‘नारी की गरिमा पुरुष के मुकाबले में खड़े होने में नहीं, उसके बराबर खड़े होने में है’

जब प्रकृति का अस्तित्व ही अर्धनारीश्वर में है, पुरुष और नारी दोनों ही में है, तो दोनों में अपने अपने आस्तित्व की लड़ाई व्यर्थ है। इसलिए नारी गरिमा के लिए लड़ने वाली नारी यह समझ ले कि उसकी गरिमा पुरुष के सामने, उसके मुकाबले में, खड़े होने मे नहीं, उसके बराबर खड़े होने में है। उसकी जीत पुरुष से लड़ने में नहीं, उसका साथ देने में है। इसी प्रकार नारी को कमजोर मानने वाला पुरुष भी यह समझे कि उसका पौरुष महिला को अपने पीछे रखने में नहीं, अपने बराबर रखने में है। उसका मान नारी को अपमान नहीं सम्मान देने में है। उसकी महानता नारी को अबला मानने में नहीं, उसे सम्बल देने में है।

नारी, ईश्वर की वो रचना जिसे उसने सृजन की शक्ति दी है; ईश्वर की वो कल्पना जिसमें प्रेम, त्याग, सहनशीलता, सेवा और करुणा जैसे भावों  से भरा ह्रदय  है। जो  शरीर से भले ही कोमल हो लेकिन इरादों से फौलाद है। जो अपने जीवन में अनेक किरदारों को सफलतापूर्वक जीती है। वो माँ के रूप में पूजनीय  है, बहन के रूप में सबसे खूबसूरत दोस्त  है, बेटी के रूप में घर की रौनक है, बहू के रूप में घर की लक्ष्मी है और पत्नी के रूप में जीवन की हमसफर।

सांकेतिक चित्र

पहले नारी का स्थान घर की चारदीवारी तक सीमित था, लेकिन आज वो हर सीमा को चुनौती दे रही है। चाहे राजनीति का क्षेत्र हो या सामाजिक, चाहे हमारी सेनाएँ हों या कारपोरेट जगत, आज की नारी  हर क्षेत्र में सफलता पूर्वक दस्तक देते हुए देश की तरक्की में अपना योगदान दे रही है। समय के साथ नारी ने परिवार और समाज में अपनी भूमिका के बदलाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर सफल भी हुई है, लेकिन आज वो एक अनोखी दुविधा से गुजर रही है।

आज उसे अपने प्रति पुरुष अथवा समाज का ही नहीं, बल्कि उसका खुद का भी नजरिया बदलने का इंतजार है। क्योंकी कल तक जो नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक थे, जो एक होकर एक दूसरे की कमियों को पूरा करते थे, जो अपनी अपनी कमजोरियों के साथ एक दूसरे की ताकत बने हुए थे, आज एक दूसरे से बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन यह समझ नहीं पा रहे कि इस लड़ाई में वे एक दूसरे को नहीं बल्कि खुद को ही कमजोर और अकेला करते जा रहे हैं।

आधुनिक समाज में नारी स्वतंत्रता, महिला सशक्तिकरण, महिला उदारीकरण जैसे भारी-भरकम शब्दों के जाल में न केवल ये दोनों ही बल्कि पूरा समाज ही उलझ-सा गया है। इन शब्दों की भीड़ में हमारे कुछ शब्द, इन कल्पनाओं में हमारी कुछ कल्पनाएँ, इन आधुनिक विचारों में हमारे कुछ मौलिक विचार कहीं खो गए। इस नई शब्दावली और उसके अर्थों को समझने की कोशिश मे हम अपने कुछ खूबसूरत शब्द और उनकी गहराई को भूलते जा रहे हैं। 

अर्द्धनारीश्वर (साभार : Pixel.com)

हम अपनी संस्कृति में नारी और पुरूष की उत्पत्ति के मूल “अर्धनारीश्वर” को भूल गए। भूल गए कि शिव के अर्धनारीश्वर के रूप में शिव  पुरुष का प्रतीक हैं और शक्ति नारी का। भूल गए कि प्रकृति अपने संचालन और नव सृजन के लिए शिव और शक्ति दोनों पर ही निर्भर है। भूल गए कि शिव और शक्ति अविभाज्य हैं। भूल गए कि शिव जब शक्ति युक्त होते  हैं, तो ही वह समर्थ होते हैं। भूल गए कि शक्ति के अभाव में शिव शव समान है। भूल गए कि शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव का कोई आस्तित्व ही नहीं है।

जब प्रकृति का अस्तित्व ही अर्धनारीश्वर में है, पुरुष और नारी दोनों ही में है, तो दोनों में अपने अपने आस्तित्व की लड़ाई व्यर्थ है। इसलिए नारी गरिमा के लिए लड़ने वाली नारी यह समझ ले कि उसकी गरिमा पुरुष के सामने, उसके मुकाबले में, खड़े होने मे नहीं, उसके बराबर खड़े होने में है। उसकी जीत पुरुष से लड़ने में नहीं, उसका साथ देने में है।

इसी प्रकार नारी को कमजोर मानने वाला पुरुष भी यह समझे कि उसका पौरुष महिला को अपने पीछे रखने में नहीं, अपने बराबर रखने में है। उसका मान नारी को अपमान नहीं सम्मान देने में है। उसकी महानता नारी को अबला मानने में नहीं, उसे सम्बल देने में है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)