‘अर्घ्य के दिन किसी छठ घाट पर चले जाइए, आप वो देखेंगे जो आपके मन को प्रफुल्लित कर देगा !’

छठ की शुरुआत को लेकर कई मान्यताएं हैं। कोई कहता है कि सीता ने तो कोई कहता है कि कुंती या द्रोपदी ने सर्वप्रथम ये छठ व्रत और पूजा की थी। एक मान्यता यह भी है कि सर्वप्रथम महाभारत कालीन सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य का पूजन किया था, जिसके बाद यह परम्परा चल पड़ी। अब जो भी हो, पर इतना अवश्य है कि अगर आपको भारतीय शृंगार, परम्परा, शालीनता, सद्भाव, और आस्था समेत सांस्कृतिक समन्वय की छटा एकसाथ देखनी हो, तो अर्घ्य के दिन किसी छठ घाट पर चले जाइए। आप वो देखेंगे जो आपके मन को प्रफुल्लित कर देगा।

ये यूं ही नहीं कहा जाता कि भारत पर्वों, व्रतों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का देश है। दरअसल यहां शायद ही ऐसा कोई महीना बीतता हो जिसमें कोई व्रत या पर्व न पड़े। हमारे पर्वों में सबसे अलग बात ये होती है कि इन सब में हमारा उत्साह किसी न किसी आस्था से प्रेरित होता है। कारण ये कि भारत के अधिकाधिक पर्व अपने साथ किसी न किसी व्रत अथवा पूजा का संयोजन किए हुए हैं। ऐसे ही त्योहारों की कड़ी में पूर्वी भारत में सुप्रसिद्ध छठ पूजा का नाम भी प्रमुख रूप से आता है।

बिहार के पटना घाट से लेकर दिल्ली के यमुना घाट समेत और भी तमाम छोटे-बड़े घाटों पर प्रत्येक वर्ष छठ का भव्य आयोजन होता है।शुरूआती समय में छठ अधिकाधिक रूप से सिर्फ बिहार तक सीमित था, पर समय के साथ मुख्यतः बिहारवासियों के भौगोलिक परिवर्तनों के कारण इस पर्व का प्रसार बिहार से सटे प्रदेशों में भी हुआ और होता गया। भौगोलिक परिवर्तनों से मुख्य आशय ये है कि बिहार की लड़कियां विवाहित होकर यूपी तथा अन्य जिन प्रदेशों व स्थानों में गईं, वहां वो अपने साथ अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को भी लेते गईं। उन्होंने अपनी इस परम्परा को न सिर्फ पूरी संलग्नता से कायम रखा बल्कि इसके महत्व-प्रभाव के वर्णन द्वारा और लोगों तक भी इसका प्रचार-प्रसार किया।

सांकेतिक चित्र

विविध परम्पराओं, पूजन-पद्धतियों और आस्थाओं वाले हमारे इस देश में इस तरह का सांस्कृतिक प्रसार न तो नया है और न ही विचित्र। इस सांस्कृतिक प्रसार के जरिये ही छठ का बिहार के बाहर भी प्रसार होता गया और आज यह पर्व पूर्वी भारत में बिहार समेत यूपी, झारखंड व नेपाल के तराई क्षेत्रों तक में भी बड़े धूम-धाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त छिटपुट रूप से तो इसका आयोजन समूचे भारत में और विदेशों में भी देखने को मिलता है।

बिहार व यूपी के लोगों में इस पर्व को लेकर कितनी निष्ठा है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रत्येक वर्ष छठ के अवसर पर दिल्ली, मुंबई आदि देश के तमाम राज्यों से बिहार व यूपी जाने वाली ट्रेनों में ऐसी भीड़ उमड़ती है कि प्रशासन को स्टेशनों पर न सिर्फ सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने पड़ते हैं, बल्कि इन राज्यों में जाने वाली मौजूद गाड़ियों के अतिरिक्त कुछ विशेष गाड़ियाँ भी चलानी पड़ती हैं। इतने के बावजूद भी जाने वाले लोगों की भीड़ को नियंत्रित करना प्रशासन को लोहे के चने चबवा देता है।

यदि इस पर्व के नाम पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि इस पर्व के तिथिसूचक के अपभ्रंस या देशज रूप को ही इस पर्व की संज्ञा के रूप में अपनाया गया है। जैसे कि इसे मुख्य रूप से इसकी षष्ठी तिथी को होने वाली सूर्यदेव की अर्घ्य के लिए जाना जाता है। इस प्रकार षष्ठी तिथी के विशेष महत्व के कारण उसका अपभ्रंस छठ के रूप में हमारे सामने आता है। यूं तो इस पर्व में देवता के रूप में सूर्यदेव की ही प्रतिष्ठा है, पर तिथी के कारण ये छठ नाम से प्रसिद्ध हो गया है।

यह पर्व वर्ष में दो बार चैत्र और कार्तिक मास में मनाया जाता है, पर इनमें तुलनात्मक रूप से अधिक प्रसिद्धि कार्तिक मास के छठ की ही है। हिंदू कैलेण्डर के अनुसार कार्तिक मास में दीपावली बीतने के बाद इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ हो जाता है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरू होकर ये पर्व कार्तिक शुक्ल सप्तमी को भोर की अर्घ्य देने के साथ समाप्त होता है। इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ ‘नहाय खाय’ नामक एक रस्म से होता है। इसके बाद खरना, फिर सांझ की अर्घ्य व अंततः भोर की अर्घ्य के साथ इस पर्व का समापन हो जाता है। यूं तो ये पर्व चार दिवसीय होता है, पर मुख्यतः षष्ठी और सप्तमी के अर्घ्य का ही विशेष महत्व माना जाता है।

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व्रती व्यक्ति द्वारा पानी में खड़े होकर सूर्य देव को ये अर्घ्य दिए जाते हैं। संभवतः ये अपने आप में ऐसा पहला पर्व है, जिसमें डूबते और उगते दोनों ही सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है; उनकी वंदना की जाती है। सांझ-सुबह की इन दोनों अर्घ्यों के पीछे हमारे समाज में एक आस्था काम करती है। वो आस्था ये है कि सूर्यदेव की दो पत्नियां हैं– ऊषा और प्रत्युषा। सूर्य के भोर की किरण ऊषा होती है और सांझ की प्रत्युषा, अतः सांझ-सुबह दोनों समय अर्घ्य देने का उद्देश्य सूर्य की इन दोनों पत्नियों की अर्चना-वंदना होता है।

छठ के गीत तो धुन, लय, बोल आदि सभी मायनों में एक अलग और अत्यंत मुग्धकारी वैशिष्ट्य लिए हुए होते हैं। ‘कांचहि बांस के बहन्गियां’, ‘मरबो जे सुगवा धनुष से’, ‘केलवा के पात पर’, ‘पटना के घाट पर’ आदि इस पर्व के कुछ सुप्रसिद्ध गीत हैं, जिन्हें तमाम बड़े-छोटे गायकों द्वारा गाया भी जा चुका है। इन गीतों का लय और संगीत इतना अलग और मुग्धकारी होता है कि इनको सुनते वक़्त अनायास आपको छठ के वातावरण का आभास होने लगता हैं। आलम यह कि जिसका वास्ता छठ से न हो, वह भी अगर इन गीतों को सुने और समझ सके तो इनके आकर्षण से नहीं बच सकता। केला, सेब, अन्नानस, आदि अनेक फलों के अतिरिक्त गन्ना और घर में बने ठेकुआ आदि चीजें इसके प्रसाद को भी विविधतापूर्ण और विशेष बनाती हैं।

इस पर्व का प्रभाव भारतीय राजनीति में भी व्यापक रूप से देखने को मिलता है। अब यूपी-बिहार तो खैर इस पर्व के गढ़ ही हैं, तो वहां तो नेताओं द्वारा इसके लिए घाटों पर साफ-सफाई और सुरक्षा आदि की चाक-चौबंद व्यवस्था की ही जाती है, साथ ही राजधानी दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे तमाम राज्यों जहां यूपी-बिहार के लोगों की बड़ी संख्या में मौजूदगी है, में भी सरकारें छठ की पूरी तैयारी करती हैं। बिहार में तो अक्सर मुख्यमंत्री खुद ही सपरिवार छठ घाट पहुंचकर पूजन-अर्घ्य आदि करते हैं। 

मोटे तौर पर जनसामान्य की मान्यता है कि ये सिर्फ स्त्रियों का पर्व है और काफी हद तक ये मान्यता सही भी है। पर इसके साथ ही ये भी एक सत्य है कि पुरुष के बिना इस पर्व की कई रस्मे अधूरी ही रह जाएंगी। उदाहरणार्थ इस पर्व की एक अत्यंत महत्वपूर्ण रस्म, जिसमें घर के पुरुष द्वारा पूजन सामग्री का डाल सिर पर उठाकर छठ के घाट तक ले जाया जाता है। पुरुष के होने की स्थिति में ये रस्म पुरुष द्वारा ही किया जाना आवश्यक और उचित माना गया है। लिहाजा इसे सिर्फ स्त्रियों का पर्व कहना किसी लिहाज से सही नहीं लगता।

भारत के अधिकाधिक पर्वो की एक विशेषता ये भी है कि वो किसी न किसी पौराणिक मान्यता से प्रभावित होते हैं। छठ के विषय में भी ऐसा ही है। इसके विषय में पौराणिक मान्यताएं तो ऐसी हैं कि अब से काफी पहले रामायण अथवा महाभारत काल में ही छठ पूजा का आरम्भ हो चुका था। कोई कहता है कि सीता ने तो कोई कहता है कि कुंती या द्रोपदी ने सर्वप्रथम ये छठ व्रत और पूजा की थी। एक मान्यता यह भी है कि सर्वप्रथम महाभारत कालीन सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य का पूजन किया था, जिसके बाद यह परम्परा चल पड़ी। अब जो भी हो, पर इतना अवश्य है कि अगर आपको भारतीय शृंगार, परम्परा, शालीनता, सद्भाव, और आस्था समेत सांस्कृतिक समन्वय की छटा एकसाथ देखनी हो, तो अर्घ्य के दिन किसी छठ घाट पर चले जाइए। आप वो देखेंगे जो आपके मन को प्रफुल्लित कर देगा।