भारतीय राजनीति में संस्कृति के अग्रदूत थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 100वीं जयंती 25 सितंबर को है। चूँकि दीनदयाल उपाध्याय भाजपा के राजनीतिक-वैचारिक अधिष्ठाता हैं। इसलिए भाजपा के लिए यह तारीख बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके विचारों और उनके दर्शन को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए भाजपा ने इस बार खास तैयारी की है। दीनदयाल उपाध्याय लगभग 15 वर्ष जनसंघ के महासचिव रहे। वर्ष 1967 में उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया। चूँकि उन्हें केरल के कालीकट (कोझीकोड) में राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था। इसलिए दीनदयाल जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर 25 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केरल के कोझीकोड से विशेष उद्बोधन देंगे। देशभर में बूथ स्तर पर इस भाषण के सीधे प्रसारण के लिए भाजपा तैयारी कर रही है। प्रधानमंत्री का यह भाषण भाजपा और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों के बीच ही नहीं, वरन कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच भी चर्चा का विषय बनने वाला है। क्योंकि, अब तक कांग्रेस-वाम गठजोड़ दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुष की अनदेखी ही करता आया है। वर्तमान सरकार में महापुरुषों के साथ होने वाली भेदभाव की यह परंपरा खत्म होती दिखाई दे रही है। भारतीय राजनीति के 70 साल के इतिहास में यह पहली बार है जब महात्मा गांधी, सरदार पटेल, डॉ. भीमराव आंबेडकर, सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के साथ-साथ पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भी समान आदर दिया जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है कि जिस भाजपा के साथ राजनीतिक छूआछूत का व्यवहार किया गया,  उसका नेतृत्व अपने ही पितृपुरुष को सबसे आखिर में याद कर रहा है।

वर्ष 1964 में राजस्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ग्रीष्मकालीन संघ शिक्षा वर्ग उदयपुर में हो रहा था। इस अवसर पर अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि ‘स्वयंसेवक को राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए, जैसे कि मैं हूँ।’ स्वयंसेवकों को उनके इस कथन पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा कि आप एक राजनीतिक दल के अखिल भारतीय महामंत्री हैं, आप राजनीति से अलिप्त कैसे? तब दीनदयाल जी ने जवाब दिया कि ‘मैं राजनीति के लिए राजनीति में नहीं हूं, वरन् मैं राजनीति में संस्कृति का राजदूत हूँ।’ यह भाव उनके राजनीतिक जीवन में सदैव परिलक्षित होता रहा।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत में लोकतंत्र के उन पुरोधाओं में से एक हैं, जिन्होंने इसके उदार और भारतीय स्वरूप को गढ़ा है। उन्होंने राजनीति में सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर प्रवेश नहीं किया था। इस सत्य को समझने के लिए उनके जौनपुर के उपचुनाव का अध्ययन करना चाहिए। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि चुनाव में कोई प्रत्याशी हारने के लिए भी खड़ा हो सकता है। लोग आश्चर्यचकित थे कि पराजित प्रत्याशी मतदाताओं का धन्यवाद करने और विजयी प्रत्याशी को लोकहित के कार्यों में सहयोग देने की घोषणा करते हुए आमसभा आयोजित कर रहा है। दरअसल, दीनदयाल जी का यह व्यवहार इसलिए था क्योंकि वह राजनीति में संस्कृति के राजदूत थे। यह बात राजनीति के विद्वान तो मानते ही हैं, स्वयं दीनदयाल उपाध्याय का भी अपने विषय में यही मत था कि वह परपम्परागत अर्थों में राजनेता नहीं हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनवृत्ति प्रचारक थे। संघ के कहने पर ही राजनीति के केन्द्र में भारतीयता को स्थापित करने के लिए जनसंघ में गए थे। वर्ष 1964 में राजस्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ग्रीष्मकालीन संघ शिक्षा वर्ग उदयपुर में हो रहा था। इस अवसर पर अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा कि स्वयंसेवक को राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए, जैसे कि मैं हूँ।’ स्वयंसेवकों को उनके इस कथन पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा कि आप एक राजनीतिक दल के अखिल भारतीय महामंत्री हैं, आप राजनीति से अलिप्त कैसे? तब दीनदयाल जी ने जवाब दिया कि मैं राजनीति के लिए राजनीति में नहीं हूं, वरन् मैं राजनीति में संस्कृति का राजदूत हूँ।यह भाव उनके राजनीतिक जीवन में सदैव परिलक्षित होता रहा। अपने कार्यकर्ताओं से उनका आग्रह रहता था कि हमें जनसंघ को एक संस्कृतिवादी दल के रूप में विकसित करना है। दीनदयाल जी पर शोध करने वाले विद्वान महेश चंद्र शर्मा अपनी पुस्तक आधुनिक भारत के निर्माता : पंडित दीनदयाल उपाध्यायमें लिखते हैं कि दीनदयाल उपाध्याय सत्ताकांक्षी राजनीति के नहीं वरन् राजनीति को तथा भारतीय लोकतंत्र को संस्कृति से आप्लावित करने के महत्त्वाकांक्षी थे।

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पं दीनदयाल उपाध्याय

जैसा कि इस लेख में मैंने ऊपर लिखा है कि कांग्रेस और वामपंथ के गठजोड़ की दृष्टि भी 25 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण पर रहेगी, क्योंकि यह गठजोड़ भारतीयता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जिस गठजोड़ ने भारतीयता के प्रचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को महापुरुषों की शृंखला से बाहर रखा हो, वह उसकी विचारधारा को जन सामान्य में उतरते हुए कैसे देख सकता है? इसका उदाहरण है महेश चंद्र शर्मा की उक्त पुस्तक। जब भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने आधुनिक भारत के निर्माता‘  शृंखला के अंतर्गत इस पुस्तक को प्रकाशित करने का निर्णय किया था, तब भी वामपंथियों और उनके खेमे में सुशोभित बुद्धिवादियों ने वितंडावाद खड़ा किया था। दरअसल, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने उनकी विचारधारा, उनकी परिभाषाओं और समाज में संघर्ष पैदा करने वाले विभाजनकारी चिंतन का न केवल खंडन किया था, बल्कि उसके बरक्स व्यष्टि और समष्टि का समग्रता से चिंतन करने वाले विचार एकात्म मानवदर्शनका प्रतिपादन किया था। वह कहते थे कि हमें आधुनिक तो बनना है, लेकिन पश्चिम का अंधानुकरण नहीं करना है। इसलिए उन्होंने साम्यवाद और साम्राज्यवाद दोनों को भारतीय दृष्टिकोण से सबके सामने रखा और सिद्ध किया कि यह दोनों विचार अपूर्ण हैं। यह वह दौर था जब पाश्चात्य अवधारणाएं जोर पकड़ रही थीं। कम्युनिज्म लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था। उस दौर में दीनदयाल उपाध्याय जैसे भारतीय मनीषी विचारक पाश्चात्य राज्य और राष्ट्र की अवधारणा, लोकतंत्र, समाजवाद, सांप्रदायिकता तथा आर्थिक जैसे विषयों पर भी भारतीय दृष्टिकोण से टिप्पणी करते हैं।

यह समय भारतीय जनता पार्टी का है। एक समय में कांग्रेसियों और वामपंथियों द्वारा राजनीतिक रूप अछूत समझी जाने वाली भाजपा की स्वीकार्यता सम्पूर्ण देश में बढ़ रही है। अपनी बढ़ती स्वीकार्यता के इस दौर में भाजपा को दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन को अपने व्यवहार में लेकर चलना होगा। क्योंकि, यह चिंतन ही भाजपा को औरों से अलगपहचान दिलाता है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक मालाबार के उस तट पर हो रही है, जहाँ 1967 में संगठन का नेतृत्व दीनदयाल उपाध्याय को सौंपा गया था। अब भाजपा के नेतृत्व पर यह जिम्मेदारी है कि वह पूरी ईमानदारी से दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन को अंतिम जन तक पहुँचाए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)