल रही हार के बाद अब ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस आईसीयू में चली गई है। महज तीन साल सत्ता से बाहर रहने के बाद ही कांग्रेस की प्राण शक्ति क्षीण हो रही है। आखिर 132 साल पुरानी पार्टी के अन्दर यह विघटन क्यों शुरू हुआ है ? 2014 के आम चुनाव के बाद देश के राजनीतिक पटल पर एक ऐसा बदलाव आया जिसने न सिर्फ भारत की सियासी फिज़ा बदल दी बल्कि कांग्रेस को उसकी वैचारिक ज़मीन से भी बेदखल कर दिया। यूपीए नीत 10 वर्ष के शासनकाल में दो दर्जन से ज्यादा बड़े-बड़े घोटालों ने कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम किया। देश में व्याप रही राजनीतिक और सामाजिक बैचैनी के मद्देनजर मध्यमवर्ग को डॉ मनमोहन सिंह में एक सुधारक की छवि दिखी थी, लेकिन मनमोहन सिंह निर्णायक नेतृत्व देने में नाकाम रहे।

साभार : गूगल

वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने जो यश कमाया था, उसे उन्होंने युपीए-2 के मध्य तक आते-आते गंवा दिया। अब सवाल देश के सामने सर्वमान्य नेतृत्व प्रदान करने का था, जिसे गुजरात के तीन बार के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने बाखूबी भरने का काम किया।  प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने कांग्रेस की नाकामियों को ही सिर्फ हथियार नहीं बनाया, बल्कि एक कर्मठ और कुशल नेता के तौर पर उन्होंने अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की। उन्होंने गुजरात में परफॉर्म किया और गुजरात मॉडल के रूप में देश के सामने विकास की एक सुनहरी तस्वीर रखी।  

दूसरी तरफ कांग्रेस में एक प्रभावशाली नेता की कमी साफ़ तौर पर नज़र आई जो कि अब भी यथावत बनी हुई है। हालिया पंजाब के नतीजों को अगर अपवाद मान लें तो राहुल गाँधी की कांग्रेस के पास उपलब्धियों के नाम पर गिनाने के लिए क्या शेष है?  सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में राहुल गाँधी ने एक बड़ा जुआ खेला और समाजवादी पार्टी के जूनियर पार्टनर के तौर पर 120 साल पुरानी पार्टी की  किस्मत दांव पर लगा दी, लेकिन नतीजे रहे; ढाक के तीन पात। उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर तीनों राज्यों में भी कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं लगा। बीजेपी के पक्ष में ये नतीजे उस समय आए जब कांग्रेस के पास  नोटबंदी जैसा बड़ा मुद्दा था, लेकिन जनता ने इस मुद्दे पर कांग्रेस का साथ नहीं दिया। दरअसल जनता को इस मुद्दे पर कांग्रेस का नकारात्मक विरोध नहीं भाया।

साभार: गूगल

कांग्रेस अब सिर्फ कहने को देश की एक राष्ट्रीय पार्टी रह गई है। वास्तव में तो वह एक ऐसे कालखंड में प्रवेश कर चुकी है, जहाँ वह अब सिर्फ छह राज्यों – कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, मिजोरम, मेघालय में अपने बूते पर और बिहार में जूनियर पार्टनर के तौर पर सत्ता में मौजूद है। वहीं मोदी और अमित शाह की जोड़ी का कमाल ऐसा है कि आज भगवा रंग भारत के मानचित्र पर चारों ओर फ़ैल चुका  है। ऐसे में, कांग्रेस को लेकर राजनीतिक पंडितों में बहस तेज़ हो रही है कि क्या कांग्रेस की मर्सिया लिखने का समय आ चुका है?

कांग्रेस की दुर्गति का चक्र अचानक घूमना शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। अन्य राजनीतिक राजनीतिक प्रक्रियाओं की तरह कांग्रेस का यह अधःपतन भी क्रमिक रहा है। इसे समझने के लिए 1952 से लेकर 2014 तक कांग्रेस के अन्दर बहुत सारे बदलावों को भी समझना होगा, कांग्रेस के क्रमिक विघटन को समझने के लिए इसे मुख्यतः तीन कालखण्डों में विभाजित करके देखा जाना चाहिए।

1952-1968 – यह कांग्रेस में नेहरू का दौर था। इस समय कांग्रेस का बोलबाला रहा। कांग्रेस पर समाजवाद का रंग चढ़ा हुआ था। 1952 से लेकर 1968 तक नेहरू का कांग्रेस पर एकक्षत्र राज था। कांग्रेस के सामने दूसरी विरोधी पार्टी के आने का कोई स्वप्न देखना भी दूभर था। मगर, इसी दौर में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ के रूप में विपक्ष की नीव भी रख रहे थे।  

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1969-1991 – नेहरु के बाद जब समय इंदिरा गाँधी का आया। इस समय यह नारा दिया गया – इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा। लेकिन, इस दौर में पार्टी का झुकाव समन्वयकारी नीतियों की तरफ कम, इंदिरा के हठ पर ज्यादा निर्भर होता गया। कांग्रेस अब इंदिरा कांग्रेस के नाम से जानी जाने लगी थी। इस दौर में पार्टी को कई उतार-चढ़ाव देखने पड़े। आपातकाल ने पार्टी की लुटिया डुबोई; हालांकि फिर वापसी भी हुई।

1984 में इंदिरा गाँधी के क़त्ल के बाद राजीव गाँधी ने कांग्रेस को सँभालने की कोशिश की, लेकिन उनके पास अनुभव की कमी थी। दूसरा, राजीव के पास  चाटुकारों की एक बड़ी फौज थी। कांग्रेस कमोबेश 1991 तक नेहरू-गाँधी परिवार के ही हाथ में रही, जब तक राजीव गाँधी जीवित थे। 1992-1997 के बीच कांग्रेस नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के हाथों से बाहर रहा। नरसिम्हा राव ने पार्टी को गाँधी परिवार के चंगुल से बाहर निकालने की कोशिश की, जिस वजह से राव का नाम कांग्रेस के इतिहास में दबी जुबान से ही लिया जाता है।  

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2004 में सोनिया ने कांग्रेस की कमान अपने हाथों संभाल ली। कांग्रेस को मनमोहन सिंह के नाम का अर्थशास्त्री मिला, जो नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री था और पहले रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया का गवर्नर भी रह चुका था। सोनिया को सियासी तौर पर कमजोर किन्तु स्वच्छ छवि वाले ऐसे ही नेता की ज़रुरत थी, जिसका अपना कोई राजनीतिक आधार न हो। ढुलमुल राजनीतिक व्यक्तित्व की वजह से मनमोहन सिंह लगातार विपक्ष और आम जनता के निशाने पर रहे। उनके सामने घोटाले होते रहे और वे खामोशी से दस जनपथ की आज्ञाओं का अनुकरण करते रहे। 2014 तक सत्ता पर काबिज़ रही कांग्रेस, भ्रष्टाचार के बोझ तले भरभरा कर बिखर गई। सन 1952 से 2014 तक कांग्रेस के इस पूरे राजनीतिक सफर में स्पष्ट है कि ये पार्टी परिवारवाद से ग्रस्त रही है और यही वो मुख्य कारण है कि इसका क्रमिक ह्रास होते-होते आज पतन के करीब पहुँच चुकी है।

खैर, तब सोनिया गाँधी ने पर्दे के पीछे रहकर सरकार चला ली, लेकिन राहुल गाँधी अब तक कोई करिश्मा दिखाने में नाकाम रहे। अब तो यह कहा जाता है कि कांग्रेस नेताओं में इस बात का डर रहता है कि अगर राहुल गाँधी ने उनके इलाके में प्रचार कर लिया, तो हार तय है।  कांग्रेस के लिए लाख टके का सवाल प्रभावशाली नेतृत्व का है, राहुल के हाथ से पार्टी की ड़ोर फिसलती जा रही है। गरीब और अल्पसंख्यक अब कांग्रेस से आस छोड़ चुके हैं।  

दरअसल कांग्रेस के पास अगर कैडर नहीं है, तो उसके लिए जिम्मेदार भी कांग्रेस ही है, जो आम लोगों के बीच से अब नेताओं को नहीं चुनती है। परिवारवाद और राजा-महाराजाओं की संस्कृति से कांग्रेस अबतक बाहर निकल नहीं पाई है।  वहीं बीजेपी के अन्दर चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन गया। बीजेपी में आलाकमान का कल्चर भी नहीं है। यह चीजें जनता को भाजपा की तरफ रुख करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित करती हैं। कांग्रेस को ये बातें समझनी होंगी और नेहरू-गांधी परिवार का मोह छोड़ जल्द से जल्द लोगों के बीच जाना होगा, अन्यथा उसका ये क्रमिक ह्रास उसे शीघ्र ही पूर्ण राजनीतिक पतन की ओर ले जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)