महागठबंधन

मोदी सरकार की नीतियों पर जनता की मुहर हैं चुनावी नतीजे

बिहार के साथ-साथ इन उपचुनावों के नतीजों को नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल की नीतियों, उपलब्‍धियों पर जनमत संग्रह के तौर पर देखा जा रहा है।

‘मोदी ने महागठबंधन के विषय में जो कहा था, वो एकदम सच साबित हुआ’

शिखर पर तो दोनों पार्टियों की दोस्ती हो गई। लेकिन जमीन पर ऐसा खुशनुमा माहौल नहीं बन सका। डेढ़ दशक तक दोनों के बीच तनाव रहा। इनके लिए यह सब भूल जाना मुश्किल था। पहले कांग्रेस फिर बसपा से गठबन्धन के समय अखिलेश यादव ने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया जिसके चलते सपा को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे भी इस तरह के सिद्धांतहीन गठजोड़ का यही हश्र होना था।

क्या लोकसभा चुनाव के साथ ही बुआ-बबुआ का लगाव भी खत्म हो गया?

उत्तर प्रदेश की सियासत में इन दिनों कुछ ऐसा हो रहा है जिसे आप हास्यास्पद कह सकते हैं। यहाँ जितनी तेजी के साथ गठबंधन बना उससे कहीं तेजी से उसका पटाक्षेप भी होता दिख रहा है। आम चुनाव से ठीक पहले मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए मायावती और अखिलेश ने चुनावी गठबंधन किया, जिसका आशय था दलित और यादव वोट बैंक को एकदूसरे के खाते में

संसद में मोदी ने जो कहा है, उसकी गूँज दूर तक जाएगी!

बीते दिनों संसद के बजट सत्र का समापन हुआ। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना महत्‍वपूर्ण भाषण दिया। भाजपा सरकार के मौजूदा कार्यकाल का यह अंतिम भाषण था, इसलिए भी इसका विशेष महत्‍व था। इसमें उन्‍होंने न केवल विपक्ष के समय-समय पर लगाए जाने वाले आरोपों का सिलसिलेवार, तथ्‍यपरक जवाब दिया बल्कि मौजूदा सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए विपक्ष के व्‍यक्तिगत प्रहारों का भी जमकर पलटवार किया।

महागठबंधन: हर हप्ते बदल रहा विपक्ष का प्रधानमंत्री उम्मीदवार

चुनाव से पहले देश की राजनीति बहुत हो रोचक दौर में प्रवेश कर गई है। विपक्षी गठबंधन का आलम यह है कि विपक्ष की तरफ से हर हफ्ते प्रधानमंत्री पद के नए दावेदार सामने आ रहे हैं। आज उन्हीं नामों की चर्चा जो प्रधानमंत्री पद की रेस में बने हुए हैं।कांग्रेस देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है (संसद में वैसे कांग्रेस को विपक्षी दल का स्टेटस हासिल नहीं है), जिसके अध्यक्ष राहुल गाँधी पिछले कई सालों से प्रधानमंत्री पद की दौड़ में लगातार बने हुए हैं।

महारैली : साबित हुआ कि विपक्षी दलों के पास मोदी विरोध के सिवा और कोई एजेंडा नहीं है!

कोलकाता की विपक्षी महारैली में कहने को लगभग बीस पार्टियों की भागीदारी हुई, लेकिन इनमें से किसी का भी पश्चिम बंगाल की राजनीति में महत्व नहीं है। रैली का पूरा इंतजाम ममता बनर्जी ने अपने लिए किया था। उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधने के प्रयास किया। पहला तो वह अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू करना चाहती थीं। इसके लिए भीड़ जुटाई गई। दूसरा, वह

मायावती के झटके के बाद महागठबंधन की खिचड़ी पकना आसान नहीं

गत मई में हुआ कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह विपक्ष के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। विपक्ष का शायद ही कोई बड़ा नेता ऐसा रहा हो, जिसने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई हो। जिनको कर्नाटक में कोई ठीक से जानता पहचानता नहीं था, वह भी विजेता भाव के प्रदर्शन में पीछे नहीं थे।

मायावती के झटके के बाद क्या होगा महागठबंधन का भविष्य?

मायावती जानती हैं कि गठबन्धन की बात विकल्पहीनता की स्थिति  के कारण चल रही है। यदि सपा कमजोर नहीं होती तो आज भी बुआ के संबोधन में तंज ही होता। ऐसे में मायावती गठबन्धन नहीं सौदा करना चाहती हैं। गोरखपुर और फूलपुर में भी उन्होंने समझौता ही किया था। उन्होंने शर्तो के साथ ही समर्थन दिया था। इसमें उच्च सदन के लिए समर्थन की शर्त लगाई गई थी। लेकिन अखिलेश मायावती की शर्त को पूरा नहीं कर पाए थे।

बिहार के सुस्त विकास को फिर गति देगी जदयू-भाजपा सरकार

नीतीश कुमार के इस्तीफे को सिर्फ मौजूदा घटनाक्रम से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। महागठबंधन के बैनर के तले नीतीश कुमार जरूर मुख्यमंत्री बन गये थे, लेकिन वे अपनी छवि के मुताबिक काम नहीं कर पा रहे थे। उनके अतंस में अकुलाहट थी। देखा जाये तो परोक्ष रूप से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री के रूप में कार्य कर रहे थे।

बिहार की जनता के लिए जरूरी हो गया था महागठबंधन सरकार का अंत !

बिहार के महागठबंधन में महीनों से चल रही खींचतान आखिर बीती 26 जुलाई की शाम तब एक निर्णायक मोड़ पर पहुँच गयी, जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव का इस्तीफा देने से इनकार के बाद नीतीश ने यह निर्णय लिया। इस्तीफा देकर निकलते हुए उन्होंने कहा कि मौजूदा माहौल में उनके लिए सरकार चलाना संभव