क्यों दिल्ली से मुंबई तक पलायन के नामपर जुटी भीड़ के पीछे साज़िश प्रतीत होती है?

सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है, लेकिन एक समाज के रूप में आज हमें भयावह आडंबरों, भावुक अतिवादों और मिथ्या दर्पों से जकड़े हुए समाज के समान व्यवहार करने की बजाय एक परिपक्व और जिम्मेदार समाज के रूप में अपना दायित्व निभाने की आवश्यकता है। भारत और भारतवंशियों ने सदैव ही संकट-काल में अपना सर्वोत्तम दिया है। चंद स्वार्थी ताक़तों एवं  राजनीतिक पूर्वाग्रहों-षड्यंत्रों को पराजित कर निश्चय ही हम सामूहिक संकल्प, संयम, सहयोग से इस संकट पर भी विजय पाएंगे। कोरोना की इस महामारी से लड़ने में हौसले और धीरज से काम लेते हुए हम दुनिया के लिए एक मिसाल कायम करेंगे।

पहले दिल्ली, अब मुंबई, फिर सूरत, उसके बाद ठाणे, इन सभी जगहों पर लगभग एक जैसे पैटर्न, एक जैसे प्रयोग; एक जैसी बातें, एक जैसी तस्वीरें देखने को मिली हैं। सवाल यह भी कि क्या भूख, बेरोजगारी या लाचारी का हौव्वा खड़ा कर रातों-रात ऐसी भीड़ एकत्रित की जा सकती है? स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी भीड़ के पीछे कुछ संगठनों और चेहरों की भूमिका की संभावनाओं को निराधार और निर्मूल नहीं सिद्ध किया जा सकता। नेपथ्य में दिखता परदे के पीछे का सच भी ऐसी ही किसी साज़िश की ओर इशारा करता है।

कहते हैं कि दिल्ली में तो बक़ायदा घोषणा कर-करके, डीटीसी की बसें उपलब्ध करा-कराकर लोगों को एक निश्चित स्थल पर एकत्रित होने का निर्देश दिया गया। मुंबई में भी लॉकडाउन बढ़ाए जाने की घोषणा के चंद घण्टों बाद हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई। क्या यह केवल विनय दुबे जैसे महापंचायत चलाने वाले व्यक्ति के अकेले दम पर संभव था? क्या इसके पीछे निहित राजनीतिक एजेंडे की बू नहीं आती? क्या यह भीड़ चंद घण्टों में एकत्रित की जा सकती थी?

वहाँ एकत्रित भीड़ में से कुछ ने कहा कि उन्हें वहाँ से ट्रेन से उनके गाँव-घर भेजे जाने की ख़बर मिली थी। कुछ ने कहा कि उन्हें सूचना दी गई थी कि वहाँ राशन आदि ज़रूरी सामान मुहैय्या कराए जाएंगे। सवाल यह भी है कि जब बांद्रा से बिहार-उत्तरप्रदेश की ओर कोई ट्रेन जाती ही नहीं तो फिर किसने और क्यों यह अफ़वाह फैलाई तथा उस अफ़वाह पर आसानी से भरोसा कर लेने वाला जत्था कौन-सा था? और लगभग ऐसे ही पैटर्न और प्रयोग ठाणे और सूरत में भी देखने को मिले।

यदि कोई इसमें राजनीतिक षड्यंत्र भाँप रहा है तो इसमें उसका क्या दोष? क्या जीवन से बढ़कर है भूख और बेरोजगारी? क्या बेरोजगारी कोई रातों-रात दूर होने वाली समस्या है? क्या सालों से दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में रहने वाले लोग इतना भी नहीं कमा और बचा पाते कि एक महीना धीरज और हिम्मत से वहीं रहकर अपना और अपने परिजनों के प्राणों की इस महामारी से रक्षा कर सकें?

यदि वे इतना भी नहीं अर्जित कर पाते तो शायद अपना घर-परिवार छोड़कर शहरों का रुख ही नहीं करते, क्योंकि आज गाँवों में भी कृषि-कार्य एवं मवेशी-पालन आदि के लिए दिहाड़ी मजदूरों की माँग में पर्याप्त वृद्धि हुई है, उनकी दैनिक मज़दूरी भी कहीं-कहीं 400-400 रुपए तक पहुँच गई है।

पलायन को केवल भूख और बेरोजगारी से जोड़ना एक सरलीकृत निष्कर्ष होगा। चूंकि बात अलग विषय पर हो रही है, इसलिए यहाँ पलायन के कारणों पर सविस्तार चर्चा करना भी विषयांतर हो जाएगा। ऐसे में यहाँ केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि यह अनियंत्रित ही नहीं, बल्कि कुछ सीमा तक अराजक भीड़ द्वारा देश को विकास की पटरी से उतारने का कुचक्र है। समय-असमय का ध्यान किए बिना प्रधानमंत्री मोदी और उनके हर निर्णय को विफल करने का षड्यंत्र है।

आप सोचिए कि जब केंद्र और तमाम राज्य सरकारें भोजन जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का न केवल बारंबार आश्वासन दे रही हैं, अपितु उस दिशा में लगातार सक्रिय और सचेष्ट भी दिखाई दे रही हैं, तब ऐसी भगदड़, ऐसी हाय-तौबा का क्या अर्थ है?

एक संभावना यह भी है कि राजनीतिक साजिशों से अनजान इस जनसैलाब में कुछ भोले-भाले, अधीर लोग अपने-अपने गाँव महामारी के वाहक बनकर पहुँच जाएं। इनमें से अधिकांश की स्थिति ऐसी होगी कि वे महीना-दो-महीना शहर में रुक सकते हैं। अतः कोई उन्हें समझाए कि अपनी अज्ञानता में वे अपने परिजनों के लिए बीमारी की सौग़ात लेकर जाना चाहते हैं और कुछ राजनीतिक गिरोहों के शातिर लोग उन्हें अपना राजनीतिक ग्रास बना लेना चाहते हैं। कुल मिलाकर अभी इन्हें समझा-बुझाकर, शांत कर, परिस्थितियों की भयावहता से परिचित कराने का प्रयास करना ही उपाय है।

विडंबना यह है कि गगनचुंबी अट्टालिकाओं और वातानुकूलित कक्षों में बैठ गरीबों-मजलूमों की बात करना इस देश के कतिपय नेताओं-बुद्धिजीवियों का फैशनेबल चलन रहा है। समय-असमय नक़ली क्रांति की राग अलापने वाला यह क्रांतिकारी वर्ग/क्लास शायर हो सकता है, लीडर हो सकता है, फिलॉस्फर हो सकता है, इंटलैक्चुअल भी हो सकता है, बल्कि और भी बहुत कुछ हो सकता है, पर गरीबों-मजलूमों का, हमारा-आपका, सच्चा हितैषी, हमदर्द और हमसफ़र नहीं हो सकता। वह तो कोई जमीन से निकला; धरातलीय अनुभव, संघर्ष व संस्कारों की आँच में तपा-सच देखने, सच जानने, सच कहने का साहस रखने वाला परिव्राजक सदृश त्यागी व्यक्तित्व ही हो सकता है।

कटु किन्तु सत्य है कि इस देश के बुद्धिजीवियों-पत्रकारों-सरकारों, विशिष्ट समझे जाने वाले स्वयंभू लोगों में भी कई बार गज़ब का दोमुंहापन देखने को मिलता है। परमुखापेक्षिता और परावलंबिता की संस्कृति ने भारत के गाँवों व आम लोगों को आत्मनिर्भर ही कहाँ रहने दिया और वोट-बैंक को ध्यान में रखकर दी जाने वाली अनुदानों की अनियंत्रित बाढ़ ने भी कोढ़ में खाज का ही काम किया।

खैर, रोग की जड़ तक जाकर भारत सरकार को सोच-विचार के साथ दूरगामी एवं तात्कालिक हितों को साधने वाले निर्णय लेने की जरूरत है। और हर्ष का विषय है कि सरकार कोरोना और उससे उत्पन्न भयावह स्थिति-परिस्थितियों पर पैनी निगाह रख रही है, तेजी से निर्णय ले रही है, उसकी समीक्षा कर रही है और आवश्यक प्रतीत होने पर संशोधन भी कर रही है। उसके द्वारा घोषित राहत पैकेजों में भी सचमुच बुनियादी ज़रूरतों का ध्यान रखा जा रहा है।

सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है, लेकिन एक समाज के रूप में आज हमें भयावह आडंबरों, भावुक अतिवादों और मिथ्या दर्पों से जकड़े हुए समाज के समान व्यवहार करने की बजाय एक परिपक्व और जिम्मेदार समाज के रूप में अपना दायित्व निभाने की आवश्यकता है। भारत और भारतवंशियों ने सदैव ही संकट-काल में अपना सर्वोत्तम दिया है। चंद स्वार्थी ताक़तों एवं  राजनीतिक पूर्वाग्रहों-षड्यंत्रों को पराजित कर निश्चय ही हम सामूहिक संकल्प, संयम, सहयोग से इस संकट पर भी विजय पाएंगे। कोरोना की इस महामारी से लड़ने में हौसले और धीरज से काम लेते हुए हम दुनिया के लिए एक मिसाल कायम करेंगे।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)