संघ के संघर्षों और बलिदानों की अमिट गाथा है गोवा मुक्ति आन्दोलन!

पुर्तगाली वास्को-डि-गामा हो या स्पेनिश कोलम्बस, इन सबको इतनी दूर भारत आने के लिए जिस एक चीज ने विवश किया वो थे भारतीय मसाले, यह मसाले जिस जगह पैदा होते थे वो पश्चिमी घाट का तटवर्ती इलाका था,  उसमें भी मालाबार और गोमान्तक इस व्यापार के केंद्र में रहे हैं। कोलंबस तो कभी भारत नहीं पहुँच पाया, पर वास्को-डि-गामा का बेड़ा सन 1498 में भारत पहुँच गया, जिसके बाद पुर्तगालियों का भारत में लगातार आना जाना लगा रहा। इन व्यापारिक यात्राओं ने शीघ्र ही राज्य विस्तार का रूप ले लिया जिसके बाद का इतिहास पुर्तगालियों और मालाबार – गोमान्तक की जनता के संघर्ष का इतिहास हैं। जमोरिन, अब्बक्का महादेवी आदि कितने ही भारतीय नायकों ने जमकर पुर्तगालियों से लोहा लिया पर गोवा समेत कुछ इलाका पुर्तगालियों के हाथ में लग गया। उन्नीसवी शताब्दी तक यूरोप की कालोनी बन चुके भारत में स्वतंत्रता की चेतना 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से ही आ गयी, पर फलीभूत ठीक 90 साल बाद 1947 में ही हो पायी। इस स्वतंत्रता में भी पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के साथ-साथ ही फ्रेंच और पुर्तगाली कालोनियों की गुलामी की भी समस्या थी।  लगातार बातचीत व जनप्रयासों से साल 1956 तक फ्रेंच कालोनियों की तो भारत में विलय की सहमति या विलय की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी, पर पुर्तगाली हठधर्मिता के कारण ऐसा गोमान्तक क्षेत्र मे नहीं हो पाया।

युएफजी ने उसी वर्ष 21 जुलाई को दमन और 31 जुलाई को दादरा को आजाद करा लिया, वहीँ 11 अगस्त के दिन इन दोनों से कहीं बड़े नागर हवेली को विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में 40-50 संघ के स्वयंसेवकों और प्रभाकर विट्ठल सेनारी व् प्रभाकर वैद्य के नेतृत्व में आजाद गोमान्तक दल के दमन व् गोवा से आये कार्यकर्ताओं ने पुर्तगालियों से आजाद करा लिया। अब दबाव गोवा के लिए बढ़ने लगा, जबकि प्रधानमंत्री नेहरू इस समस्या का कूटनीतिक हल चाहते थे । उनका मत था कि उस  वक्त पुर्तगाल नाटो का सदस्य था, उस पर कश्मीर का भी विवाद चल रहा हैं, सो ऐसे में भारत की तरफ से सैनिक कार्यवाही उचित नहीं हैं। जनता, नेहरु के कूटनीतिक रास्ते के लिए तैयार नही थी और नागर हवेली की फतेह के साथ ही उत्साहित थी। जिसे देख साल 1955 में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा मुक्ति आन्दोलन की शुरुवात कर दी, आन्दोलन के शुरुवाती दिनों में ही राजा भाऊ महांकाल की गोली लगने से मृत्यु हो गयी, इस घटना पर लोगो ने भारत सरकार पर आंदोलनकारियो की मदद की गुहार लगाई जिसपर सरकार ने उलटे आन्दोलनकारियों पर ही रोक शुरू कर दी। इस घटना के विरोध में  गुरूजी गोलवलकर ने  सरकार से कार्यवाही कर गोवा मुक्ति करने को कहा, जिससे भारत के अन्य पड़ोसियों को भी जवाब मिल सके।

सन 1932 में सलाज़ार के सत्ता सम्भालने के बाद ही पहले से लागू सेंसरशिप गोवा में और मजबूत हो गयी, गोवा में पुर्तगालियों की नीति के विरुद्ध जाने पर बेइंतहा जुल्म की आंधी चल पड़ी, जिसके कारण पिछले 100 वर्षों से शांत रहे गोवा में राष्ट्रवाद की नींव पुख्ता होने लगी। साल 1946 में डॉ जुलियो मेनिंजेस ने अपने सहपाठी और हिंदुस्तानी मेनलैंड के बड़े सोशलिस्ट डॉ राममनोहर लोहिया को बुलाकर स्वतंत्रता के लिए बड़ी रैली की जिसमे बाद में लोहिया जी ने सविनय अवज्ञा (सिविल डिसोबेड़ियेन्स) का आह्वाहन किया।

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गोवा आन्दोलन के दौरान संघ स्वयंसेवक (साभार: गूगल)

18 जून का वह दिन गोवा के इतिहास में आज भी याद किया जाता हैं, जब दोनों मित्रों को गिरफ्तार कर लिया गया और रात के अँधेरे में लोहिया को गोवा के बाहर निकाल दिया गया। इस सबके बावजूद 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली तो गोवा गुलाम ही रह गया, ऐसे में महाराष्ट्रियन-गोमांतक लोगो ने गोवा के अंदर से बगावत कर दी। सलाज़र के अड़ियल रवैये को देखते हुए साल 1953 में भारत सरकार और पुर्तगाल के बीच आधिकारिक रूप से सम्बन्ध-विच्छेद हो गए, भारतीय मिशन को गोवा से वापिस बुला लिया गया, उसके साथ ही मुंबई में गोवा एक्शन कमिटी बनी। सन 1954 में मापुसा के बड़े सर्जन को जब पुर्तगाल द्रोह के आरोप में पत्नी समेत पुर्तगाल भेज दिया गया तो गोवा, महराष्ट्र व् कर्नाटक में इसके विरोध की आंधी चल पड़ी, मुंबई में यूनाइटेड फ्रंट आफ गोवन (युएफजी) का संगठन अस्तित्व में आ गया।

13 जून, 1955 में कर्नाटक के बड़े जनसंघ नेता व् आरएसएस के सदस्य जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्यग्रह का आह्वाहन किया, वे सभा से घर ना लौटकर सीधे गोवा की तरफ रवाना हुए। उनके साथ 3000 संघ के कार्यकर्ता भी थे, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी थी। 15 अगस्त 1955 को उनका साथ देने 8000 राष्ट्रभक्त भारत से कूच कर चले, गोवा में तैनात पुर्तगाली सेना ने गोलियां चला दी और करीब 32 लोग मारे गए। नेहरू सरकर मौन रही। इस प्रकार कई-कई आन्दोलन 1961 तक चले, उस वर्ष एक भारतीय कश्ती पर हमले के बाद भारतीय सेना ने पुर्तगाल की सेना को गोवा से खदेड़ गोवा का भारत में विलय करा लिया। गोवा आन्दोलन के लिए प्रसिद्ध संगीतकार व् संघ स्वयं सेवक सुधीर फड़के ‘बाबुजी’ ने सांस्कृतिक आधार पर मदद करी तो वहीँ प्रमुख संचालिका ‘ताई’ सरस्वती आपटे के नेतृत्व में गोवा मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रिय सेविका समिति ने भी हिस्सा लिया वे पुणे में एकत्रित होने वाले सभी सत्याग्रही गुटों भोजन आदि की व्यवस्था करती थी। आन्दोलन में गोलीबारी में मृत लोगों के दुर्गंध भरे शव भी आते थे, उनकी व्यवस्था में सेविकाओं ने भी खूब सहयोग दिया।

युएफजी ने उसी वर्ष 21 जुलाई को दमन और 31 जुलाई को दादरा को आजाद करा लिया वहीँ 11 अगस्त के दिन इन दोनों से कहीं बड़े नागर हवेली को विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में 40-50 संघ के स्वयंसेवकों और प्रभाकर विट्ठल सेनारी व् प्रभाकर वैद्य के नेतृत्व में आजाद गोमान्तक दल के दमन व् गोवा से आये कार्यकर्ताओं ने पुर्तगालियों से आजाद करा लिया। अब दबाव गोवा के लिए बढ़ने लगा, प्रधानमंत्री नेहरू इस समस्या का कूटनीतिक हल चाहते थे । उनका मत था कि उस  वक्त पुर्तगाल नाटो का सदस्य था, उस पर कश्मीर का भी विवाद चल रहा हैं, सो ऐसे में भारत की तरफ से सैनिक कार्यवाही उचित नहीं हैं। जनता, नेहरु के कूटनीतिक रास्ते के लिए तैयार नही थी और नागर हवेली की फतेह के साथ ही उत्साहित थी। जिसे देख साल 1955 में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा मुक्ति आन्दोलन की शुरुवात कर दी, आन्दोलन के शुरुवाती दिनों में ही राजा भाऊ महांकाल की गोली लगने से मृत्यु हो गयी, इस घटना पर लोगो ने भारत सरकार पर आंदोलनकारियो की मदद की गुहार लगाई जिसपर सरकार ने उलटे आन्दोलनकारियों पर ही रोक शुरू कर दी। इस घटना के विरोध में  गुरूजी गोलवलकर ने  सरकार से कार्यवाही कर गोवा मुक्ति करने को कहा, जिससे भारत के अन्य पड़ोसियों को भी जवाब मिल सके।

13 जून, 1955 में कर्नाटक के बड़े जनसंघ नेता व् आरएसएस के सदस्य जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्यग्रह का आह्वाहन किया, वे सभा से घर ना लौटकर सीधे गोवा की तरफ रवाना हुए। उनके साथ 3000 संघ के कार्यकर्ता भी थे, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी थी। गोवा की सीमा पर पहुँचने पर पुर्तगालियों ने सब सत्याग्रहियों पर लाठी-गोली चला दी। संघ व् प्रजा सोसलिस्ट पार्टी की मदद से यह सत्याग्रह लगातर जून से अगस्त 1955 तक होते रहे। गोवा मुक्ति विमोचन समिति ने गोवा के अंदर शुरू कर दिया। 15 अगस्त 1955 को उनका साथ देने 8000 राष्ट्रभक्त भारत से कूच कर चले, गोवा में तैनात पुर्तगाली सेना ने गोलियां चला दी और करीब 32 लोग मारे गए। नेहरू सरकर मौन रही। इस प्रकार कई-कई आन्दोलन 1961 तक चले, उस वर्ष एक भारतीय कश्ती पर हमले के बाद भारतीय सेना ने पुर्तगाल की सेना को गोवा से खदेड़ गोवा का भारत में विलय करा लिया। गोवा आन्दोलन के लिए प्रसिद्ध संगीतकार व् संघ स्वयं सेवक सुधीर फड़के ‘बाबुजी’ ने सांस्कृतिक आधार पर मदद करी तो वहीँ प्रमुख संचालिका ‘ताई’ सरस्वती आपटे के नेतृत्व में गोवा मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रिय सेविका समिति ने भी हिस्सा लिया वे पुणे में एकत्रित होने वाले सभी सत्याग्रही गुटों भोजन आदि की व्यवस्था करती थी। आन्दोलन में गोलीबारी में मृत लोगों के दुर्गंध भरे शव भी आते थे, उनकी व्यवस्था में सेविकाओं ने भी खूब सहयोग दिया।

इन दिनों जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तिरंगा यात्रा को लेकर पहले गोवा फिर मंगलोर पहुंचे तो सारे गोमान्तक से जनसंघ व् संघ के उन्ही दिनों के रिश्तों को उन्होंने मजबूत किया। उस विरासत के मद्देनजर अमित शाह ने उल्लाल, मंगलोर की वीरांगना अब्बक्का महादेवी को श्रद्धांजली दी, अब्बक्का ने 40 साल तक पुर्तगालियों को उल्लाल से दूर रखा था। अपने सन्देश में शाह ने कहा कि आज अपने लिए नहीं, देश के लिए जीने की जरूरत है और यही संदेश युवाओं तक पहुंचाने के लिए इस तिरंगा यात्रा का आयोजन देश भर में किया गया है। शाह ने अपने संदेश में संविधान सभा के कन्हैयालाल मुंशी की राष्ट्र की उस व्याख्या को दोहराया जिसमे उन्होंने एक आदर्श राष्ट्र के लिए चार बिन्दुओं को सुझाया था – राष्ट्र जो अपनी संप्रभुता के साथ अपनी सीमाओं की सुरक्षा कर सके, राष्ट्र जिसकी दुनिया में मान-प्रतिष्ठा हो,  राष्ट्र जो समृद्ध और सुसंस्कृत हो और राष्ट्र जो कल्याण राज्य की परिकल्पना पर आधारित हो। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के मूल्यों में इन सभी चार बात्तों का उल्लेख किया। पहली तीन बातों के लिए प्रधानमन्त्री मोदी के विदेश दौरे, कुटनीतिक सफलताएं व् सामरिक शक्ति की बढ़ोतरी पर उठाये गए कदमो को बताया तो वही चौथे आयाम के सन्दर्भ में बताया की उनकी सरकार हर 15 दिन में एक लोक कल्याण योजना लाती हैं। उन्होंने राष्ट्रवाद के सही मूल्यों को युवाओं को समझने की जरूरत पर बल दिया तथा उन्होंने युवाओं से गोवा समेत सब कुर्बानियों के इतिहास को पढ़ने और फिर राष्ट्रवाद की समझ बनाने को कहा, साथ ही उन्होंने फ्रीडम की स्पीच पर अनर्गल मिथ्याचार को समझने की जरूरत पर भीबल दिया।

(लेखक सेंटर फार सिविलाइजेश्नल स्टडीज, नयी दिल्ली में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)