विपक्ष की विचारशून्यता

राहुल गांधी अगर मानते हैं कि कांग्रेस के पास राष्ट्रीय विचार है तो उन्हें देश को बताना चाहिए। लेकिन पूरे दक्षिण और मध्य भारत की यात्रा पूरी कर चुके राहुल गांधी और उनके पिछलग्गू नेताओं के विचारों में ऐसी कोई रचनात्मक सोच नहीं दिखी है। घूम-फिर कर वे ‘मोदी हटाओ’ का राग ही अलाप रहे हैं। अगर ‘मोदी हटाओ’ ही कांग्रेस का कथित राष्ट्रीय विचार है तो यह मान लेने में कोई गुरेज नहीं कि कांग्रेस अपनी विचारपंगुता के सबसे बुरे दौर में जा चुकी है।

राहुल गांधी ने अपनी पदयात्रा के दूसरे चरण की शुरुआत से पहले समाजवादी पार्टी को लेकर एक टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘समाजवादी पार्टी के पास राष्ट्रीय विचारधारा नहीं है।’ इस बयान के बहाने राहुल गांधी ने यह बताने का प्रयास किया कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के बरक्स कांग्रेस ही राजनीतिक शक्ति है।

भले ही राहुल गांधी द्वारा यह बयान समाजवादी पार्टी का नाम लेकर दिया गया है लेकिन विपक्षी एकजुटता की अगुवाई करने का सपना पाले नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी तथा केसीआर जैसे क्षेत्रीय दलों के नेताओं को यह जरा भी पसंद नहीं आया होगा। लिहाजा निश्चित ही इससे महत्वाकांक्षाओं के टकराव को भी बल मिलेगा।

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि विपक्षी एकजुटता की राह में एकमात्र अड़चन कांग्रेस तथा क्षेत्रीय दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का टकराव भर है। सही मायने में देखें तो भारत के लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की एकजुटता के इतिहास में हुए अनेक प्रयोगों से न तो कांग्रेस ने सबक लिया है और न ही क्षेत्रीय दल बुनियादी गलती को समझ पाए हैं। भाजपा ने सबक भी लिया, सुधार भी किया और सफल भी है।

विपक्षी एकजुटता की हवा दे रहे कांग्रेस सहित अन्य दलों को समझना चाहिए कि सत्ता को उखाड़ फेंकने तथा सत्ताविरोधी विचारों के साथ देश में अबतक जितनी भी राजनीतिक एकजुटता बनी है, उसका कोई स्थायी भविष्य नहीं रहा है। ऐसे गठबंधन एक चुनाव में असर भले किये, लेकिन आपसी बिखराव और विघटन से खुद को नहीं बचा पाए हैं। इसे समझने के लिए इतिहास की कुछ घटनाओं पर नजर डालनी होगी।

देश में हुए 1951-52 के पहले आम चुनावों के बाद कांग्रेस विरोधी दलों की राजनीतिक ताकत संख्या बल में बहुत मजबूत नहीं थी। इसके बावजूद कांग्रेस के विचारों से असहमत, जनसंघ-हिन्दू महासभा-गणतंत्र परिषद-अकाली दल, जैसे कुछ राजनीतिक दल सदन में एकजुट हुए थे। विरोध का आधार विचार था, व्यक्ति नहीं।

कालक्रम में कांग्रेस ‘व्यक्ति व परिवार’ केन्द्रित होती गयी तो विरोध का आधार भी स्वाभाविक रूप से ‘व्यक्ति व परिवार’ केन्द्रित ज्यादा हुआ। समाजवादियों द्वारा गैर-कांग्रेसवाद के नारे में भी ‘नेहरू-इंदिरा’ के विरोध के स्वर अधिक मुखर होकर दिखते थे।

व्यवस्थित रूप से राजनीतिक दलों के व्यापक गठबंधन का पहला बड़ा प्रयोग 1967 के लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव में हुआ। इसमें समाजवादी दल और जनसंघ साथ आये। इस एका की वजह थी कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना, अर्थात कांग्रेस हटाओ। लेकिन महज दो-तीन साल के भीतर गठबंधन का यह प्रयोग विफल हो गया। इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस दोबारा और मजबूती से सत्ता में लौटी।

विपक्षी दलों की एकजुटता का दूसरा और 1967 से भी बड़ा प्रयोग 1977 के आम चुनावों में हुआ। इस गठबंधन के मूल में भी सत्ता उखाड़ने और नई सरकार लाने का ही ‘विरोध मूलक’ पुराना विचार था। इसका हश्र भी उतना ही बुरा हुआ और जनता पार्टी सरकार अंतर्द्वंद और विघटन की भेंट चढ़ गयी।

सत्ता विरोधी विचार के साथ तीसरी बड़ी एकजुटता 1989 में हुई। कांग्रेस से ही निकले वीपी सिंह की अगुवाई में जनता दल ने राजीव गांधी को हटाने का मोर्चा खोल दिया। कांग्रेस हार भी गयी। लेकिन इस गठबंधन का हश्र भी अलग नहीं हुआ। आपसी टूट और बिखराव ने कांग्रेस को फिर सत्ता में आने का मौका दिया।

लगभग चार दशक तक सत्ता विरोधी राजनीति करने के अभ्यस्त हो चुके भाजपा नेताओं को वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद यह समझ में आ गया कि राजनीतिक एकजुटता का ‘सत्ता विरोधी’ विचार केन्द्रित ‘विरोधमूलक गठबंधन’ फार्मूला लोकतंत्र में टिकाऊं नहीं है। उन्हें गठबंधन के उस फार्मूले को खोजना होगा जो सरकार चलाने के लिए रचनात्मक विचारों पर केन्द्रित हो। अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीछे यही सोच थी।

यह गठबंधन चला भी और अभी भी चल रहा है। उसी तर्ज पर आगे चलकर कांग्रेस ने भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बनाया और दस साल सरकार चलाई। विरोध मूलक विचारों वाले तीसरे मोर्चे को 1998 के बाद देश ने कभी महत्व नहीं दिया।

इतिहास से सबक लें तो आज की राजनीति में ‘मोदी हटाओ’ के विचारों वाली राजनीति  फिर उसी गलती को दोहराने जैसी है, जो अतीत में अनेक बार हुई है। ऐसे में राहुल गांधी अगर मानते हैं कि कांग्रेस के पास राष्ट्रीय विचार है तो उन्हें देश को बताना चाहिए। लेकिन पूरे दक्षिण और मध्य भारत की यात्रा पूरी कर चुके राहुल गांधी और उनके पिछलग्गू नेताओं के विचारों में ऐसी कोई रचनात्मक सोच नहीं दिखी है। घूम-फिर कर वे ‘मोदी हटाओ’ का राग ही अलाप रहे हैं। अगर ‘मोदी हटाओ’ ही कांग्रेस का कथित राष्ट्रीय विचार है तो यह मान लेने में कोई गुरेज नहीं कि कांग्रेस अपनी विचारपंगुता के सबसे बुरे दौर में जा चुकी है।

सेना के पराक्रम पर संदेह, भारत तोड़ो का नारा देने वालों से गलबहियां, फोटो पीआर वाले स्टंट, देश की मान-मर्यादा को कमजोर करने वाले बयान देकर कांग्रेस भला किस विचार के साथ जनता के बीच जाना चाहती है ?

भारत जोड़ो के विचार से सर्वाधिक मेल खाता काम मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 समाप्त करके किया है। क्या कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार के इस कदम का समर्थन करती है ?  नेहरू सरकार के रहते भारत का हजारों वर्ग किमी हिस्सा 1962 में चीन के कब्जे में चला गया। क्या राहुल गांधी के भारत जोड़ो के नारे में उस हिस्से को वापस लेने का संकल्प है ?

1947 में भारत-पाक विभाजन हुआ। देश दो हिस्सों में टूट गया। क्या राहुल गांधी के भारत जोड़ो के नारे में उस घटना के प्रति कोई खेद का भाव है ? अगर इन सवालों पर कांग्रेस पार्टी अपनी वैचारिक स्पष्टता नहीं जाहिर करेगी तो फिर उनके भारत जोड़ो के नारे का औचित्य क्या बचेगा ?

अपनी पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने अडाणी-अंबानी का नाम बार-बार लिया। अगर उन्हें देश के इन दोनों उद्योगपतियों के कारोबार नीति से आपत्ति है तो उन्हें स्पष्टता से बताना चाहिए कि कांग्रेस इसपर क्या सोचती है ? उन्हें यह भी बताना चाहिए कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकारें अडाणी के साथ व्यापारिक समझौते क्यों कर रही हैं ?

मोदी सरकार की अर्थनीति, समाजनीति, रक्षानीति, सीमा सुरक्षा नीति, विदेश नीति की आलोचना करने की बजाय कांग्रेस को यह बताना चाहिए कि इन विषयों उनकी नीति क्या है ? अगर उनकी नीति इतनी कारगर है तो इतिहास की गलतियों का गुनाह किसका माना जाए?

एक राष्ट्रीय विचार के साथ विपक्षी एकजुटता की मंशा रखने से पहले राहुल गांधी को कांग्रेस का राष्ट्र को लेकर रचनात्मक विचार क्या है, अपनी यात्रा में बताना चाहिए। फिलहाल कांग्रेस इससे कोसो दूर ‘मोदी हटाओ’ की यूटोपिया में जी रही है। इसका हश्र वैसा ही होगा जैसा अतीत में हुआ है। कम से कम आज की तारीख में देश ‘मोदी हटाओ’ का विचार सुनने और स्वीकारने को बिलकुल भी तैयार नहीं है।

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फैलो हैंl)