राम मंदिर : भूमि-पूजन पर विपक्ष का बेमतलब बवाल

भूमि-पूजन, शिलान्यास एवं प्रधानमंत्री के अयोध्या जाने को चुनावी राजनीति से जोड़कर देखना सर्वथा अनुचित है।  अभी तो सभी दलों को राजनीतिक लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठकर प्रसन्न होना चाहिए कि सदियों से चले आ रहे एक लम्बे ऐतिहासिक विवाद को विस्मृत कर देश शांति एवं सद्भाव के नवविहान में प्रविष्ट करने जा रहा है।

राम मंदिर पर दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक एवं बहुप्रतीक्षित निर्णय का लगभग सभी संप्रदायों के अनुयायियों ने मुक्त हृदय से स्वागत किया था। मुख्य रूप से उस निर्णय को लेकर दर्शाई गई मुस्लिम समाज की परिपक्वता और स्वीकार्यता ने देश का ही नहीं, अपितु दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था।

साभार : Prabhasakshi

परंतु जैसे-जैसे भूमि पूजन एवं राम मंदिर के शिलान्यास की तारीख़ नजदीक आ रही है, कुछ राजनीतिक दलों, उनके नेताओं एवं हितधारकों को शायद यह चिंता एवं आशंका सताने लगी है कि कहीं भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ न मिल जाय।

वे यह भूल जाते हैं कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस देश में एकपक्षीय सांप्रदायिक तुष्टिकरण की फसलें बार-बार काटी जाती रही हैं। राम-मंदिर तो फिर भी व्यापक जनास्था से जुड़ा ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक मुद्दा है।  भाजपा यदि इस मुद्दे को केवल चुनावों में उछालती और समाधान के लिए कोई प्रयत्न नहीं करती तो उसे भी विपक्षी दल  खोखली नारेबाज़ी और वोट-बैंक की सस्ती राजनीति कहकर दिन-रात धिक्कारते।

राम-मंदिर के मुद्दे पर अतीत में भाजपा ने अपनी चार-चार चुनी हुई सरकारों की कुर्बानी दी है। इसलिए उसे इस मुद्दे पर स्वाभाविक यश एवं बढ़त प्राप्त है। इस दृष्टि से उसे कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। निर्णय भले सर्वोच्च न्यायालय ने दिया हो पर लोकधारणा यही है कि इस मुद्दे पर भाजपा ने संसद से लेकर सड़क तक आवाज़ उठाई, संघ-परिवार ने आंदोलन खड़ा किया। यह सब अतीत है, जिसे देश ने जाना, समझा और देखा है।

परंतु अब भूमि-पूजन, शिलान्यास एवं प्रधानमंत्री के अयोध्या जाने को चुनावी राजनीति से जोड़कर देखना सर्वथा अनुचित है।  अभी तो सभी दलों को राजनीतिक लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठकर प्रसन्न होना चाहिए कि सदियों से चले आ रहे एक लम्बे ऐतिहासिक विवाद को विस्मृत कर देश शांति एवं सद्भाव के नवविहान में प्रविष्ट करने जा रहा है।

साभार : Asia Net Hindi

नवविहान की इस आलोकित वेला में तमाम दलों एवं नेताओं को अपने भीतर का कलुष-कल्मष त्यागकर देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थापना में सहयोग करना चाहिए। द्वेष एवं घृणा की विषवल्लरी को सींचने की बजाय उन्हें प्रेम और भाईचारे की भाषा बोलनी चाहिए। पर दुर्भाग्य से  ओवैसी जैसे नेता बेसुरा राग अलापकर सांप्रदायिक विद्वेष को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ और हैं जो उटपटांग बयानबाजियों से माहौल में सरगर्मियाँ पैदा करना चाहते हैं।

शुभ मुहूर्त्त, कोरोना-काल एवं संवैधानिक पदों की गरिमा आदि के प्रश्न राजनीतिक वंचना ही प्रतीत होते हैं। उनके पीछे कोई ठोस आधार परिलक्षित नहीं होता। ईश-आराधना का हर काल शुभ ही होता है और निश्चित ही इस संदर्भ में जानकारों की राय ली गई होगी। धार्मिक आस्था एवं विश्वासों पर सदैव सवाल उछालने वाले यदि चिहुँककर मुहूर्त्त के मुद्दे को हवा देने लगें तो अवश्य ही उसके निहितार्थ  राजनीतिक ही निकाले जाएंगे।

लॉक डाउन की अवधि से देश आगे बढ़ चला है। सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। इस आयोजन में सीमित आमंत्रण संभावित संक्रमण को रोकने की दिशा में उठाया गया ठोस क़दम है। पर हमें यह भी याद रखना होगा कि अनलॉक के वर्तमान चरण में धार्मिक स्थलों को दर्शनार्थियों के लिए पहले ही खोला जा चुका है।

बक़रीद पर विभिन्न मस्ज़िदों में उमड़ी भीड़ तो एक अलग ही तस्वीर पेश करती है। और जहाँ तक संवैधानिक पदों की गरिमा का प्रश्न है तो देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी की मिसाल हमारे सामने है। तत्कालीन प्रधानमंत्री के आग्रह की अवज्ञा करके भी वे सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए गए थे।

यह सत्य है कि प्रधानमंत्री संपूर्ण जन-समुदाय का प्रतिनिधि होता है। जनभावनाओं का सम्मान करना उसका संवैधानिक व नैतिक उत्तरदायित्व है। राम मंदिर पर दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के बहुप्रतीक्षित निर्णय की सर्वस्वीकार्यता द्योतक है कि राम मंदिर को लेकर जन-भावनाएँ क्या और कैसी हैं? निहित स्वार्थों से अभिप्रेत स्वरों को सहज ही जाना-पहचाना जा सकता है।

साभार : The Financial Express

राजनीति तोड़ती है, जबकि संस्कृति जोड़ती है। इसमें  किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि राम मंदिर राजनीतिक नहीं, अपितु एक सांस्कृतिक मुद्दा है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्णय देते समय उसके व्यापक सांस्कृतिक संदर्भों एवं परिप्रेक्ष्यों पर समग्रता से विचारावलोकन किया था।

सच तो यह है कि मज़हब बदलने से पूर्वज नहीं बदलते, संस्कृति व परंपराएँ नहीं बदलतीं। भारतवंशियों के लिए राम केवल एक नाम भर नहीं है, बल्कि वे जन-जन के कंठहार हैं, मन-प्राण हैं, जीवन-आधार हैं। वे भारत के और भारत उनका पर्याय है। भारत का कोटि-कोटि जन उनके दृष्टिकोण से जग-जीवन को देखता है और उनके निकष पर स्वयं को कसते हुए जीवन की सार्थकता-निरर्थकता पर विचार करता है।

भारत से राम और राम से भारत को विलग करने के भले कितने ही कुत्सित कुचक्र-कलंक क्यों न रचे जाएँ, लेकिन सांस्कृतिक नवजागरण के कालखंड में यह संभव होता नहीं दिखता। अयोध्या में राम का भव्य मंदिर भक्ति एवं भाव को सिंचित करेगा, वह आस्था एवं विश्वास को परिपोषित करेगा। वह राम में अपने पूर्वज की छवि देखने तथा दैनिक अभिवादन में राम-नाम की प्रतिपल स्मृति दिलाने वाले देश-दुनिया के कोटि-कोटि जनों की आत्यंतिक श्रद्धा का श्रेष्ठतम केंद्रबिंदु सिद्ध होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)