पिंजरा तोड़ अभियान से उपजते सवाल

छोटे-छोटे शहरों से बड़े सपने लेकर देश की राष्ट्रीय राजधानी आने वाले लड़के-लड़कियों को वामपंथी ताक़तें किस क़दर बहलाती-फुसलाती हैं, उसकी कहानी आप इस संगठन के बनने के पीछे की कहानी को जानकर समझ सकते हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अराजकता और स्वेच्छाचारिता को बढ़ावा देना कोई नया चलन नहीं। नया यह है कि इसे विश्विविद्यालयों, महाविद्यालयों से लेकर अब छात्रावासों तक में प्रयोग के तौर पर आज़माया जा रहा है।

अनुशासन और मर्यादा का सर्वाधिक महत्त्व शैक्षिक संस्थानों में ही रहा है। अनुशासन के अभाव में अध्ययन-अध्यापन का परिवेश ही नहीं पनप सकता। परंतु, जवाहरलाल विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर पहले दिल्ली विश्वविद्यालय और अब अन्य विश्वविद्यालयों में भी ऐसे आंदोलनों को गति देने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं।

गत दिनों दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने एक ‘आरोप पत्र’ में ‘पिंजरा तोड़’ नामक एक संगठन की चर्चा की है। नाम ही काम बताता है कि तर्ज़ पर आप इस संगठन की रीति-नीति समझ सकते हैं। इसका नाम ऐसा रखा गया है, जैसे किसी निरंकुश शासन से मुक्ति का कोई पवित्र अभियान चलाया जा रहा हो। परंतु सच्चाई कुछ भिन्न है।

छोटे-छोटे शहरों से बड़े सपने लेकर देश की राष्ट्रीय राजधानी आने वाले लड़के-लड़कियों को वामपंथी ताक़तें किस क़दर बहलाती-फुसलाती हैं, उसकी कहानी आप इस संगठन के बनने के पीछे की कहानी को जानकर समझ सकते हैं।

देवांगना और नताशा (साभार : Navoday Times)

इस संगठन की संस्थापिका सदस्यों में से नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और सफूरा जगर इन दिनों सुर्खियों में हैं। नताशा और देवांगना जहाँ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा हैं तो सफूरा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ती हैं।

‘पिंजरा तोड़’ नामक संगठन की कारगुजारियों से आप परिचित हों, उससे पूर्व उसके जन्म की कहानी जानना भी आपके लिए दिलचस्प होगा। यह संगठन 2015 में अस्तित्व में आया। उन दिनों नताशा और देवांगना दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा थीं।

हुआ यह कि सेंट स्टीफ़न की वामपंथी विचारधारा से जुड़ी एक प्राध्यापिका ने लैंगिक समानता के नाम पर तमाम छात्राओं को भड़काना प्रारंभ किया। वे सभी छत्राएँ भी आज़ादी की उन माँगों को लेकर आंदोलन करने लगीं, जो आज़ादी लड़कों के छात्रावास में उपलब्ध थीं। यानी उन्हें भी अपनी मर्ज़ी से किसी भी समय आने-जाने की इजाज़त मिले, जिसे चाहें, उसे अपने कमरे पर लाने की छूट मिले, उन्हें किसी भी प्रकार के प्रतिरोध या सवालों का सामना न करना पड़े आदि-आदि।

इस आंदोलन में धीरे-धीरे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वामपंथी अध्यापक, पूर्व छात्र-छत्राएँ भी शामिल होते चले गए। इतना ही नहीं उनके इस आंदोलन को समर्थन देने अरुंधती रॉय, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, स्वरा भास्कर जैसे छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी भी कूद पड़े।

उनके समर्थन से यह आंदोलन गति पकड़ने लगा और अंततः विश्वविद्यालय प्रशासन को इनकी जायज़-नाजायज़ माँगों के आगे झुकना पड़ा। नतीज़ा यह हुआ कि इनका मनोबल बढ़ता चला गया। ये और दुःसाहसी हो उठे।

छात्राओं की कथित आज़ादी की माँगों को लेकर शुरू हुआ यह आंदोलन अब राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का हथकंडा बन गया। चाहे जेएनयू में देश विरोधी नारा लगाने का मामला हो, चाहे अनुच्छेद 370 हटाने, चाहे सीएए या एनआरसी के विरोध का मुद्दा, इन सबमें इस पिंजरा तोड़ अभियान से जुड़े छात्र-छात्राओं ने अग्रणी भूमिका निभाई।

और अब इस संगठन पर सबसे ताज़ा आरोप यह लगा है कि दिल्ली दंगे में इससे जुड़े छात्रों की बड़ी भूमिका रही है। इन्होंने शाहीन बाग के प्रदर्शनों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।

जब पुलिस का शिकंजा इस संगठन के संस्थापक सदस्यों पर कसने लगा तो अब इन छात्र-छात्राओं के ‘मासूमियत’ और ‘भविष्य’ की दुहाई देकर इनके प्रति सहानुभूति का अभियान चलाया जा रहा है।

ध्यातव्य हो कि पुलिस इन तीनों को गिरफ़्तार कर चुकी है। देश-विदेश के कई अख़बार, बॉलीवुड के कथित कलाकार, टीवी चैनलों से जुड़े बड़े-बड़े लोग इस सहानुभूति अभियान के अगुआ हैं। ऐसे नारे और मुहावरे उछाले जा रहे हैं कि ”भारत सरकार कोरोना से लड़ाई छोड़कर, निर्दोष छात्रों से लड़ाई लड़ रही है।”

दिलचस्प है कि इन छात्र-छात्राओं को तमाम वामपंथी पार्टियाँ अपनी सुविधा से कभी स्टूडेंट्स तो कभी राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की तरह इस्तेमाल करते हैं। आख़िर कब तक हमारे शिक्षण-संस्थाओं का बेजा इस्तेमाल किया जाता रहेगा? कब तक तमाम नौनिहालों को राजनीति का ईंधन बनाया जाता रहेगा?

सरकार को ऐसे किसी आंदोलन या अभियान के सम्मुख झुकना नहीं चाहिए और शिक्षा के मंदिरों में एक स्वस्थ-सुंदर परिवेश बनाए और बचाए रखने का हर संभव प्रयत्न करना चाहिए जो कि वर्तमान सरकार पूरी मजबूती से कर रही है। ऐसे देश विरोधी आंदोलनों एवं अपराधों में संलिप्त छात्रों-प्राध्यापकों पर कठोर कार्रवाई ही नजीर पेश कर सकती है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)