वसंत पंचमी : ‘भ्रमित मनुष्यता को विद्यादेवी ही सही मार्ग पर ला सकती हैं’

संपूर्ण विश्व का दैनन्दिन कार्य-व्यापार मनुष्य की वाणी पर ही निर्भर करता है। अतः इस संदर्भ में भी वाग्देवी भगवती सरस्वती की सत्ता सर्वोपरि है। महाकवि भवभूति ने ‘उत्तररामचरितम’ नाटक में मधुर वाणी को सरस्वती का स्वरूप बताया है। यह सत्य भी है, क्योंकि यदि मनुष्य की वाणी मधुर होगी तो वह सामने वाले व्याक्ति को प्रभावित कर सकेगा, अपनी ओर आकर्षित कर लेगा और अपने कार्य-प्रयोजन में सफल होगा, परन्तु यदि उसकी वाणी में मधुरता नहीं है तो वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकेगा। मनुष्य हो या पशु-पक्षी सभी को मधुर वाणी माता सरस्वती ही प्रदान करती हैं। इस प्रकार वही मनुष्य की सफलता का कारण हैं। अतः सर्वपूज्य भी हैं।

ऋतुओं में वसंत-ऋतु सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए वसंत को ऋतुओं का राजा माना जाता है। इस ऋतु के प्रवेश करते ही सम्पूर्ण पृथ्वी वासंती आभा से खिल उठती है। वसंत ऋतु के आगमन पर वृक्षों से पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नये पत्ते आना प्रारंभ होते हैं। इस ऋतु के प्रारंभ होने पर शीत लहर धीरे-धीरे कम होने लगती है तथा वातावरण में उष्णता का समावेश होता है। माघ महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी को वसंत ऋतु का आरम्भ स्वीकार किया गया है और इसे महत्त्वपूर्ण पर्व की मान्यता दी गई है।

हिन्दू-धर्म में वसंत पंचमी का विशेष महत्त्व इसलिए भी है, क्योंकि इसी दिन माँ सरस्वती का प्रादुर्भाव माना जाता है। माता सरस्वती विद्या की देवी हैं। उनके पास आठ प्रकार की शक्तियाँ हैं – ज्ञान, विज्ञान, विद्या, कला, बुद्धि, मेधा, धारणा और तर्कशक्ति। ये सभी शक्तियाँ माता अपने भक्तों को प्रदान करती हैं। भक्त को अगर इनमें से कोई शक्ति प्राप्त करनी हो तो वह विद्या की देवी माता शारदा की आराधना करके उनसे उस शक्ति को प्राप्त कर सकता है।

देवी सरस्वती

जिस प्रकार शास्त्रों में सृजन, पालन एवं संहार के प्रतीक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मान्यता है, ठीक उसी प्रकार बुद्धि, धन और शक्ति की प्रतीक सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में त्रिदेवियाँ भी स्वीकृत हैं। इनमें माता सरस्वती प्रथम स्थानीय हैं, क्योंकि धनार्जन एवं रक्षार्थ शक्ति-नियोजन में भी बुद्धिरूपिणी सरस्वती की कृपा की विशेष आवश्यकता रहती है। आचार्य व्याडि ने अपने प्रसिद्ध कोष में ‘श्री’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘श्री’ शब्द अनेकार्थी है और लक्ष्मी, सरस्वती, बुद्धि, ऐश्वर्य, अर्थ, धर्म आदि पुरूषार्थों; अणिमा आदि सिाद्धियों; मांगलिक उपकरणों और सुन्दर वेशरचना आदि अर्थों में भी प्रयुक्त होता है –

लक्ष्मीसरस्वतीधीत्रिवर्गसम्पद्यिभूतिशोभासु।

उपकरणवेशरचना च श्रीरिति प्रथिता।।

स्पष्ट है कि माता सरस्वती बुद्धि, धन, सौन्दर्य, ऐश्वर्य एवं अनेक सिद्धियों से सम्पन्न देवी हैं। लोक में उन्हें अनेक नामों से जाना जाता है जैसे – भारती, ब्राह्मी, वाणी, गीर्देवी, वाग्देवी, शारदा, त्रयीमूर्ति, गिरा, वीणापाणि, पद्मासना और हंसवाहिनी; किन्तु, उनकी सरस्वती संज्ञा ही सर्वाधिक स्वीकृत है।

संपूर्ण विश्व का दैनन्दिन कार्य-व्यापार मनुष्य की वाणी पर ही निर्भर करता है। अतः इस संदर्भ में भी वाग्देवी भगवती सरस्वती की सत्ता सर्वोपरि है। महाकवि भवभूति ने ‘उत्तररामचरितम’ नाटक में मधुर वाणी को सरस्वती का स्वरूप बताया है। यह सत्य भी है, क्योंकि यदि मनुष्य की वाणी मधुर होगी तो वह सामने वाले व्याक्ति को प्रभावित कर सकेगा, अपनी ओर आकर्षित कर लेगा और अपने कार्य-प्रयोजन में सफल होगा, परन्तु यदि उसकी वाणी में मधुरता नहीं है तो वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकेगा। मनुष्य हो या पशु-पक्षी सभी को मधुर वाणी माता सरस्वती ही प्रदान करती हैं। इस प्रकार वही मनुष्य की सफलता का कारण हैं। अतः सर्वपूज्य भी हैं।

बसंत पंचमी पर प्रतिवर्ष देशभर के विद्यालयों में होती है सरस्वती पूजा (सांकेतिक चित्र)

प्राचीन समय में  ऋषि-मुनि सभी प्रकार के राग-द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, मोह-माया आदि मानसिक विकारों को त्याग कर शुद्ध एवं निर्मल मन से सरस्वती माता की उपासना करते थे और लोक-कल्याण की कामना करते थे। विश्व में सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए आज उनकी उपासना की सर्वाधिक आवश्यकता है, क्योंकि अज्ञानता और मानसिक विकारों से घिरी भ्रमित मनुष्यता को वही सत्पथ पर ला सकती हैं। मनुष्य को सद्बुद्धि देकर हिंसा, आतंक और संघर्ष के आत्मघाती अपकर्मों से दूर करने का कार्य विद्यादेवी सरस्वती ही कर सकती हैं।

भगवती सरस्वती के प्रादुर्भाव के विषय में ऐसी मान्यता है कि जब भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा जी संसार में चारों ओर देखते हैं, तो उन्हें संसार में मूक मनुष्य ही दिखाई देते हैं, जो किसी से भी वार्तालाप नहीं करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी भी प्राणी में वाणी ही ना हो। यह सब देखकर ब्रह्मा जी अत्यंत दुखी हो जाते हैं। तत्पश्चात वे अपने कलश से जल लेकर छिड़कते हैं। वह जल वृक्षों पर जा गिरता है और एक शक्ति उत्पन्न होती है जो अपने हाथों से वीणा बजा रही होती है और वही बाद में सरस्वती माता का रूप लेकर संसार में पूजित होती है।

वेदों में सरस्वती नदी को भी वाग्देवी का रूप माना गया है। लोक-मान्यता है कि इस नदी के सामने बैठकर सरस्वती माता की पूजा करने से उन की सीधी कृपा अपने भक्तों पर बनी रहती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार माता का वाहन हंस है। माता के पास एक अमृतमय प्रकाशपुंज है जिससे वे निरंतर अपने भक्तों के लिए अक्षरों की ज्ञान-धारा प्रवाहित करती हैं।

विश्व के समस्त सद्ग्रन्थ भगवती सरस्वती के मूर्तिमान विग्रह हैं। अतः वेद, पुराण, रामायण, गीता सहित समस्त ज्ञानगर्भित ग्रंथों का आदर करना चाहिए। ऐसे सभी ग्रंथों को माता का स्वरूप मानते हुए अत्यंत पवित्र स्थान पर रखना चाहिए। माता उपासना करने मात्र से अपने भक्तों से परिचित हो जाती हैं और सदा अपने भक्त की रक्षा करती हैं। इसलिए वसंत पंचमी के दिन भारत के अधिकांश विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में सरस्वती माता की उपासना के विशेष अनुष्ठान आयोजित होते हैं।

(लेखक पत्रकारिता के छात्र हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)