न्यू इंडिया के लक्ष्य को साकार करने के लिए ये है मोदी सरकार की कार्ययोजना

केंद्र सरकार की योजनाओं की सफलता का एक प्रमुख आधार यह होता है कि उसमें राज्य सरकारें कितना सहयोग कर रही हैं। अब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार हो, तब तो स्वाभाविक रूप से सहयोग की स्थिति कायम हो जाती है। लेकिन, विपक्षी दलों की किसी राज्य सरकार द्वारा केंद्र सरकार के साथ सहयोगात्मक सम्बन्ध दुर्लभ रूप से ही दिखाई देते हैं। आमतौर पर विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारों का केंद्रीय योजनाओं के प्रति ढिलाई का रवैया ही देखा जाता है। इस तरह की समस्याओं के मद्देनज़र ही प्रधानमंत्री नीति आयोग की पहली बैठक से संघ और राज्य के बीच परस्पर सहयोग की बात करते रहे हैं।

गत दिनों देश में बदलाव के लिए नीति आयोग के सञ्चालन परिषद् की तीसरी बैठक हुई। इससे पूर्व आयोग की दो बैठकें २०१५ के फ़रवरी और जुलाई में हुई थीं। इस बैठक में पूर्व की दोनों बैठकों में लिए गए निर्णयों की समीक्षा की गयी और यह देखा गया कि उन निर्णयों पर कहाँ तक प्रगति हुई है। गौर करें तो पहली बैठक में लिए गए निर्णयों में प्रमुख था कि संघ और राज्यों के बीच आपसी सहयोग को बढ़ाया जाएगा। बहरहाल, ताज़ा बैठक में देश में बदलाव लाने के लिए सात साल के रणनीतिक ब्योरे समेत तीन साल की पूरी कार्ययोजना को प्रस्तुत किया गया।

गौरतलब है कि बीते एक अप्रैल को सरकार ने पंचवर्षीय योजना को समाप्त कर दिया। अब इसीकी जगह तीन वर्षीय योजना लायी गयी है। इसे थोड़ा और अच्छे से समझें तो ये योजनाओं की त्रिस्तरीय व्यवस्था है। पंद्रह वर्षों की समग्र कार्ययोजना, सात वर्षों की मध्यमावधि रणनीति और तीन वर्षों की लघु अवधी योजना – इन तीनों प्रकार की कार्ययोजनाओं के पीछे कहीं न कहीं प्रधानमंत्री मोदी के न्यू इंडिया के नारे को धरातल पर साकार करने की मंशा दिखाई देती है।  इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि बैठक की अध्यक्षता कर रहे प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘मैं इस बात से सहमत हूँ कि ‘न्यू इंडिया’ का लक्ष्य तभी साकार हो सकता है, जब राज्य और उसके मुख्यमंत्री मिलकर प्रयास करें। राज्य भी अब नीति निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे।‘

नीति आयोग की तीसरी बैठक (साभार : गूगल)

दरअसल केंद्र सरकार की योजनाओं की सफलता का एक प्रमुख आधार यह होता है कि उसमें राज्य सरकारें कितना सहयोग कर रही हैं। अब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार हो, तब तो स्वाभाविक रूप से सहयोग की स्थिति कायम हो जाती है। लेकिन, विपक्षी दलों की किसी राज्य सरकार द्वारा केंद्र सरकार के साथ सहयोगात्मक सम्बन्ध दुर्लभ रूप से ही दिखाई देते हैं। आमतौर पर विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारों का केंद्रीय योजनाओं के प्रति ढिलाई का रवैया ही देखा जाता है।

अक्सर केंद्र से अपेक्षित सहयोग न मिल पाने या फिर उस पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए वे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती देखी जाती हैं। इस तरह योजनाएं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पातीं। नरेंद्र मोदी सरकार ने कई महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की घोषणा की है। अब ज्यादातर राज्यों में तो भाजपा की सरकार है, मगर फिर भी अभी तमाम राज्य ऐसे हैं, जहां भाजपा नहीं है। ऐसे में, केंद्र सरकार की योजनाओं को उन राज्यों में अमलीजामा पहनाना काफी मुश्किल हो रहा है।

साभार : द फाइनेंसियल एक्सप्रेस

उदाहरण के तौर पर देखें तो केंद्र सरकार द्वारा एक देश-एक कर के तहत लाया गया जीएसटी क़ानून अब लागू होने वाला है। मगर, इसमें प्रावधान है कि ये किसी भी राज्य में वहाँ की सरकार की इच्छा से ही लागू होगा। अब भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने तो इसको लागू करने के लिए पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी हैं, मगर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा आदि में इसे लागू करवाना सरकार के लिए कठिन साबित हो सकता है। ऐसे ही सरकार की और भी तमाम योजनाओं और नीतियों को विपक्ष शासित राज्यों तक पहुंचाने में वहाँ की राज्य सरकारों का असहयोग आड़े आ रहा है। इस तरह की समस्याओं के मद्देनज़र ही प्रधानमंत्री नीति आयोग की पहली बैठक से संघ और राज्य के बीच परस्पर सहयोग की बात करते रहे हैं। इस बैठक के माध्यम से भी विपक्षी मुख्यमंत्रियों को विश्वास में लेने का प्रयास किया गया है।

इस बैठक में देश के अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने हिस्सा लिया। विपक्ष शासित राज्यों में से पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई. के. पलानीस्वामी बैठक में शामिल हुए और ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी मौजूद रहे। शेष भाजपा शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी रही। इनके अलावा केंद्रीय मंत्रियों में नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, सुरेश प्रभु, प्रकाश जावड़ेकर, राव इंद्रजीत सिंह तथा स्मृति ईरानी भी बैठक में शामिल हुए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को छोड़कर शेष सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इस बैठक में शिरकत करने पहुंचे। हालांकि केजरीवाल ने अपने प्रतिनिधि के तौर उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को बैठक में भेजकर कोरम पूरा करने की कोशिश ज़रूर की।

केजरीवाल और ममता बनर्जी नहीं पहुंचे नीति आयोग की बैठक में (साभार : गूगल)

केजरीवाल और ममता के बैठक में नहीं पहुँचने में कुछ विचित्र नहीं है, क्योंकि जिस तरह से इन दोनों ही नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का घृणा के स्तर तक जाकर विरोध किया जाता है, उसके बाद प्रधानमंत्री की किसी पहल में इनसे सहयोग की अपेक्षा की ही कैसे जा सकती है। दरअसल अब दोनों नेताओं की राजनीति में केवल और केवल नकारात्मकता ही नज़र आती है। बिना तर्क और आधार के केंद्र सरकार का विरोध करना अब इनकी राजनीति की मुख्य पहचान बन चुका है। फलस्वरूप अपने द्वारा शासित राज्यों में इनकी लोकप्रियता में भी कमी आई है, जिसकी बानगी अभी हाल ही में संपन्न उपचुनावों में देखने को मिली थी।

‘आप’ के कब्जे वाली दिल्ली की राजौरी गार्डन सीट के उपचुनाव में जहां केजरीवाल अपनी जमानत तक नहीं बचा सके, वही पश्चिम बंगाल की कांठी दक्षिण सीट पर ममता की तृणमूल कांग्रेस जीत तो गयी, मगर वामदलों से छिटके वोट हासिल न कर सकीं जिससे भाजपा नंबर दो पर आने में कामयाब रही। स्पष्ट है कि ममता और केजरीवाल अनावश्यक विरोध की नकारात्मक राजनीति के कारण लगातार अवनति की ओर बढ़ रहे हैं, मगर वे इसपर ध्यान देने को तैयार नहीं हैं। अब अपने अंध मोदी विरोध में इन्होने नीति आयोग का अघोषित बहिष्कार कर कहीं न कहीं राष्ट्रहित की पहल का ही बहिष्कार किया है, जो कि इनके प्रति जनता में अत्यंत नकारात्मक सन्देश प्रसारित करेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)