वर्तमान दौर में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं गांधी और शास्त्री के विचार

ये कहने की आवश्यकता नही कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन दोनों ही महापुरुषों का योगदान अकथनीय तथा अविस्मरणीय है। पर बावजूद इसके ये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय के साथ हमने इन नेताओं को मात्र भाषणों, विमर्शों और पोथियों तक सीमित कर दिया। जबकि इन नेताओं ने अपने समग्र जीवन में बड़ी-बड़ी बातों की बजाय बड़े काम करने को महत्व दिया था। इन्होंने जो भी कहा, वो हर एक शब्द कठिन परिश्रम और सच्चे अनुभव की आंच में तपा हुआ खरा सोना था। उसमे खोट की कोई गुंजाइश नही थी।

२ अक्तूबर की तारीख भारतीय स्वतंत्रता इतिहास की दो महान विभूतियों का जन्मदिवस लेकर आती है। जहाँ पहली विभूति हैं भारत समेत पूरी दुनिया को अहिंसा और सत्य का पाठ पढ़ाने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी तो वहीं दूसरी विभूति हैं स्वाभिमान और सादगी की जीवंत मूर्ति लाल बहादुर शास्त्री। ये कहने की आवश्यकता नही कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन दोनों ही महापुरुषों का योगदान अकथनीय तथा अविस्मरणीय है। पर बावजूद इसके ये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय के साथ हमने इन नेताओं को मात्र भाषणों, विमर्शों और पोथियों तक सीमित कर दिया। जबकि इन नेताओं ने अपने समग्र जीवन में बड़ी-बड़ी बातों की बजाय बड़े काम करने को महत्व दिया था। इन्होंने जो भी कहा, वो हर एक शब्द कठिन परिश्रम और सच्चे अनुभव की आंच में तपा हुआ खरा सोना था। उसमे खोट की कोई गुंजाइश नही थी। 

अपने समग्र जीवन को ‘सत्य के प्रयोग’ का नाम देने वाले अहिंसा के पुजारी  महात्मा गाँधी ने कभी कहा था, “सच्ची अहिंसा मृत्युशैया पर भी मुस्कराती रहेगी। अहिंसा ही वह एकमात्र शक्ति है जिससे हम शत्रु को अपना मित्र बना सकते हैं और उसके प्रेमपात्र बन सकते हैं।” इन शब्दों के द्वारा हम समझ सकते हैं कि गाँधी का अहिंसा-प्रेम किस स्तर पर था। उनका मानना था कि बेशक सामने वाला प्रहार करे, पर हमें प्रहार नही करना है। बताया जाता है कि गाँधी प्रायः  अपने साथ गीता की पुस्तक रखते थे और उन्होंने उसे अपनी सबसे प्रिय पुस्तक भी कहा था। आज भी ऐसा कहने और गीता पढ़ने वाले बहुतों मिलेंगे, पर गाँधी की तरह गीता को अपने दैनिक जीवन में उतारने वाला शायद ही कोई हो। गीता तो उनके पूरे आचरण में बड़े ही सरल और स्पष्ट रूप से झलकती थी।

इसी संदर्भ में ये भी उल्लेखनीय होगा कि अनु बंद्योपाध्याय द्वारा अपनी पुस्तक ‘बहुरूप गाँधी’ में गाँधी के मोची, बढ़ई, महतर आदि तमाम रूपों का वर्णन करते हुए उन्हें ‘कर्मयोगी’ से सूचित किया गया है। अतः इन सब बातों को देखते हुए अगर ये कहें तो शायद अतिशयोक्ति नही होगी कि गीता पर बड़ी-बड़ी टीकाएँ और मोटे-मोटे ग्रंथ लिखने वाले तो अनेकों हुए हैं, पर अगर गीता को सही मायने में किसीने जाना तो वो मोहनदास करमचंद गाँधी थे। अगर सही ढंग से विचार किया जाए तो प्रश्न ये नही है कि गाँधी क्या थे, बल्कि प्रश्न तो ये है कि गाँधी क्या नही थे ? महानता की वो कौन सी पराकाष्ठा है, जिसे गाँधी ने न छुआ हो।

लगभग सबको पता होगा कि गाँधी ने अपने बाल्यकाल से लेकर यौवनकाल तक में बहुत सारी गलतियाँ की थी। चोरी करना, जुआ खेलना, मांस खाना, झूठ बोलना और कस्तूरबा पर अत्याचार करना आदि अनेक गलतियाँ हुई थी उनसे। पर बावजूद इनके अगर वो मोहनदास से महात्मा गाँधी बने तो इसके लिए यही कारण था कि उन्होंने अपनी गलतियों से सीखा और उन्हें सुधारा नकि उनकी पुनरावृत्ति करते गए। अगर उनसे कोई गलती हो जाती तो वो सिर्फ उसपर पाश्चाताप नही करते थे, बल्कि उसे दूबारा न करने की प्रतिज्ञा भी करते थे और उसे दृढ़ता से निभाते भी थे। बस उनका यही आचरण था जिसने कि उन्हें देश-काल की सीमाओं से परे लोगों के ह्रदयतल में अनंतकाल के लिए स्थापित कर दिया।

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गाँधी से बात मोड़ते हुए अब गाँधी के ही विचारों से प्रभावित लाल बहादुर शास्त्री पर एक नज़र डालें तो हम देखते हैं कि आज़ाद भारत के इतिहास में शास्त्री जी  जैसे विनम्र, स्वाभिमानी, सादगीपूर्ण और ईमानदार नेता बहुत कम हुए हैं। शास्त्री जी के ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के नारे को भाषणों में इस्तेमाल करने वालों की तो कोई कमी नही होगी, पर इस नारे को अगर सही मायने में किसीने चरितार्थ  किया तो वो स्वयं शास्त्री जी ही थे। इस संदर्भ में बताना होगा कि शास्त्री जी के जेल प्रवास के दौरान स्वयंसेवक संस्था द्वारा उनके परिवार को मासिक खर्च के लिए मात्र ५० रूपये भेजे जाते थे। इन पचास रूपयों में भी उनका परिवार १० रूपये बचा लेता था। लिहाजा शास्त्री जी ने वो १० रूपये गरीब परिवारों को देने को कह दिया। जब ये बात पं. नेहरू को पता चली तो वो शास्त्री जी के त्याग और सादगी के कायल होते हुए बोले, “मैंने बहुत लोगों को त्याग करते देखा है, पर आपका  त्याग तो सबसे ऊपर है।”

ऐसी और भी बहुत सी घटनाएँ हैं जो शास्त्री जी के त्याग और ईमानदारी को दर्शाती हैं। देश के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें जो सुविधाएँ मिलीं उनका निजी लाभ के लिए उन्होंने कभी उपयोग नही किया, बल्कि अपने वेतन का एक हिस्सा आजीवन गरीबों के लिए देते रहे। सन १९६५ में पाकिस्तान द्वारा अचानक हुए हमले के समय देश के तीनों सेना प्रमुखों से शास्त्री जी ने अत्यंत दृढ़ता के साथ कहा था कि आप देश की रक्षा कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। आज भी वैसी ही दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है और संतोषजनक बात यह है कि वर्तमान सरकार ऐसी दृढ़ता का परिचय दे रही है।

आज जरूरत है कि हमारे वर्तमान नेताओं द्वारा गाँधी और शास्त्री जैसे नेताओं को किताबों और भाषणों तक सीमित करने की बजाय उन्हें अपने चरित्र में उतारा जाए। ऐसा किया जाता है तो हमारी राजनीति भी स्वच्छ होगी,  नेताओं के प्रति जनता में विश्वास भी कायम होगा और राष्ट्र भी प्रगति के नित नए आयाम गढ़ेगा। साथ ही सही मायने में यही हमारे उन महान नेताओं के लिए हमारी सच्ची श्रद्धा का प्रतीक भी होगा। अन्यथा उनकी लाख मूर्तियां बनाने और उनपर लाख ग्रंथ प्रकाशित करने की प्रतिकात्मकताओं का कोई अर्थ नही है। बहरहाल, वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए जा रहे प्रयास इस दिशा  में निश्चित तौर पर आशा जगाने वाले हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)