लोक-साहित्य : भारतीय परम्पराओं का जीवंत प्रमाण

देवेंद्र सत्यार्थी के शब्दों में, लोक साहित्य की छाप जिसके मन पर एक बार लग गई फिर कभी मिटाए नहीं मिटती। सच तो यह है कि लोक-मानस की सौंदयप्रियता कहीं स्मृति की करूणा बन गई है, तो कहीं आशा  की उमंग या फिर कहीं स्नेह की पवित्र ज्वाला। भाषा कितनी भी अलग हो मानव की आवाज तो वही है।

इस दृष्टि से अगर हिंदी साहित्य उसमें भी विषेष रूप से छायावादी काल का अवलोकन करें तो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व अलग से नजर आता है जो कि स्वयं अपने जीवन से, अपने आचरण से लोक मंगल को चरितार्थ करते हैं। निराला इस बात को समझते थे कि लोक जीवन को केवल उसके भाव, दृश्य, व्यापार में ही नहीं लिया जा सकता। उसके लिए उसकी भाषा भी आवश्यक होती है।

रामदरश मिश्र “छायावाद का रचनालोक” पुस्तक में निराला के इसी गुण को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि दो ऐसी बातें है जो इनमें विशेष रूप से उभरती हैं, वे हैं-भाषा और भाव की सापेक्षिक लोकोन्मुखता तथा भक्ति की ओर विशेष झुकाव। आखिर निराला के गीत हो या कविता, शास्त्र और लोक का यह संगम अद्भुत है। यह अनायास नहीं है कि हिन्दी का भक्तिकालीन संत-साहित्य व्यावहारिक लोकसम्मत ज्ञान के आधार पर पुस्तकीय ज्ञान के धनी को ललकारते हुए कहता है:

तू कहता, कागद की लेखी
मैं कहता, आंखिन की देखी।

यह संगम-मंथन शब्द बड़ा रहस्यात्मक है। सीधे शब्दों में इसका अर्थ होता है मिलन। कुंभ के संगम-मंथन पर लिखे अपने निबन्ध में निर्मल वर्मा कहते हैं, “मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी रेत पर। असंख्य पदचिह्नों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बांधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे अंतहीन यात्रियों की कतार थी। शताब्दियों से चलती हुई, थकी, उद्भ्रांत, मलिन, फिर भी सतत प्रवाहमान। पता नहीं, वे कहां जा रहे हैं, किस दिशा में, किस दिशा को खोज रहे हैं, एक शती से दूसरी शती की सीढि़यां चढ़ते हुए? कहां है वह कुंभ घट जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबा कर रखा था? न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का, अमृत की कुछ तलछटी बूंदों का, जिसकी तलाश में यह लंबी यातना भरी धूलधूसरित यात्रा शुरु हुई हैं। हजारों वर्षो की लॉन्ग मार्च, तीर्थ अभियान, सूखे कंठ की अपार तृष्णा, जिसे इतिहासकार भारतीय संस्कृति कहते हैं!”

“संसार में निर्मल” पुस्तक में निर्मल वर्मा कहते हैं कि अगर हम भारतीय और हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या ईसाई और मुस्लिम प्रतीकों का इस्तेमाल करेंगे ? ये प्रतीक सहज रूप से हमारे रक्त में प्रवाहित होते हैं ! जब हम यूरोप का साहित्य पढ़ते हैं तो उनमें बाइबल और यूनानी पौराणिक ग्रन्थों से लिए गए रूपक व प्रतीक मिलते हैं। हम उन्हें स्वीकार करते हैं। नस्लीय दृष्टि से हम क्या उसे देख पाएंगे ? आज हम निराला का तुलसीदास या राम की शक्ति पूजा पढ़ते हैं, तो क्या यह कहेंगे कि यह हिन्दूवादी कविता है ? क्या हम उसे साम्प्रदायिक कविता कहकर खारिज कर सकते हैं ? मैं समझता हूं ऐसी बातें करना हमारी आलोचनात्मक विपन्नता का प्रतीक है।

शायद यह कारण है कि स्वाधीन जिज्ञासा को भारतीयता की खोज का मूल उपकरण मानने वाले हिंदी कवि-संपादक अज्ञेय ने माना है- भावनाएं तभी फलती हैं जबकि उनसे लोक कल्याण का अंकुर फूटे। “अज्ञेय रचना संसार, भागवत भूमि यात्रा” पुस्तक में अपनी इसी सोच के अनुरूप वे एक यक्ष-प्रश्न पूछते हैं। क्या लोक संस्कृति की जो परंपरा ब्रज और द्वारका को जोड़ती है, उसके साक्ष्य का महत्व हमारे लिए उस तथाकथित ऐतिहासिक साक्ष्य से अधिक नहीं होगा जो कुछ ठीकरों, मृद्भाण्डों और कुछ खंडित मूर्तियों या मंदिरों के अवशेषों पर अपने को खड़ा करता है ? लोक परम्परा का साक्ष्य जीवन्त और सातत्य युक्त साक्ष्य है, ऐतिहासिक साक्ष्य मरा हुआ और विखण्डित साक्ष्य। इससे क्या कि लोक परम्परा रूपकाश्रयी चिंतन का सहारा लेती है और इतिहास अपनी छानबीन को वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित बताता है? रूपकाश्रयी चितंन भी तथ्य तक पहुंचने का एक दूसरा रास्ता है, उससे मिलने वाला ज्ञान भी ज्ञान है, यद्यपि विज्ञान के उद्दिष्ट से भिन्न कोटि का ज्ञान।

फिर अज्ञेय ठीक दुखती नाभि पर अंगुली रखकर कहते हैं-पौराणिक चिंतन या रूपाकाश्रयी चिंतन शायद वैज्ञानिक चिंतन यानी लॉजिकल चिंतन का समानांतर और पूरक हो सकता है। जहां वैज्ञानिक प्रक्रिया का नकार निगति का कारण बनता है, कयोंकि वहीं परिवर्तनशीलता और विकास की गति को नकारता है, वहीं मिथकीय पद्वति का नकार भी निगति का कारण बनता है, क्योंकि उसकी परिणति कल्पना और संवेदना की मृत्यु में होती है-मनुष्य यंत्र में बदल जाता है। यह यंत्र में बदलता मनुष्य ही चिंता का कारण है। उनके शब्दों में भारत तथा यूरोप में धर्म चिंतन एक सा नहीं है। क्योंकि हमारा धर्म तो संस्कृति-दर्शन मिथक परंपरा आदि की सभी धुरियों में भिदा हुआ है। उसे संस्कृति से जुदा नहीं किया जा सकता। जुदा करते ही धर्म-धर्म नहीं रहता, और कुछ हो जाता है, जिसे संप्रदाय कहा जाता है।

धर्म-संस्कृति के बृहत्तर अर्थ-संदर्भों पर अज्ञेय की टिप्पणी है, भारत में धर्म न केवल सांस्कृतिक आधार है, बल्कि जिसे आधुनिक अर्थ में संस्कृति कहा जाता है, वह धर्म के अनुष्ठान पक्ष का एक विस्तार ही रही है। अज्ञेय समाज के साथ हैं, समाज में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच में जो खाई है उसे वे सेतु से पाट देना चाहते हैं। वे अपनी कविता “इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये-21” में कहते हैं –

मैं सेतु हूं
वह सेतु
जो मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है।

लोक, विभाजन नहीं जानता, समाहार जानता है; संकीर्णता नहीं जानता, व्याप्ति जानता है। यह अनायास नहीं है कि स्वांतः सुखाय रचना करने वाले “रामचरितमानस” के रचयिता आचार्य तुलसीदास समाज में रामराज्य के माध्यम से लोक मंगल और मर्यादा की स्थापना ही करना चाहते थे।

“संसार में निर्मल” पुस्तक में निर्मल वर्मा कहते हैं कि अगर हम भारतीय और हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या ईसाई और मुस्लिम प्रतीकों का इस्तेमाल करेंगे ? ये प्रतीक सहज रूप से हमारे रक्त में प्रवाहित होते हैं ! जब हम यूरोप का साहित्य पढ़ते हैं तो उनमें बाइबल और यूनानी पौराणिक ग्रन्थों से लिए गए रूपक व प्रतीक मिलते हैं। हम उन्हें स्वीकार करते हैं। नस्लीय दृष्टि से हम क्या उसे देख पाएंगे ? आज हम निराला का तुलसीदास या राम की शक्ति पूजा पढ़ते हैं, तो क्या यह कहेंगे कि यह हिन्दूवादी कविता है ? क्या हम उसे साम्प्रदायिक कविता कहकर खारिज कर सकते हैं ? मैं समझता हूं ऐसी बातें करना हमारी आलोचनात्मक विपन्नता का प्रतीक है।

याद करें तो यही लड़ाई महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी ने लड़ी थी। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है। मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था। भवानी प्रसाद मिश्र ने इसी बात को अपनी कविता में ऐसे कहा है, 

यह कि तेरी भर न हो तो कह 

और सादे ढंग से बहते बने तो बह
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी, हमसे बड़ा तू दिख।

हाल के भूमंडलीकरण ने अनेक भारतीयों के मन में यह आशंका पैदा की जो कि निर्मूल साबित हुई कि आर्थिक उदारीकरण अपने साथ एक तरह का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद-कि बे वाच और बर्गर भरतनाट्यम और भेलपूरी को बेदखल कर देंगे-लाएगा। जबकि हाल में ही पश्चिमी उपभोक्तावादी उत्पादों के साथ भारत का अनुभव बताता है कि हम बिना कोक के गुलाम हुए कोका कोला पी सकते हैं।

अगर महात्मा गांधी के शब्दों में कहे तो हम अपने देश के दरवाजे और खिड़कियों को खोलने और विदेशी हवा के हमारे घरों में बहने के बावजूद किसी भी तरह से कमतर भारतीय नहीं होंगे क्योंकि भारतीय इतने सक्षम है कि इन हवाओं से उनके पैर नहीं उखड़ेगे। हमारी लोकप्रिय संस्कृति एमटीवी और मैकडानल्ड का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम सिद्व हुई है। साथ ही, भारतीयता की वास्तविक शक्ति विदेशी प्रभावों को समाहित करने और उसे भारतीय हवा-पानी और मिट्टी के अनुकूल परिवर्तित करने में निहित है।

(लेखक ‘प्रजा-प्रवाह’ के राष्ट्रीय संयुक्त संयोजक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)