राष्ट्रवादी संन्यासी का दर्शन

भूपेंद्र यादव

पूरा देश पांच जून को प्रखर राष्ट्रभक्त, संगठनकर्ता और आध्यात्मिक विभूति माधव सदाशिवराव गोलवलकर यानी श्री गुरुजी को उनकी Gurujeeपुण्यतिथि पर याद करता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और श्री अरविंद के दर्शन को शिरोधार्य करते हुए अपने जीवन को राष्ट्रीय निष्ठा के जागरण हेतु समर्पित करने वाले श्री गुरुजी ने समाज और राष्ट्र के निर्माण में अविस्मरणीय योगदान दिया। भारत वह देश है जहां संन्यासी जीवन के विविध रंग प्रदर्शित हुए हैं, जिन्होंने स्पष्ट किया है कि संन्यासी का जीवन स्वयं के लिए नहीं समाज और मानवता के लिए होता है। यहां संन्यासियों की सक्रिय सामाजिक भूमिका देखी गई है, जो इस बात की घोतक है कि संन्यासी स्वयं के राग-द्वेष से ऊपर उठकर अपने देश व समाज का शुभचिंतक होता है। श्री गुरुजी इसके सबसे बड़े प्रतीकों में शामिल हैं। उनका पूरा जीवन राष्ट्र निर्माण के लिए उनके त्याग और संकल्प की कहानी कहता है। श्री गुरुजी का जन्म 1906 में हुआ। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की तथा चेन्नई के एक संस्थान में शोध के लिए प्रवेश लिया, परंतु आर्थिक व्यवधान से उन्हें यह शोध कार्य स्थगित करना पड़ा। उन्होंने काशी हिन्दू  विश्वविद्यालय में ही अध्यापन कार्य किया और ‘गुरुजी’ उपनाम उनके मूल नाम से अधिक उनकी पहचान बन गया। अध्यापन के दौरान पंडित मदन मोहन मालवीयजी का उन पर विशेष प्रेम रहा। उन्होंने कानून की भी शिक्षा ग्रहण की, परंतु उनका मन अपने समाज की मानसिक दुर्बलता और देश की दासता से व्यथित था। इसलिए उन्होंने आध्यात्मिक जीवन की ओर कदम बढ़ाए और रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य रहे स्वामी अखंडानंदजी की श्रद्धापूर्ण सेवा करते हुए त्याग और वैराग्य के वास्तविक अर्थ जाने। उन्होंने अनुभव किया कि हमारी परंपरा में कई प्रकार के त्याग स्वीकारे गए हैं, परंतु कर्म का त्याग दोष है। वास्तविक त्याग ‘मैं’ भावना और स्वयं के प्रति लोभ की भावना का त्याग है। 1937 में स्वामी अखंडानंद जी द्वारा उन्हें दीक्षा प्रदान की गई। इसी वर्ष पूज्य स्वामीजी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। गुरु के देहावसान के पश्चात् उन्होंने डॉ. हेडगेवार के संघ कार्य को राष्ट्र एवं समाज जागरण के लिए उपयुक्त पाया। वह डॉ. हेडगेवार के लिए कहते थे, ‘संघ निर्माता का जीवन अनेकानेक स्वयंसेवकों के व्यक्तित्व में चरित्र की श्रेष्ठता, कार्य के प्रति निष्ठा रखते हुए देश के लिए अपने जीवन का सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार करना है। इस प्रकार के हृदय गढ़ने वाले मूर्तिकार डॉ. हेडगेवार थे, जो आरंभ में मुङो सिर्फ निराले ढंग से कार्य करने वाले नेता लगते थे, परंतु मैंने अनुभव किया कि वह वात्सल्य की मूर्ति थे, जो अपने स्वयंसेवकों के लिए माता, पिता एवं गुरु, तीनो भूमिकाओं में थे।श्री गुरुजी पर संघ कार्य के दौरान डॉ. हेडगेवार की इस बात का गहरा प्रभाव पड़ा कि वाणी की उग्रता और असंयम हमें तात्कालिक लाभ और सुख दे सकता है, परंतु दीर्घकालिक स्तर पर वाणी की मधुरता के बिना राष्ट्र के विकास का कार्य संभव नहीं। इसलिए हृदय की अग्नि को नियंत्रित करते हुए अपनी संपूर्ण कार्य शक्ति को विकसित करते हुए संयम एवं सौम्यता के साथ समाज एवं राष्ट्र का निरंतर विकास करने में सहयोगी बनना ही हम सबका अभीष्ट है। श्री गुरुजी महर्षि अरविंद के इस वक्तव्य से प्रभावित थे कि हमें अपनी जगतजननी मां भगवती के लिए सत्वगुणी उपकरण बनने की अवश्यकता है, जो संपूर्ण सृष्टि में चेतनामय प्रेम का प्रसार कर सके। इस दृष्टि से उनका राष्ट्रवाद किसी अहंकार, शक्ति के उपयोग और दुर्बलों पर शासन का राष्ट्रवाद नहीं था। वह स्वामी विवेकानंद एवं महर्षि अरविंद के इस विचार से अभिभूत थे कि देश मात्र भूखंड का टुकड़ा या राजसत्ता का पर्याय नहीं है। यह हमें पोषित करने वाली माता है। यदि हम श्री गुरुजी के जीवन दर्शन को समङों तो वह हमसे अपने देश के सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन बनने का आग्रह करते हैं। हमारी परंपरा में व्यक्ति साध्य नहीं है। उसकी उत्कृष्टता अपने समाज और देश को सर्वश्रेष्ठ देकर जीवन जीने की है, जिसमें कृतज्ञता प्रमुख संस्कार है। उनका मानना था कि संयम से आत्मशक्ति का विकास करना चाहिए। हीनता व दुर्बलता में इसे परिवर्तन नहीं होने देना चाहिए। इसलिए संगठित व शक्तिशाली होना वह समाज-राष्ट्र के लिए आवश्यक मानते थे। आदर्शवाद के साथ वह यथार्थवादी भी थे। श्री गुरुजी समय के अनुकूल व्यवस्थाएं निर्मित करने तथा अंधविश्वास एवं कुतर्को पर आधरित परंपराओं को अस्वीकार करते थे। पितृसत्तात्मक सोच के प्रति उनका परिचय इस कथन से मिलता है जब इकलौते पुत्र होने के नाते माता ने उनके संन्यास लेने पर वंश कैसे चलेगा, यह प्रश्न किया तो उनका उत्तर था वंश नष्ट होने की बात मैं नहीं मानता। समाज का भला करना हमारा उद्देश्य है। श्री गुरुजी ने वर्णाश्रम व्यवस्था को भी समयानुकूल न होने के कारण आधुनिक संदर्भो में अस्वीकार किया। वह एक उदार मन के, निर्भीक राष्ट्रवादी थे। वह गीता के स्वकर्मणा तमभ्यचर्य को ही सच्ची पूजा मानते थे। उनके अनुसार पत्र-पुष्पों से की गई पूजा वास्तविक नहीं है। मनुष्य अपने उत्कृष्ट कर्मो से भगवान की पूजा करता है। वह पंथ या मजहब के आधार पर राष्ट्रीय एकता की बात नहीं करते थे। उनका मानना था कि नागरिकों के उद्देश्य, हित, लक्ष्य एवं सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति सम्मान की भावना में एकरूपता हो राष्ट्रीय एकता व अखंडता स्थापित होती है।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं,यह लेख दैनिक जागरण में ६ जून को प्रकाशित हुआ था )