भगिनी निवेदिता : मार्गरेट नोबल से निवेदिता तक की यात्रा

लंदन से आई मार्गरेट नोबल के लिए भारत में काम करना आग में तपने से कम नहीं थाI एक तरफ नई भाषा, गर्म मौसम, जल-वायु परिवर्तन से पार पाना, वहीं दूसरी तरफ गोरी चमड़ी के लोगों के प्रति उस समय स्थानीय लोगों में जो डर या तिरस्कार का भाव था उसके बीच उनके साथ काम करना अत्यंत कठिन थाI लेकिन मार्गरेट नोबेल ने हर चुनौती को अवसर में परिवर्तित कर दिया और अपनी आखिरी सांस तक भारत की सेवा में लगी रहींI

त्याग, सेवा और समर्पण शब्दों की परिभाषा भगिनी निवेदिता के जीवन से उदाहरणतः स्पष्ट हो जाती हैI सोचने पर यह आश्चर्यजनक ही लग सकता है कि आयरलैंड में जन्मी और इंग्लैंड के लंदन शहर में मात्र 17 वर्ष की उम्र में शिक्षिका बनने वाली, लंदन की बौद्धिक मंडली “सीसेमक्लब” में अपने लेखों और व्याख्यानों से स्वयं को प्रतिष्ठित करने वाली, इंग्लैंड के विम्बलडन शहर में अपना विद्यालय शुरू करने वाली ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल’ अपना सब कुछ त्याग कर अपने गुरु स्वामी विवेकानंद के आह्वान पर उस समय के गुलाम देश भारत में महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र में काम करने आ जाती हैंI

1899 में जब बंगाल में प्लेग महामारी फैलती है तो सड़को पर उतर कर नालियां और कूड़ा भी साफ़ करती हैं और जन साधारण को जागरूक भी करती हैंI अंग्रेज़ों का भारतीयों पर अत्याचार देख कर स्वतंत्रता आंदोलन में भी कूद जाती हैं और अंग्रेजों से भारत की आज़ादी के लिए दो-दो हाथ भी करती हैंI

स्वामी विवेकानंद और भगिनी निवेदिता (साभार : Twitter)

लंदन से आई मार्गरेट नोबल के लिए भारत में काम करना आग में तपने से कम नहीं थाI एक तरफ नई भाषा, गरम मौसम, जल-वायु परिवर्तन से पार पाना वहीं दूसरी तरफ गोरी चमड़ी के लोगों के प्रति उस समय स्थानिक लोगों में जो डर या तिरस्कार का भाव था उसके बीच उनके साथ काम करना अत्यंत कठिन थाI लेकिन मार्गरेट नोबेल ने हर चुनौती को अवसर में परिवर्तित कर दिया और अपनी आखरी सांस तक भारत की सेवा में लगी रहींI

अपने 11 सितम्बर, 1893 के ऐतिहासिक भाषण के बाद स्वामी विवेकानंद अमेरिका के घर-घर में प्रसिद्ध हो गए थेI उनके भाषण सुनने के लिए लोग बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित करना शुरू कर दिए थेI इसी श्रृंखला में उन्हें लंदन से भी निरंतर आमंत्रण आते रहते थेI नवंबर 1895 में स्वामीजी का लंदन में लेडी ईसाबेल मार्गसन के घर मे व्याख्यान रखा गया जिसमें चुने हुए 15-16 लोग ही बुलाए गए थेI भारत के वाइसरॉय लार्ड रिपन की पत्नि लेडी हेनरीटा भी स्वामीजी को सुनने आईंI

इसी दिन पहली बार स्वामीजी और मार्गरेट नोबेल की मुलाकात हुई, जिसका विस्तृत वर्णन हमें उन्हींके द्वारा लिखित पुस्तक ”द मास्टर ऐज़ आई सॉ हिम” में मिलता हैI मार्गरेट स्वामीजी के दार्शनिक ज्ञान, व्यक्तित्व और धर्म को अनुभूति के तौर पर देखने वाली चर्चा से प्रभावित हुईंI

मार्गरेट आने वाले दिनों में उनके अनेक व्याख्यानों में सम्मलित होने लगीं और निरंतर अपनी जिज्ञासाओं के कारण प्रश्न भी करती रहती थींI तब वो स्वामीजी के विचारों से इतनी प्रभावित हुईं कि एक पत्र में वह अपने मित्र को लिखा – ”मानो यदि स्वामीजी उस समय लंदन में आते ही नहीं तो मेरा जीवन निष्प्राण पुतले जैसा होता I”

स्वामी विवेकानंद  मार्गरेट को भारत में आकर भारतीय स्त्रियों के लिए काम करने का आह्वान किया और साथ ही साथ आने वाली सभी चुनौतियों से भी अवगत करवायाI अल्मोड़ा से 29 जुलाई, 1897 को स्वामीजी मार्गरेट नोबल को पत्र में लिखते हैं- ”भारत के कार्य में आपका भविष्य उज्जवल है, ऐसा मुझे विश्वास हैI आवश्यकता है एक स्त्री की, पुरुष की नहीं I भारत की स्त्रियों के लिए कार्य करने वाली एक सिंह के सदॄश्य धैर्यवान स्त्री कीI अपनी विद्या, मन की शुद्धता और केल्टिक वंश से होने के कारण इस कार्य के लिए जैसी स्त्री की आवश्यकता है संयोग से तुम वैसी ही होI”

स्वामीजी मार्गरेट को भारत के अत्यंत गरम मौसम से भी परिचित करवाते हुए कहते हैं कि हमारे यहाँ ठण्ड का मौसम तुम्हारे यहाँ गर्मी के मौसम की तरह होता हैI तुम्हारी गोरी चमड़ी को देख कर या तो लोग तुमसे डरेंगे या तुम्हारा तिरस्कार करेंगे I

साभार : The Better India

इन सब चुनौतियों को स्वीकार करते हुए मार्गरेट नोबेल 28 जनवरी,1898 को अपना परिवार, देश, नाम, यश छोड़कर भारत आती हैंI भारत आने के बाद 25 मार्च, 1898 को स्वामी विवेकानंद उनको ब्रह्मचर्य की दीक्षा देते हैं और निवेदिता नाम भीI

भगिनी निवेदिता का भारत के लिए योगदान

1899 बंगाल प्लेग महामारी में सेवा का कार्य – प्लेग के काम का विशद विवरण “द प्लेग” शीर्षक लेख में दिया गया है जो कि उनकी किताब “स्टडिस फ्राम ए ईस्टर्न होम” में दिया गया हैI मार्च, 1899 में कलकत्ता में प्लेग फैल गया थाI रामकृष्ण मिशन ने प्लेग से निवारण के लिए एक समिति बनाई जिसमें, भगिनी निवेदिता को सचिव का दायित्व दिया गया थाI

उन्होंने वित्तीय सहायता के लिए अखबारों के माध्यम से आह्वान करना, प्लेग से लड़ने के लिए निवारक उपायों से युक्त मुद्रित हैंडबिलों को वितरित करना, युवाओं को जागरूक करने के लिए व्याख्यान देना ऐसे अनेको कार्य किए थे जिसमें ‘द प्लेग एंड स्टूडेंट्स ड्यूटी’ विषय पर क्लासिक थिएटर में छात्रों को दिया हुआ उनका भाषण बहुत महत्वपूर्ण हैI

भगिनी निवेदिता लोगों की सेवा करने के लिए दिन रात मेहनत में लगी रहती थीं! एक दिन जब उनको स्वयंसेवकों की कमी दिखी तो उन्होंने गलियों की सफाई स्वयं शुरू कर दी, वह एक -एक करके झुग्गियों में नालिया साफ़ करने लग गई थींI भगिनी निवेदिता झोपड़ियों में रहने वाली बच्चियों की देखभाल के लिए उनके इलाके में ही पहुंच जाती थींI खास कर उन बच्चियों के घर जिनके माता पिता की मृत्यु प्लेग से हो चुकी थीI

स्त्री शिक्षा के लिए योगदान – भगिनी निवेदिता का भारत में आने के पीछे मुख्य उद्देश्य स्त्री शिक्षा और बालिका विद्यालयों को प्रारंभ करना थाI उस समय गरीबी और गुलाम मानसिकता के कारण कोई अपनी बेटियों को विद्यालय नहीं भेजना चाहता थाI निवेदिता व्याख्यानों के माध्यम से और घर-घर जाकर स्त्री शिक्षा की आवश्यकता को लेकर अनेक माता-पिताओं को जागरूक करती थीं और उनसे लड़कियों को विद्यालय भेजने का आग्रह भी करती थींI

13 नवंबर, 1898 को पहले बालिका विद्यालय की शुरुआत हुईI मात्र 3 बालिकाओं से शुरू हुआ यह विद्यालय जल्द ही स्त्री शिक्षा का केंद्र बन गयाI शिक्षा के साथ-साथ गरीब बालिकाओं के लिए वस्त्र और आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था भगिनी निवेदिता ने कियाI जल्द ही निवेदिता ने गृहिणियों और विधवाओं को भी शिक्षा देना शुरू कर दिया, जिसके कारण वह स्वयं भी भारतीय समाज को निकट से महसूस कर सकीं!

स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी – निवेदिता ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष भारत की स्वाधीनता के लिए ही समर्पित कर दिए। सितम्बर, 1902 से निवेदिता ने सम्पूर्ण भारत का प्रवास शुरू किया और अंग्रेजी शासन की अनैतिक गतिविधयों  के खिलाफ सीधी आवाज़ उठाई। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से  योगी अरविन्द, शिल्पकार अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, चित्रकार नंदलाल बोस, दक्षिण भारत के कवि सुब्रमणियम भारती  आदि अन्य लोगों को भी जोड़ने का प्रयास किया।

इन सब के जुड़ने से  स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं की भागेदारी  में भी वृद्धि आयी और अंग्रेजी शासन पर भी दबाव पड़ा। 1905  में लार्ड कर्जन ने जब बंगाल का  विभाजन कर दिया तो सम्पूर्ण बंगाल में   स्वदेशी आंदोलन शुरू हो गया, जिसमें भगिनी निवेदिता ने सक्रिय भूमिका निभाई। वह अंग्रेजों के खिलाफ जनमत तैयार करने में जुटी रहीं।

स्वास्थ्य गिरने से 13 अक्टूबर, 1911 को 44 साल की उम्र में भगिनी निवेदिता ने दार्जीलिंग में अपनी आखिरी सांस लीI अपने नाम निवेदिता के अनुरूप ही उन्होंने अपना पूरा जीवन भारतीयों की सेवा में समर्पित कर दियाI

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैंI प्रस्तुत विचार उनके निजी हैंI)