‘मोदी ने महागठबंधन के विषय में जो कहा था, वो एकदम सच साबित हुआ’

शिखर पर तो दोनों पार्टियों की दोस्ती हो गई, लेकिन जमीन पर ऐसा खुशनुमा माहौल नहीं बन सका। डेढ़ दशक तक दोनों के बीच तनाव रहा है। ऐसे में इनके लिए यह सब भूल जाना मुश्किल था। देखा जाए तो पहले कांग्रेस फिर बसपा से गठबन्धन के समय अखिलेश यादव ने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया जिसके चलते सपा को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे भी इस तरह के सिद्धांतहीन गठजोड़ का इससे अलग और क्या हश्र हो सकता था।

सपा और बसपा का गठबन्धन एक सुखद परिकल्पना पर आधारित था। इसमें माना गया था कि लोकसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा, लोकसभा त्रिशंकु होगी, सीटों के हिसाब से सपा-बसपा गठबन्धन सबसे आगे होगा। इस आधार पर मायावती को प्रधानमंत्री बनाने में अखिलेश यादव सहयोग करेंगे, फिर इस गठबन्धन का संयुक्त नारा होगा कि दिल्ली तो हमारी है, अब लखनऊ की बारी है।

मतलब 2022 में अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने में मायावती सहयोग करेंगी। लेकिन परिणाम आये तो यह सपना बिखर गया। यूँ एक सिद्धांतहीन गठजोड़ का यह हश्र बहुत चौंकाता नहीं है। पीएम मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कहा था कि 23 मई के बाद महागठबंधन वाले एकदूसरे के खिलाफ हो जाएंगे। मोदी की ये बात एकदम सही साबित हुई है।

गठबन्धन की विफलता पर आत्मचिंतन की आवश्यकता सपा को अधिक थी, उसे ही गठबन्धन का घाटा उठाना पड़ा था। लेकिन वह किसी निर्णय पर पहुंचने से बचती रही। उसके पहले ही मायावती ने नाकामी का ठीकरा सपा पर फोड़ दिया। सपा इसे किस रूप में लेगी, यह भविष्य में पता चलेगा, लेकिन मायावती का प्रत्येक वाक्य सपा पर बड़े प्रहार से कम नहीं है।

मायावती ने एक ही बैठक में गठबन्धन की पूरी समीक्षा कर ली, और उसके निष्कर्ष भी सार्वजनिक कर दिए। कहा कि उन्हें यादव वोट नहीं मिले। इसके पीछे मायावती का अपना तर्क है। उनके अनुसार  जब यादव बाहुल्य सीटों पर भी यादव समाज का वोट सपा को नहीं मिला, उसका  आधार वोट बैंक उससे छिटक गया है तो फिर उनका वोट बसपा को कैसे गया होगा? ठीकरा फोड़ने की पराकाष्ठा यह कि सपा  ने अच्छा मौका गंवा दिया है। इसके बाद मायावती ने नसीहत भी दी। कहा कि सपा को  सुधार लाने की जरूरत है।

भाजपा के  खिलाफ मजबूती से लड़ने की जरूरत है। मतलब सपा ऐसा करने में विफल रही है। यदि वह इस काम में सफल नहीं हो पाते हैं तो हमारा अकेले चलना ही बेहतर होगा। बसपा की ऐसी चुभने वाली टिप्पणी के बाद भी अखिलेश यादव का जबाब दो टूक नहीं रहा। उन्होंने कहा है कि अगर  उपचुनाव में गठबंधन साथ नहीं होता है तो फिर समाजवादी पार्टी भी चुनाव के लिए तैयारी करेगी। मतलब इसके बाद भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है।

सपा की कमान संभाले अखिलेश यादव को अभी करीब चार वर्ष हुए है, इस अवधि में उन्होंने अकेले चलने का हौसला प्रदर्शित नहीं किया। चार वर्ष में उन्होंने दो पार्टियों से गठबन्धन किये, दोनों से उनको निराशा ही मिली। इसके पहले अखिलेश पर अपने पिता और चाचा पर निर्भर रहने का आरोप लगता था। बाद में उन्होंन कांग्रेस और बसपा पर विश्वास किया। विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस से और लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबन्धन किया था। सपा के संस्थापक इन दोनों ही निर्णयों से असहमत बताए जा रहे थे। उनका आकलन दोनों बार सही साबित हुआ। मुलायम सिंह का कहना था कि कांग्रेस से समझौता सपा को नुकसान पहुंचाएगा। वही हुआ।

इस प्रकार अखिलेश द्वारा किया गया गठबन्धन का पहला प्रयोग शर्मनाक ढंग से विफल हुआ। यह माना गया कि वह इससे सबक लेंगे। भविष्य में आसानी से गठबन्धन नहीं करेंगे। लेकिन अखिलेश ने एक बार फिर गठबन्धन को आजमाने का निर्णय लिया। फर्क यह था कि इस बार कांग्रेस से बैर हो गया, और बसपा से दोस्ती हो गई। यह कांग्रेस के मुकाबले कहीं ज्यादा सिद्धांत विहीन गठबन्धन था।

गेस्ट हाउस कांड के बाद सपा और बसपा की दुश्मनी ही चर्चा में रहती थी। एक दूसरे के प्रति मर्यादा लांघ कर आरोप लगाने में भी किसी को संकोच नहीं था। सामान्य शिष्टाचार और बातचीत तो बहुत दूर की बात थी। मुलायम सिंह से विरासत में मिली यह राजनीतिक रंजिश अखिलेश ने भी संभाले रखी। इसी में दोनों का फायदा भी था। एक दूसरे को कोस कर सत्ता की अदला-बदली होती रही। अखिलेश ने मायावती को जब भी बुआ कहा, उसमें व्यंग्य और तंज ही रहता था।

विधानसभा चुनाव में अखिलेश अपनी प्रत्येक जनसभा में कहते थे कि पत्थर वाली बुआ से सावधान रहना, ये भाजपा के साथ चली जायेगी। इसी प्रकार मायावती ने बबुआ शब्द का सदैव नकारात्मक प्रयोग ही किया। डेढ़ दशक की इस अदावत को रिश्ते में बदलना असंभव था। ऊपर तो दोस्ती हो गई, संयुक्त जनसभा होने लगी, एक दूसरे में अच्छाई दिखने लगी, लेकिन जमीन पर यह सब आसान नहीं था।

अब तो ऐसा लगता है कि मायावती सपा की बेअदबी कभी भूली ही नहीं थीं। उन्होंने सपा को नीचा दिखाने की रणनीति बना ली थी। इस चक्रव्यूह में सपा फंसती चली गई। इस रणनीति का परिणाम यह रहा कि सपा धोखे में रह गई। जहाँ थी, वहां से आगे नहीं बढ़ सकी। गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव जीतने का जोश ठंडा भी नहीं पड़ा था कि ये दोनों सीट भी निकल गईं। पहली बार सैफई परिवार के तीन लोग पराजित हुए। अखिलेश अपनी पत्नी को भी जीता नहीं सके।

इसके बाद माना गया कि अखिलेश के पास गठबन्धन छोड़ने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। मुलायम सिंह का भी यही कहना था। गठबन्धन से बसपा को जीवनदान मिल गया। सपा कराहती ही रह गई। लेकिन एक बार फिर अखिलेश अवसर चूक गए। वह बसपा के खिलाफ मुंह खोलने से बचते रहे, मायावती ने एक बार फिर बाजी मार ली। उन्होंने गठबन्धन की विफलता का पूरा ठीकरा सपा पर फोड़ दिया।

देखा जाए तो इन पार्टियों के शीर्ष नेता बहुत उत्साहित थे। जाति-मजहब के आंकड़ों के आधार पर वह भाजपा के सफाये का दावा कर रहे थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। राष्ट्रीय लोकदल तो कहीं का नहीं रहा। जाहिर है कि गठबन्धन का पूरा लाभ बसपा को हुआ। अन्य दोनों पार्टियों को नुकसान उठाना पड़ा है। यह नुकसान केवल सीट तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सिद्धांतो तक विस्तृत है।

लोकसभा और विधानसभा में सपा बड़ी पार्टी रही है। लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे समझौते के लिए बसपा बिल्कुल भी उत्साहित नहीं है। बसपा प्रमुख ने साफ कहा था कि राजनीति में  न वह किसी की बुआ हैं, न कोई उनका भतीजा है। यदि उनकी पार्टी को सम्मानजनक सीट मिलेगी तभी वह समझौता करेंगी। बसपा प्रमुख का यह कथन सुनियोजित रणनीति का हिस्सा था। दलीय स्थिति में पीछे होने के बावजूद वह गठबन्धन की कमान अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी।

वह सपा प्रमुख से मिलने एक बार भी नहीं गईं, वार्ता के लिए उन्होंने कई बार बुलाया था। बताया जाता है कि सपा प्रमुख कांग्रेस को भी गठबन्धन में शामिल करना चाहते थे, लेकिन बसपा इसके खिलाफ थी। अंततः कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया। सपा और बसपा ने अपना वजूद बनाने के लिए गठबन्धन किया था। इनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं थी।

विकास की चर्चा नहीं होती थी। इसके अलावा शिखर पर तो दोनों पार्टियों की दोस्ती हो गई, लेकिन जमीन पर ऐसा खुशनुमा माहौल नहीं बन सका। डेढ़ दशक तक दोनों के बीच तनाव रहा है। ऐसे में इनके लिए यह सब भूल जाना मुश्किल था। देखा जाए तो पहले कांग्रेस फिर बसपा से गठबन्धन के समय अखिलेश यादव ने दूरदर्शिता से काम नहीं लिया जिसके चलते सपा को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे भी इस तरह के सिद्धांतहीन गठजोड़ का इससे अलग और क्या हश्र हो सकता था।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)