भगवान शिव को अभी तक हमने जितना जाना है, उससे कहीं अधिक जानना शेष है

शिव को जितना हमने अभी तक जान लिया है, उससे कहीं ज्यादा जानना शेष अनुभव होता है। क्योंकि शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर भी है और वे शिव लिंग के रूप में भी उपस्थित हैं। यह विशिष्टता दुनिया के किसी अन्यान्य देव रूपों में नहीं है। इसीलिए शिव की प्रकृति जब देखो, तब रहस्यमयी ही अनुभूत होती है।  

सनातन ईश्वर परंपरा में भगवान शिव ऐसे विलक्षण चरित्र हैं,जो अपने बहुमुखी अंगों-उपांगों से जाने जाते हैं।इन बहुअंगों की न केवल जीवन दर्शन से जुड़ी महिमा है, बल्कि प्रकृति की विज्ञान सम्मत परिभाषा भी है।वे शिव ही हैं,जिनका प्रत्येक क्रियाकलाप ज्ञान के यथार्थ का बोध कराता है।इसी परिप्रेक्ष्य में हम शिव के अनेक मुखों,हाथों और आंखों का महत्व व विज्ञान जानते हैं।

एकमुखी और बहुमुखी शिव जिस रूप में भी हैं, उनका प्रकृति से गहरा रिश्ता है। पहले एकमुखधारी शिव के रूप का वर्णन करते हैं। इस रूप में शिव की जटाएं पृथ्वी तत्व की,उसमें स्थित गंगा जल तत्व की,कपाल में स्थित तीसरा नेत्र अग्नि तत्व की, नीलकंठी गला वायुतत्व का और शब्दात्मक ध्वनि प्रकट करने वाला डमरू आकाश तत्व का प्रतीक है। जीवनदायी यही पंचमहाभूत हैं।

पंचमुखी शिव को यदि पांच महाभूतों का प्रतीक माना जाए तो उनके इन अलंकरणों को उनके पंचतन्मात्रात्मक स्वरूप का प्रतीक माना जा सकता है। इन मुखों को विष्णु पुराण में सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईषान नामों से भी जाना जाता है। इन पांच मुखों को पंचत्व का भी प्रतीक माना गया है। पंचतन्मात्र का उद्गम तामस अहंकार से माना गया है। ये मूर्त रूप में नहीं होते। ये ऐसी सूक्ष्म अवस्थाएं हैं, जिनका अनुभव किया जाता है। इसीलिए इन्हें अविशेष रूप में भी संबोधित किया जाता है।

ये पांच तन्मात्र हैं, शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श। इन्हीं अविशेष तन्मात्रों से स्थूल भूतों की सृष्टि होती है। ये स्थूल भूत इंद्रियों द्वारा ग्रहण करके अनुभूति मात्र से समझ आते हैं। इन तन्मात्रों में शब्द से आकाश, रूप से तेज, रस से जल, गंध से पृथ्वी तथा स्पर्श से वायु को आकार प्राप्त होता है। आभासी दुनिया के इन यथार्थों को संवेदनाओं से ही समझा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान ने इन्हीं तन्मात्रों, यानी सूक्ष्मतरंगों को संचार के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की है। इस विज्ञान की जड़ों के सूत्र प्राचीन वैदिक कालीन विज्ञान में ही अंतनिर्हित हैं।

किसी भी दर्शन, इतिहास या विज्ञान का मूल्यांकन करने में सबसे जरूरी वे पहलू हैं, जिनसे किसी परिणाम तक हम पहुंच पाते हैं। जब हमसे कहा जाता है कि पृथ्वी से सूरज 13.7 करोड़ किमी दूर है, तो हमें यह सूचना रहस्यमयी और अविश्वसनीय लगती है, क्योंकि यह तो संभव नहीं है कि प्राचीन ऋषियों या आधुनिक वैज्ञानिकों ने फीता लेकर पृथ्वी से सूर्य के बीच की दूरी की नपाई की हो ?  दरअसल वे सभी प्रणालियां जिनसे हम धरती की उम्र तय करते हैं। तारों और नक्षत्रों की संख्या निर्धारित करते हैं। तत्वों की मात्रा का नाम लेते हैं। गति, बल और ऊर्जा की शक्ति को भी मापने के यंत्र बना लिए गए हैं।

हमारे पौराणिक ग्रंथों में वर्णित रथों में एक से एक हजार तक घोड़े जुते होने के उदाहरण हैं। क्या उन कालखड़ों में इतने चौड़े मार्ग थे, कि एक हजार घोड़े से जुड़ा रथ रास्ते पर चल सके ? दरअसल उन युगों में ऐसे वाहन अस्तित्व में थे, जिनको गति देने वाले इंजन को विभिन्न अश्वशक्ति के रूपों में ढाला जाता रहा था। यही प्राचीन ‘अश्व-शक्ति’आज की ‘होर्स-पावर’है।

संतों के चमत्कारी प्रकरणों की विश्वसनीयता आकाशीय स्पंदन को सुनने वाले कवियों की विश्वसनीयता, भक्त का किसी अतीन्द्रीय शक्ति से मिलने का दावा अथवा उन पर नियंत्रण, ये सब वैज्ञानिक उदाहरण हैं, भले ही वर्तमान विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। दरअसल मनुष्य में अपने आसपास की दुनिया से अलग-अलग पद्धतियों से भिन्न-भिन्न स्तर पर संवाद स्थापित करने की सामर्थ्य है। जब मनुष्य की मानसिक चेतना विकसित हो जाती है, तो वह भावनाओं, अंतर्ज्ञान और मस्तिष्क के साथ संवाद स्थापित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने प्रकृति, भूगोल व खगोलीय जितना भी ज्ञान अर्जित करके वेद, पुराण और उपनिषदों में दर्ज किया है, उनमें इन्हीं पद्धतियों की अह्म भूमिका रही है। दार्शनिक, कवि, वैज्ञानिक और रहस्यवादी भिन्न-भिन्न पथों के पथिक बने रहते हुए अंततः प्रकृति के रहस्यों को जानने के ही जिज्ञासु हैं। इसलिए विज्ञान केवल तकनीकी उपकरणों के आविष्कार की उपलब्धि भर नहीं हैं, मानव उद्यम और मानवीय भावनाओं की उदात्त अभिव्यक्ति भी है।

अंततः श्रावकों विज्ञान प्रकृति के तथ्यों व सत्यों पर आश्रित प्रकृति का दर्शनशास्त्र ही है। फर्क इतना है कि विज्ञान प्रकृति की केवल बाहरी दुनिया की पड़ताल करता है। परमाणु ऊर्जा का आविष्कार और फिर उस पर नियंत्रण विज्ञान का बड़ा चमत्कार कहा जा सकता है, लेकिन विज्ञान तत्वों में, अदृश्य रूप में जो अणु-परमाणु कण हैं, उनका स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर पाया है।

इसलिए कहना मुश्किल ही है कि जिन अनुभूतियों के द्वारा विचार, मूल्य, सुख, दुख, ख़ुशी व हास्य शरीर में एकाएक उत्पन्न हो जाते हैं, क्या विज्ञान इस तंत्र के वास्तविक रहस्यों तक पहुंच पाएगा ? इसीलिए तन्मात्रात्मक जो सूक्ष्म संवेदनाएं शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श हैं, उनका केवल आभास किया जा सकता है।

इन्हें और सरल रूप में समझते हैं। प्रकृति की जो अंदरूनी दुनिया है उसे हम कैसे अनुभव करते हैं, संगीत की लय को हम कहां देख पाते हैं ? किंतु लय को सुनने वाले कान हमारे पास हैं। वह आवाज भी हम कहां देख पाते हैं, जो लय को प्रतिध्वनित करती है, किंतु आवाज निकालने के लिए मुंह हमारे पास है। गैसों को भी हम कहां देख पाते हैं, लेकिन गंध को अनुभव करने के लिए नासिका छिद्र हमारे पास हैं। उन सूक्ष्म तरंगों को भी हम कहां देख पाते हैं, जिन पर पूरी संचार प्रणाली टिकी है।

कंप्युटर व मोबाइल तकनीक आज सर्वव्यापी है, किंतु हम साॅफ्टवेयर की बुद्धि और वेब फंक्शन को कहां देख पाते हैं ? इसलिए कोई महात्मा या अघोरी यह दावा करता है कि उनका अत्माओं या प्रेतात्माओं से संवाद कायम हो जाता है तो इसमें सत्यता हो सकती है। लेकिन यदि वह यह दावा करता है कि वह किसी का भाग्य बदल सकता है, अनहोनी को टाल सकता है तो यह असत्य है। विधाता के नियमों पर नियंत्रण संभव नहीं है। दरअसल परिकल्पनाएं वे छवियां हैं, जिनका सृजन मस्तिष्क करता है। इसीलिए इन कल्पनाओं की उड़ान भरकर अभी तक हमने जो सीखा है, वह महज मुट्ठीभर है, जबकि जो सीखना है, वह अपार है, अनंत है।

शिव के अन्य विविध अंगों-उपांगों का रहस्य वर्णन करते हैं। शिव को पुराणों में दस भुजाओं वाला भी दर्शाया है। ये भुजाएं, दस दिशाओं की प्रतीक है। उनके हाथों में जो दस प्रकार के आयुध हैं, वे दस कारणों के अधिष्ठाता होने के साथ, दस देवताओं की प्रतिकात्मक शक्ति के प्रतीक हैं। शिव अपने मस्तक पर पंचमी को प्रकट करने वाले चंद्रमा का आकार रूप धारण किए हुए हैं। इसीलिए शिव को चंद्रधर, चंद्रशेखर या चंद्रमौली कहा जाता है।

चंद्रमा को सात्विक अंहकार का भी प्रतीक माना गया है। चंद्रमा की कपाल पर यह उपस्थिति उनके मनोहारी होने के भाव को भी अभिव्यक्ति देती है। पंचमी के इस चंद्रमा का जो कला रूप शिव के भाल पर प्रस्तुत है, उसका संबंध चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं से भी है, जो शिव के अंतर्मन में आलोड़ित होने वाले संकल्प व विकल्प की असमंजस रूपी मनस्थिति का प्रतीक भी है।इसीलिए शिव को विकल्पों के विकल्प कहा गया है।

शिव त्रिनेत्रधारी हैं। अर्थात उनकी तीन आंखें हैं। शिव की ये तीन आंखें सूर्य,च्रद्रमा तथा अग्नि की द्योतक हैं। पुराण भी यही कहते हैं..

नेत्राणि त्रीणि तस्याहुः सोमसूर्य-हताशनाः।

इन तीन चक्षुओं को अंहकार के तीन गुण, सत्व, रज तथा तम का भी प्रतीक भी माना गया है।

वैसे, ब्रह्मा ,विष्णु और महेश ईश्वर रूपी तीनों व्यक्तित्वों के जो रूप विभिन्न प्रतीकों के रूप में पुराणों में व्याख्यायित हैं, उन्हें समझना आसान नहीं है, क्योंकि इन रूपों, प्रतीकों और संज्ञाओं में प्रकृति के रूप और क्रियाएं भी अंतर्निहित हैं। इसलिए समुद्र-मंथन के कालखंड में व्यक्ति विकास और सभ्यता के स्थापित होते मूल्यों तक पुराणकारों के समक्ष इतने पात्र, कथानक और घटनाएं कच्चे माल के रूप में सामने आ गई थीं कि उन्हें कविता में ढालने के लिए गागर में सागर भरने की जरूरत तो थी ही, कथ्यों के विस्तृत स्वरूप का संक्षिप्तीकरण भी उनका ध्येय था, इसलिए अनूठे शिल्प में कविता रचकर पात्रों, कथानकों और घटनाओं को रूपवाद में ढालने का मनोहारी वैचित्र्य अपनाया गया। यदि यह रूपवाद अपनाया नहीं जाता तो वाचिक परंपरा के क्रम में अनेक कालखंडों का यह इतिवृत्त कंठस्थ रह ही नहीं पाता।

पुराणों में वर्णित शिव के अलंकारिक रूपों के रहस्यों के जानने की जिज्ञासा के क्रम में शिव के अष्टमूर्ति रहस्य को जानते हैं। पुराणों में शिव के आठ रूप भी दर्शाये गए हैं। ये रूप हैं रुद्र, भव, शर्व, ईशान, उग्र, पशुपति, भीम तथा महादेव हैं। इन्हें आठ रुद्र भी कहा जाता है। इन रुद्रों के निवास स्थान के रूप में सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, दीक्षित, ब्रह्माण्ड एवं चंद्रमा का भी उल्लेख है।

रुद्रों के इन्हीं आवास-स्थलों को अष्टमूर्तियों के प्रतीकों के रूप में जाना जाता है। अर्थात शिव की इन अष्टमूर्तियों में अंततः एक तो मनुष्य की जो आठ मूल प्रकृतियां हैं, पंचतन्मात्र, अहंकार, बुद्धि तथा अव्यक्त उन्हें अभिव्यक्त किया गया है, दूसरे इन्हीं में से पांच पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्व एवं पंचतन्मात्र की और तीन महत् अव्यक्त एवं अहंकार का प्रतीक हैं।

इसी प्रकार चंद्रमा को समाधि रूपों में दर्शाया गया है। वैसे अब विज्ञान ने मान लिया है कि अंततः ब्रह्माण्ड का उद्गम सोम अर्थात चंद्रमा और अग्नि अर्थात सूर्य से अस्तित्व में आया है। भौतिक प्रकृति को बनाने वाले दिन और रात के उदय व अस्त होने की स्थिति भी सूर्य और चंद्रमा की चाल पर निर्भर है। दिन में सूर्य अर्थात अग्नि की प्रधानता रहती है, जबकि रात में चंद्रमा यानी सोम तत्व की। चंद्रमा अपनी-अपनी परिवर्तनशील कलाओं को व्यक्त करता हुआ घटता-बढ़ता रहता है। इसीलिए शिव को काल यानी समय का देवता भी माना गया है।

यदि पंचतत्व से निर्मित संपूर्ण भौतिक जगत की एक यज्ञ के रूप में परिकल्पना करें तो सभी भौतिक पदार्थ यज्ञ की समिधा होंगे, सूर्य उनको जलाने वाली आग और चंद्रमा उसमें दी जाने वाली आहुति और इस सृष्टि रूपी यज्ञ की प्रक्रिया को संपन्न करने वाले व्यक्ति कहलाएंगे भगवान शिव। अर्थात शिव का जो अलंकारिक विलक्षण रूप है, उसमें सृष्टि समाई हुई है। सृष्टि को इतने सूक्ष्म एवं एक रूप में अभिव्यक्त कर देना हमारे पुराणकारों की अनूठी बौद्धिक कल्पनाशीलता का विलक्षण प्रतिबिंब है।

जो प्रकृति है, प्रकृति के रहस्य हैं, जो मनुष्य है, मनुष्य की जो मनस्थितियां हैं, उनको जानने के प्रतीक ब्रह्मा, विष्णु, महेश के माध्यम से जो प्रतिबिंब मूर्तियों में चित्रों और आयुधों के रुपं में प्रक्षेपित हैं, वे मनुष्य की सतत ज्ञान पिपासाएं हैं। अंधेरे से उजाले के कुछ सूत्र खोज लाने के बिंदु हैं, बावजूद आज भी ज्ञान के विविध माध्यम निरंतर क्रियाशील रहने के पश्चात भी अंधेरे का क्षेत्रफल, ज्ञान के वृत्त से कहीं बहुत अधिक विस्तृत है। कुछ वैसे ही स्थिति शिव-रूप के साथ है।

शिव को जितना हमने अभी तक जान लिया है, उससे कहीं ज्यादा जानना शेष अनुभव होता है। क्योंकि शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर भी है और वे शिव लिंग के रूप में भी उपस्थित हैं। यह विशिष्टता दुनिया के किसी अन्यान्य देव रूपों में नहीं है। इसीलिए शिव की प्रकृति जब देखो, तब रहस्यमयी ही अनुभूत होती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)