गांधी-दर्शन के पुनर्पाठ सरीखा रहा वैचारिक महाकुंभ

संजय द्विवेदी

हमारे प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने नवाचारों और सरोकारों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी मंशा थी कि कुंभ के अवसर पर होने वाली विचार-विमर्शों की परंपरा को इस युग में भी पुनर्जीवित किया जाए। उनकी इस विचार शक्ति के तहत ही प्रदेश में लगभग दो साल चले विमर्शों की श्रंखला का समापन सिंहस्थkumbh महाकुंभ के अवसर पर उज्जैन के समीप निनोरा गांव में तीनदिवसीय ‘अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ” के रूप में हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना सहित आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी शिरकत की।

मूल्य आधारित जीवन, मानव कल्याण के लिए धर्म, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन, विज्ञान और अध्यात्म, महिला सशक्तीकरण, कृषि की ऋषि परंपरा, स्वच्छता और पवित्रता, कुटीर व ग्रामोद्योग जैसे विषयों पर विमर्शों ने इन संगोष्ठियों की उपादेयता न केवल बढ़ाई, बल्कि यह आयोजन एक सरकारी कर्मकांड से आगे लोक-विमर्श के स्वरूप में बदल गया। इसमें जिस तरह से भारतीय भूमि को केंद्र में रखकर लोकहितार्थ विमर्श हुआ, वह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। राजसत्ता को जनसरोकारों से जोड़ता है और विमर्श की भारतीय परंपरा को मजबूत करता है।

सिंहस्थ का घोषणा-पत्र सिर्फ इस अर्थ में महत्वपूर्ण नहीं है कि वह महज भारत और भारत के लोगों का विचार करता है, बल्कि इसमें विश्व मानवता की चिंता है और समूची पृथ्वी पर सुख कैसे विस्तार पाए, इसके सूत्र इसमें पिरोए गए हैं। यह घोषणा-पत्र वृहत्तर समाजवाद की पैरवी करते हुए कहता है कि पूंजी का अधिकतम लोगों में अधिकतम प्रसार ही आर्थिक प्रजातंत्र है। कुटीर उद्योगों को आर्थिक व सामाजिक प्रजातंत्र के अहम अंश की तरह देखा जाना चाहिए। खेती के बारे में सिंहस्थ घोषणा-पत्र कहता है कि शून्य बजट खेती की अवधारणा को लोकप्रिय करने की जरूरत है, ताकि न्यूनतम लागत से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके।

इस विचार महाकुंभ की विशेषता यह रही कि ये एक साथ अनेक विषयों पर बात करते हुए, हमारे समय के अनेक सवालों से टकराता है और उनके ठोस, वाजिब हल ढूंढ़ने की कोशिश करता है। यह धर्म की छाया में मानवता के उदात्त विचारों के आधार पर विकास की अवधारणा पर बात करता है। यह लंबे समय से चल रही विकास की परिपाटी को प्रश्नांकित करता है और भारतीय स्वावलंबन, ग्राम स्वराज की पैरवी करता है। यह आयोजन सही मायने में गांधी का पुर्नपाठ सरीखा रहा जहां गांव, समाज, गाय, कृषि, स्त्री, विकासक्रम में पीछे छूटे लोगों, किसानों, बुनकरों इत्यादि सब पर विचार हुआ। इस आयोजन ने मप्र को एक नए तरीके से देखने व सोचने का मौका दिया है। लगातार चार सालों से कृषि कर्मण अवार्ड जीतते हुएमप्र ने खेती के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर लोहा मनवाया है। अब उसके सामने चुनौती है कि वह विकास की पश्चिमी अवधारणा से विलग कुछ करके दिखाए और भारतीय पारंपरिक मूल्यों के आधार पर कृषि व अन्य संरचनाएं खड़ी करे।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विवि में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं, यह लेख दैनिक नईदुनिया में १६ मई को प्रकाशित हुआ था )